कतिपय लोगों की मिथ्या धारणा है कि संतमत-संतों का मत लोगों को प्रमादी, पुरुषार्थहीन, अकर्मण्य, निरुत्साही एवं साहसहीन बनाता है। इतना ही नहीं, वे यहाँ तक कहने की घृष्टता करते हैं कि साधु-संतों ने सत्य और अहिंसा का पाठ पढ़ा-पढ़ाकर, शरीर और संसार की अनित्यता बताकर लोगों को कायर बना युद्ध से विमुख कर दिया, फलतः देश पराधीन हुआ।
उनलोगों से निवेदन है कि वे अपनी ऐसी दलीलों को अपने पास रखें। वे स्वयं तो भ्रामक विचारों से भ्रमित हैं ही और अन्यों को भी व्यर्थ चक्कर में डालते हैं-ऐसा वे न करें।
उनको जानना चाहिए कि संत कबीर साहब, गुरु नानक साहब, संत पलटू साहब, संत दादू दयालजी, संत रविदासजी प्रभृति संतों ने स्वोपार्जन कर, रूखा-फीका, सलोना-अलोना खाकर अपना जीवन-निर्वाह किया और देश-कल्याण के लिए उनलोगों ने जितना बड़ा काम किया, उसका मूल्यांकन करने का दुस्साहस कौन कर सकता है?
‘दीन इस्लाम’ परिवार में पालित होते हुए संत कबीर ने वैदिक और इस्लाम-दोनों धर्मावलम्बियों को एकता का पाठ पढ़ाया। उन्होंने कभी भी किसी का पक्षपात नहीं किया; बल्कि जैसा जहाँ उनको उचित जँचा-कटु वा मधु, निर्भीकता से कहा-
हिन्दू कहत है राम हमारा, मुसलमान रहमाना ।
आपस में दोउ लड़े मरत हैं, दुविधा में लिपटाना ।।
हिन्दू की दया मेहर तुरकन की, दोनों घर से भागे ।
यह करे जिवह वह झटका मारे, आग दोउ घर लागी ।। -संत कबीर
मिथ्या रूढ़िवाद को मिटाने तथा सद्ज्ञान- प्रचार करने के हेतु उन्हें अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इतना ही नहीं, उन्हें अपनी जान पर खेलना पड़ा। उस समय के सिकन्दर शाह लोदी तथा उनके गुरु शेख तकी द्वारा ये बेतरह सताए गए। उनलोगों ने इनको कभी देग (बड़े कड़ाह) में देकर चूल्हे पर चढ़ाकर उबाला, तो कभी हाथ-पैर बाँधकर हथियार-भरे कुँए में फेंका, कभी हाथ-पैर बाँधकर बीच गंगाजी में डुबाया; फिर भी संत कबीर बेदाग निकले। उनको मारने की अनेक चेष्टाएँ करने पर भी जब वे लोग असफल रहे, तब शेख तकी कहने लगा-‘चेटक नेटक जुलाहा जाने। शाह सिकन्दर तू मत माने।।’ फिर उनको हाथी के पैर-तले दबवाने की कुचेष्टा की गई; किन्तु संत कबीर का वह बाल बाँका न कर सका। इस तरह कबीर साहब की बहत्तर कसनी प्रसिद्ध है। आज संत कबीर की लोक कल्याण-वाणी देश-विदेश में, घर-घर में, स्कूल-कॉलेज में इतना ही नहीं, विद्वान-अविद्वान के मुँह-मुँह में लोकोक्ति के रूप में प्रचलित है।
गुरु नानकदेवजी ने जन-कल्याणार्थ देश- विदेश में भ्रमण करके लोगों को ईश्वर-भक्ति, सदाचार-पालन एवं सत्संग करने के लिए सिखाया और काम, क्रोधादि विकारों तथा छल, कपट, पाखण्डादि दुर्गुणों से बचने की सीख दी।
हमें और भी देखना है कि संतों ने ‘सर्वभूतहित’ के लिए कितना बड़ा त्याग किया है। हमें इस बात की अभिज्ञता होनी चाहिए कि महात्मा साक्रीटीज ने जहर का प्याला क्यों पिया? सेण्ट ईसामसीह ने अपने को क्रॉस पर क्यों लटकाया? पौराणिक ऋषि दधीचि ने अपने जीवित शरीर को गाय से चटवाकर वक्षःअस्थि क्यों अर्पित की? क्या महान त्यागियों में अपनी-अपनी कुत्सित स्वार्थ-भावनाएँ भरी थीं? कदापि नहीं। ‘संत सहहिं दुःख परहित लागी’ को साकार रूप देने के लिए तथा ‘निज परिताप द्रवहिं नवनीता। पर दुख हेतु संत सुपुनीता।।’ को चरितार्थ करने के लिए ही इन महान आत्माओं ने अपनी कुर्बानी की।
हमारी आँख खुलनी चाहिए कि जयचन्द और पृथ्वीराज कब के जैन, बौद्ध वा अन्य संतमतानुयायी थे, जिनके द्वारा भारत पराधीन हुआ था। हमें दुरालोचना-लोचन विमोचन कर विवेक, विलोचन निरावरण करके अवलोकन करना चाहिए कि महाराज अशोक, जो कि बौद्ध थे, सत्य और अहिंसा के पोषक और पुजारी थे, उनका साम्राज्य कितना विशाल, सुव्यवस्थित, सुसम्पन्न, सुगठित, सुशिक्षित और सुरक्षित था! आज स्वराज पाकर भी, क्या हम उस तरह की सुव्यवस्था की कल्पना कर सकते हैं? यह हम गंभीरतापूर्वक विचारकर देखना चाहेंगे, तो देख सकेंगे कि सत्य और अहिंसा के महान उपासक (महात्मा गाँधी) के द्वारा ही यह देश स्वाधीन हो सका है। और भी लीजिए, आपको स्मरण होगा कि जिन दिनों अन्य देशों के लोग हम भारतवासियों को बूत-पूजक समझकर तिरस्कृत करते थे, उन दिनों स्वदेश से सुदूर विदेश जाकर एक संतमतानुयायी संन्यासी (स्वामी विवेकानन्दजी) ने ही भारत का मुख उज्ज्वल किया था।
जानना चाहिए कि कोई भी संत-मतानुयायी सफल योद्धा होने में समर्थ हो सकता है; क्योंकि उसको इस बात की विशेष शिक्षा मिली रहती है कि शरीर क्षणभंगुर है, अनित्य है। शरीर मरता है, आत्मा अजर, अमर, अविनाशी है। शरीर म्यान है, आत्मा तलवार है। एक तलवार के जीवन में कितने म्यान बदलते हैं। हम क्षेत्रज्ञ हैं, क्षेत्र वस्त्र के समान नूतन-पुरातन होता रहता है। एक जीर्ण पट के फटने पर अन्य नव पट धारण करते हैं, इस भाँति एक देहपात के बाद नव-नूतन तन ग्रहण करते हैं। इसलिए वह (संतमतानुयायी) योद्धा युद्ध-भूमि में काया की माया को छायावत् छोड़कर वीरतापूर्वक युद्ध कर दुश्मनों को मूली की भाँति उच्छेद कर डालेगा।
दूसरी बात यह है कि संतमतानुयायी परम आस्तिक होते हैं, उनका परम बल परमात्मा है। उनको भगवान श्रीकृष्ण के गीतोपदेश में दृढ़ विश्वास होता है कि भगवान भक्त का योग-क्षेम वहन करते हैं-‘योगक्षेमं वहाम्यहम्’ (श्रीमद्भ0 गी0 9।22) और यह बात भी सुनिश्चित है कि ईश्वर उनकी सहायता करते हैं, जो अपने से अपनी सहायता करते हैं। ‘God helps those who help themselves’ इसलिए वह और भी अत्यन्त निर्भीक होकर समर करेगा। संत कबीर कहते हैं-
साधा सती औ सूरमा, इनकी बात अगाधा ।
आशा छोड़ै देह की तिनमें अधिका साधा ।।
साधा सती औ सूरमा, ज्ञानी औ गजदन्त ।
एते निकसि न बाहुरै, तो युग जाय अनन्त ।।
सिर राखे सिर जात है, सिर काटे सिर सोय ।
जैसे बाती दीप की, कटि उजियारा होय ।।
किन्तु जिसको केवल शरीर-ज्ञान है, आत्मज्ञान नहीं है और जो नास्तिक है, वह क्या समर-भूमि में सम्मुख संग्राम कर सकता है? क्योंकि उसने तो शरीर को ही सब कुछ मान रखा है। शरीर नष्ट हुआ और स्थिति कुछ रही ही नहीं। इसलिए वह अपने शरीर-रक्षार्थ अपनी दुम दबाकर पीछे ही भागेगा। साथ ही दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि उसे अपने निज बल की ही जो न्यूनाधिक पूँजी है, सो है, उसकी वृद्धि वा अभिवृद्धि की कोई भी आशा-किरण उसे दिखाई नहीं पड़ती। इसलिए वह उस नए बछड़े कि समान होगा, जो अपने कंधे पर जुए लेकर सीधी राह में तो खूब दौड़ लगाता है; किन्तु बीहड़ मार्ग आने पर वह उस जुए को इस भाँति फेंककर भागता है, जैसे सर्प केंचुली को।
जरा खालसा इतिहास के पन्ने उलटकर संतमत-योद्धाओं की वीर-गाथाएँ पढ़िए। बन्दावीर की वीरता, धीरता, गंभीरता एवं सहिष्णुता को देखकर हमें दाँतों तले अँगुली दबानी पड़ेगी। अल्पकाल में ही वह दुश्मनों के अनेक सिर भुट्टे की भाँति साफ कर डालता है और जब वह स्वयं दुश्मनों के हाथ पकड़ा जाता है और लोहे के चूँटे को अग्नि में रक्तवर्ण कर उससे उसके शरीर का मांस नोचा जाता है, उस समय भी बन्दावीर प्रसन्न मुद्रा में उन दुश्मनों से प्रश्नोत्तर करता है। फर्रुखसियार के पूछने पर कि तुम्हारे साथ इतनी बेरहमी किए जाने पर भी तुम प्रसन्न दीखते हो, इसका क्या कारण है? बन्दावीर ओजपूर्ण वाक्यों में कहता है-‘तुम नहीं जानते, हमारे यहाँ श्रीमद्भगवद्गीता है, तुम मेरा बाल-बाँका नहीं कर सकते, तुम तो नश्वर शरीर मात्र को नोच रहे हो।’ बन्दावीर का शरीर छूटता है, किन्तु साहस अटूट रहता है। कोई संत-संतान ही इस वीरत्व-दशा को प्राप्त कर सकता है।
गुरु गोविन्द सिंहजी महाराज के दो रत्न (सुपुत्र), जो क्रमशः सात और नौ साल के थे, निर्भीक हो अपने हो भित्ति में चुनवाते हैं; किन्तु धर्म- परिवर्त्तन नहीं करते हैं। क्यों? उनकी रग-रग में, रक्त की बूँद-बूँद में, बूँद के विन्दु-विन्दु में संतमत का जोश कल्लोल कर रहा था। दोनों मरते दम तक कहते रह गए ‘हम गुरुपुत्र हैं, हम धर्म-परिवर्त्तन नहीं कर सकते।’
गुरु गोविन्द सिंहजी महाराज मीरी और पीरी दोनों तलवारें रखते थे। गुरु अर्जुनदेवजी महाराज ने देश-रक्षार्थ जितनी यातनाएँ झेलीं, वे अवर्णनीय हैं। गुरु तेगबहादुर सिंहजी महाराज ने ‘बहुजन सुखाय बहुजन हिताय’ अपनी जान दी। नरकेशरी गुरु गोविन्द सिंहजी महाराज ने दुश्मनों के चंगुल से भारत-भूमि को बचाने के लिए क्या प्रयत्न उठा रखा? पुत्रें-सहित स्वयं युद्धाग्नि में जूझ पड़े।
जिस महाभारत में कौरव-पाण्डवों की वीरता की भूरि-भूरि प्रशंसा की गई है, उसी (महाभारत) में पुत्र-परिवार के शोक से संतप्त उनके हृदयगत दौर्बल्य-जनित करुण कन्दन, अश्रुपात और विलाप के भी भरपूर वर्णन मिलते हैं। कहाँ वह वीरत्व और कहाँ यह करुण क्रन्दन! मानो, उस सारी वीरता को यह मटियामेट कर डालता है।
किन्तु यहाँ स्वयं (गुरु गोविन्द सिंहजी महाराज) अपने किले के बूर्जे पर बैठकर सब तमाशा देख रहे हैं कि पुत्र अनेक दुश्मनों का संहार कर वीरत्वदशा को प्राप्त करता है, ऐसी अवस्था में उनके मुँह से आवाज निकलती है-शाबास बेटा! शाबास!!
पुनः द्वितीय पुत्र की पीठ ठोककर कहते हैं-‘बेटा! अब तुम्हारी बारी है।’ वह भी तैयार हो जाता है और युद्ध करते-करते वह भी वीर गति को प्राप्त करता है। पुनः इनके मुँह से वही हर्षाशिष-ध्वनि गुंजायमान होती है-शाबास बेटा! शाबास!!
यहाँ कहाँ करुण क्रन्दन, यहाँ कहाँ अश्रुपात ।
यहाँ तो मुँह से निकलता, बार-बार धान्यवाद ।।
धन्य हैं गुरु गोविन्द सिंहजी महाराज और धन्य है उनकी कीर्ति! आज हमारे बीच वे अव्यक्त होकर भी अमर हैं। भला ऐसा क्यों न हो? यहाँ तो महाभारत-मैदान में मोह-ग्रस्त महाबाहु को दिए माधव मुरलीधर की मधुर मुरली-ध्वनि में वह मंत्र सतत ध्वनित होता रहता था- ‘तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च’ (गी0 8।7) और जिसको उन्होंने चरितार्थ कर दिखलाया। एक बात और संतमत किसी को घर-वार का परित्याग कर कानन-विहारी बनाना नहीं सिखाता। वह तो स्पष्ट शब्दों में कहता है-
घर में जोग भोग घर ही में, घर तजि बन नहिं जावै ।
घर में वसत वस्तु भी घर है, घर ही वस्तु मिलावै ।।
संतमत सिखाता है-
‘कपड़े रंग कर जो न कपट का जाल बिछावे ।
तन पर जो न विभूति पेट के लिए लगावे ।।
हमें चाहिए सच्चे जी वाला वह साधू ।
देश जाति जग हित कर जो नित जनम गँवावे ।।’
‘पर उपकार वचन मन काया ।
संत सहज स्वभाव खगराया ।।
भूरज तरु सम संत कृपाला ।
परहित नित सह विपति विशाला ।।
संत विटप सरिता गिरि धारनी ।
परहित हेतु सबन्हि कै करनी ।।’
तथा-‘विश्व उपकार हित व्यग्रचित सर्वदा त्यक्तमदमन्युकृत पुण्यरासी’ को चरितार्थ करने के लिए।
अतएव दृढ़तापूर्वक जानना चाहिए कि संतमत मनुष्य मात्र को ज्ञान-विज्ञान के द्वारा उत्साह, स्फुर्ति, धैर्य, सत्साहस, स्वधर्म-पालन तथा परोपकारादि सद्गुणों को भर उन्हें अनृण होना और सानुकूल जीविकोपार्जन कर स्वावलम्बी जीवन बिताते हुए, स्वदेश-रक्षार्थ अपने को बलि-वेदी पर चढ़ाना सिखाता है।
(शान्ति-सन्देश, अक्टूबर 2000)
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गुरु नानकदेवजी महाराज का अवतार संसार के उद्धार के लिए हुआ था। वे संसार के लोगों को जगाने के लिए आये थे। संसार का काम करते हुए परमार्थ का साधन किस प्रकार किया जाए, इसका आदेश उन्होंने दिया। वे कहते हैं-
जैसे जल महि कमलु निरालमु मुरगाई नैसाणै ।
सुरति सबदि भवसागरु तरीअै नानक नामु बखाणै ।।
कमल की उत्पत्ति जल से होती है; लेकिन कितना भी जल बढ़े, वह जल को डूबा नहीं सकता। कमल जल से हमेशा ऊपर रहता है। उसी तरह जिस संसार में तुम जन्म लिये हो, उसी में रहो; लेकिन कमल की तरह संसार से ऊपर उठकर रहो। सांसारिकता तुम्हें डुबा नहीं पाए।
कमल से सुगंध निकलती है तो चतुर्दिक सुरभित होता है। उसी तरह तुम इस तरह का ज्ञान प्राप्त करो कि तुम्हारे ज्ञान का यश, कृति का यश, तुम्हारे कर्म का यश, तुम्हारे परोपकार का यश संसार भर में फैले। कमल एक जगह खिलता है; लेकिन दूर-दूर से भौंरे आकर उसका पराग ले जाते हैं। उसी तरह तुम्हारा ज्ञान ऐसा होना चाहिए कि दूर-दूर से लोग आएँ और ज्ञान लेकर जाएँ। यह कैसे होगा? संत सद्गुरु की शरण जाओ, उनसे शिक्षा-दीक्षा लो, वे जो बतावें, वह करो, तो तुम्हारा यह लोक और परलोक दोनों उज्ज्वल होगा।
नानक सतिगुर भेटिअै पूरी होवै जुगती,
हसं दिआ खेलं दिआ पैनं दिआ
खावं दिआ बिचे होवे मुकती।
जिनको पूरे सद्गुरु मिलेंगे, पूरी युक्ति मिलेगी, वे सत्कर्म करेंगे, सद्धर्म करेंगे, सदाचरण करेंगे, तो उनका स्वाभाविक ही संसार में यश फैलेगा और शरीर छूटने के बाद परलोक में उनका कल्याण होगां गुरु नानकदेवजी महाराज फरमाते हैं-
जे सउ चन्दा उगवहि सूरज चड़हि हजार ।
एतै चानन होदिआ गुर बिनु घोर अंधार ।।
अर्थात् दिन में सूर्य और रात में चन्द्रमा संसार को प्रकाशित करता है; लेकिन ऐसे सैकड़ों चन्द्रमा उग जाएँ और हजारों सूर्य उदय हो जाएँ, अगर गुरु का ज्ञान नहीं है, तो तुम्हारा जीवन अंधकारमय रहेगा।
गुरु नानकदेवजी महाराज के एक सरदार को जिसका नाम झंडा था, खबर भेजी कि पाँच सौ मुहर लाएँ। बेचारा गरीब था। सोचने लगा कि अब गुरु महाराज की आज्ञा है, तो कैसे नहीं पहुँचाएँगे। लेकिन पाँच सौ मुहर लाएँ तो कहाँ से लाएँ? झंडा और उसके पुत्र दोनों यही विचारने लगे।
उस समय तो वहाँ का नवाब था, उसके यहाँ एक पहलवान रहता था, जिसका नाम था-मसकीनिया। वह इतना बलवान था कि उससे कोई लड़ना नहीं चाहता था; क्योंकि जैसे ही कोई उसे कोई हाथ लगाता, वह झिड़क देता और इस तरह किसी का हाथ टूट जाता, किसी का माथा फूट जाता, कोई मर ही जाता था। उस नवाब ने घोषणा कर दी थी कि जो हमारे पहलवान से मल्ल युद्ध करेगा, तो हारनेवाले को पाँच सौ मुहर दूँगा और जीतनेवाले को मुँहमाँगा ईनाम मिलेगा।
झंडा ने अपने बेटे से कहा-बेटा! मुझे मल्ल युद्ध में जाने दो। मैं उससे मल्लयुद्ध करूँगा। यदि मैं मर भी गया, तो क्या होगा, पाँच सौ अशर्फियाँ तुझे मिलेंगी, उससे गुरु महाराज की आज्ञा का पालन होगा। लड़के ने कहा-नहीं, पिताजी! मुझे जाने दीजिए युद्ध में। झंडा अपने बेटे को समझा-बुझाकर नवाब के पास चला गया। उसने नवाब से कहा, ‘मैं आपके पहलवान से मल्ल युद्ध करने आया हूँ।’ नवाब ने पूछा, ‘अरे बुड्ढा! तुम युद्ध करोगे?’ झंडा ने कहा, ‘हाँ, मैं युद्ध करूँगा।’ नवाब ने मसकीनिया से कहा, ‘देखो, यह बुड्ढा तुमसे मल्लयुद्ध करने आया है।’ मसकीनिया भी आश्चर्य से पूछने लगा, ‘क्या तुम मुझसे युद्ध करोगे?’ झंडा ने कहा, ‘हाँ-हाँ, मैं तुमसे युद्ध करूँगा। समय पर दोनों का युद्ध आरंभ हुआ। तमाशा देखने के लिए बहुत-से लोग इकट्ठे हो गये। मसकीनिया ने जैसे ही उसके हाथ से हाथ मिलाया, झंडा ने ऐसा पटका दिया कि धड़ाम से धरा पर गिर गया। मसकीनिया नीचे हो गया और झंडा ऊपर। तालियाँ बज गयीं। नवाब ने मसकीनिया से पूछा, ‘अरे! यह बुड्ढा तुमको गिरा दिया?’ मसकीनिया कहने लगा, ‘नवाब साहब! क्या बतलाऊँ, मुझको तो अपना बल था, पर इसको गुरु का बल था। जहाँ गुरु का बल है, वहाँ उसके सामने कौन टिक सकता है?
झंडा ने पाँच सौ अशर्फियाँ ही माँगी। नवाब ने झंडा से कहा, ‘पाँच सौ अशर्फियाँ!’ पाँच सौ अशर्फियाँ तो हारनेवाले के लिए घोषणा की गयी थी, तुम तो जीत गये हो, तुमको मुँहमाँगा मिलेगा। बोलो, क्या चाहिए?’ झंडा ने कहा, ‘मुझे पाँच सो अशर्फियों से अधिक की आवश्यकता नहीं है।’ नवाब ने उसे पाँच सौ अशर्फियाँ दीं। वह उन अशर्फियों को लेकर गया, गुरु के चरणों में समर्पित कर दिया। गुरु नानकदेवजी महाराज ने प्रसन्न होकर कहा-
सुखी रहो मसकीनिया आप निवारि तले ।
बड़े-बड़े अहंकारिया नानक गरबि गले ।।
जिसके ऊपर गुरु का वरदहस्त रहता है, उसकी सर्वत्र जीत-ही-जीत होती है। जो सच्चे गुरु होते हैं, वे परमात्मा तक पहुँचने की युक्ति बतलाते हैं। जिज्ञासा हो सकती है, ‘परमात्मा को कहाँ खोजें?’ इसका उत्तर गुरु नानकदेवजी महाराज इस भाँति देते हैं-
सब किछु घर माहिं बाहर नाहीं।
बाहरि टोलै सो भरमि भुलाहीं ।।
‘घर महि’ का मतलब है ‘घट माहिं’। एक घर तो वह है, जिसमें कि शरीर रहता है और दूसरा यह शरीर ही घर है, जिसमें हम रहते हैं। इसी शरीररूपी घर में सब कुछ है, जो बाहर खोजते हैं, टटोलते हैं, वे ‘भरमि भुलाहीं’-भ्रम में भूले रहते हैं। तात्पर्य यह कि बाहर में भ्रम है और अंदर में ब्रह्म है-
इस गुफा महि अखुटा भंडारा,
तिसु बीचि बसै हरि अलख अपारा।
आपे गुपत परगट है आपे,
गुरु शबद आप वञावणिआ।।
इस शरीर रूपी गुहा में अखुट भंडार है। उससे कितना भी निकालिए, समाप्त नहीं होगा। इतना ही नहीं, इसके अंदर परम प्रभु परमात्मा भी विराजमान हैं। लेकिन यह भंडार मिलेगा कैसे? इसपर गुरु नानकदेव जी महाराज कहते हैं-
गुरु परसादी जिनि अन्तर पाइआ ।
सो अंतरि बाहरि सुहेला जीउ ।।
गुरु की कृपा से जिन्होंने अपने अंतर में प्रभु को पा लिया, उनका बाहर और भीतर-दोनों जीवन सुखमय हो जाता है। गुरु नानकदेवजी महाराज आगे फरमाते हैं-
झिमि झिमि बरसै अंम्रित धारा।
मनु पीवै सुनि शबदु विचारा ।।
अनद विनोद करै दिन राती।
सदा सदा हरि केला जीउ ।।
जनम जनम का बिछुड़िया मिलिआ।
साध क्रिपा ते सूका हरिआ ।।
सुमति पाए नामु धिआए।
गुरमुखि होए मेला जीउ ।।
जल तरंग जिउ जलहि समाइआ।
तिउ जोति संगि जोति मिलाइआ ।।
कहु नानक भ्रम कटे किवाड़ा।
बहुरि न होइअै जउला जीउ ।।
हमारे अंदर ज्योति की वर्षा होती है, हमारे अंदर शब्द की वर्षा होती है। इन्हीं दो रूपों में अमृत हमारे अंदर है। बाहर में अमृत-अमृत लोग कहते हैं; लेकिन आजतक किसी ने देखा नहीं। अमृत क्या है? गुरु नानकदेवजी कहते हैं-
अमृत एको शबद है, नानक गुरुमुख पाइआ।
जो गुरुमुखी लोग हैं, उनको शब्द मिलता है और फिर-
सुरत शबद भवसागर तरिअै नानक नाम बखानै।
अंतर में चलने पर पहले अनहद शब्द मिलता है, फिर अनाहत। वही सार शब्द है, वही ओं कार है। इसी ओंकार से सारी सृष्टि हुई है। दसवें गुरु गोविंद सिंहजी महाराज की वाणी है-
प्रणवो आदि एकंकारा,
जल थल मही अल कीउ पसारा।
तथा प्राणसंगली में लिखा है-‘शब्द ततु बीर्य संसार----नानक शब्द घटे घटि आछै।’ उस शब्द को जब कोई पकड़ते हैं, तो वह उसको परमात्मा तक पहुँचा देता है। यही है भवसागर से तरना अर्थात् सारे दुःखों से छूट जाना। आपलोगों ने यहाँ आने का कष्ट किया और गुरुग्रंथ साहब मुझे भेंट करने की कृपा की। इससे में बड़ा उपकृत हुआ हूँ। इससे बहुत ज्ञान लूँगा और लोगों में भी इस ज्ञान का विस्तार करूँगा। इससे बहुतों का जीवन प्रकाशमय होगा। गुरु नानक देवजी महाराज संत थे। उनके ज्ञान का सारा संसार सम्मान करता है। विशेषकर पंजाब प्रान्त उनके ज्ञान से अधिक प्रभावित है। पाँच सौ वर्ष से अधिक हुए जबकि वे इस धराधाम पर सशरीर रहकर अपने अनमोल ज्ञान से जगत को आलोकित कर रहे थे। गुरु नानक पंथ में दस गुरु हुए। दसवें गुरु गोविंद सिंह ने सिक्ख सरदारों का संगठन किया। सद्धर्म की रक्षा के लिए इनका अपूर्व त्याग रहा है। किसी कवि ने कहा है-
लुटाता है जो जर अपना, वही जरदार होता है ।
कटाता है जो सर अपना, वह सरदार होता है ।।
सरदार सज्जनों में साधु-संतों और सत्संग के प्रति बड़ी श्रद्धा-भक्ति होती है। उनका वे बहुत आदर सत्कार और सेवा करते हैं।
एक बार का प्रसंग है। परम पूज्य गुरुदेव को स्व0 रायबहादुर दुर्गादास तुलसी के सुपुत्र श्रीबाबू नंद कुमार तुलसीजी जालंधर (पंजाब) ले गये थे। गुरुदेव के साथ में भी था। एक दिन वे उनको एक गाँव ले गये, जहाँ सत्संग और भंडारे का आयोजन था। बहुत लोग इकट्ठे हुए थे। मैंने वहाँ देखा, कई माताएँ सब्जी टुकड़ा कर रही थीं, कोई रोटियाँ बना रही थीं, कोई भजन गा रही थीं। पुरुषवर्ग के लोग भी वहाँ के अपने-अपने सेवा कार्यों में व्यस्त थे। गुरु महाराज कमरे में बैठे थे और मैं बाहर बरामदे में था। कई सरदार साहब मेरे पास आकर बैठ गये और मुझसे परिचय पूछने लगे। मैंने अपना परिचय दिया।
सुनकर, उनलोगों ने कहा-‘तो आप वे ही संतसेवीजी हैं, जिनका प्रवचन पटना साहब में हुआ था? मैंने कहा-हाँ, पटना साहब में गुरु नानकदेव जी महाराज की पंचशती जयंती मनायी गयी थी। उस समारोह में परम पूज्य गुरुदेव (महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज) के साथ में भी गया हुआ था। वहाँ उनका प्रवचन हुआ। पश्चात् वहाँ के ग्रंथीजी तथा जिनके सभापतित्व में कार्यक्रम हो रहा था, उन्होंने मुझसे आग्रह किया था कि आप भी कुछ कहिए, तब मैंने भी गुरु नानकदेव के संदर्भ में कुछ कहा था। मेरा वह प्रवचन ‘पंजाब केशरी’ में छपा था। वही आपलोगों ने पढ़ा होगा।
वे लोग बहुत प्रसन्न हुए और मेरे साथ बड़ा आदर दिखलाया। पुनः उनलोगों ने प्रेमपूर्वक हर्षोल्लास स्वर में कहा-देखिए, गुरुगोविंद सिंहजी महाराज बिहार में हुए थे। वे जब यहाँ (पंजाब) आये तो हमलोगों ने उनको यहाँ (पंजाब) से जाने नहीं दिया। आप भी बिहार से आये हैं, अब आपको भी बिहार जाने नहीं दूँगा। इस प्रकार प्रेमालाप के पश्चात् वे लोग वहाँ से चले गये। जालंधर में गुरु महाराज के कई दिनों का सत्संग-कार्यक्रम था। समय-समय पर सत्संग होता। वहाँ के गणमान्य लोग उसमें सम्मिलित होते थे। उसी क्रम में ‘पंजाब केशरी’ के संपादक भी आते और परम पूज्य गुरुदेव से जिज्ञासा करते। अपनी जिज्ञासा का समाधान पाकर वे प्रमुदित चित वापस जाते। बड़ा आनंद हुआ। कार्यक्रम जब समाप्त हुआ, तो हमलोग वहाँ से आए।
यहाँ आश्रम में प्रतिदिन तीन बार सत्संग होता है। खासकर प्रत्येक रविवार को साप्ताहिक सत्संग होता है, जिसमें बाहर से बहुत प्रेमी सज्जन आते हैं। आपलोग आते रहिए, सत्संग करते रहिए। आपलोगों के लिए मेरी मंगलकामना के साथ बहुत-बहुत धन्य वाद है। (गुरुद्वारा के सरदार ज्ञानीजी द्वारा गुरुग्रंथ भेंट, स्थान: कुप्पाघाट, भागलपुर; दिनांक 29-10-2000 ई0)
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अभी आपलोग संतवाणियों के आधार पर सोने और जगने की बात सुन रहे थे। हमलोग प्रतिदिन सोते और जगते हैं। इसलिए सोने और जगने में जो क्रियाएँ होती हैं, उनसे हमलोग अवगत हैं। इसके संबंध में संत लोग क्या कहेंगे! संत लोग उस जगने के संबंध में कहते हैं, जिसकी जानकारी हमलोगों को नहीं है। हमलोग विषयाभिमुख होकर सोये हुए हैं, जब निर्विषय तत्त्व की ओर चलेंगे, तब वास्तविक जगना होगा। गो0 तुलसीदासजी ने कहा है-
मोह निसा सब सोवनिहारा।
देखहिं सपन अनेक प्रकारा।।
यहि जग जामिनी जागहिं योगी।
परमारथी प्रपंच वियोगी।।
जानिय तबहिं जीव जग जागा।
जब सब विषय विलास विरागा।।
होइ विवेक मोह भ्रम भागा।
तब रघुनाथ चरन अनुरागा।।
सखा परम परमारथ येहू।
मन क्रम वचन राम पद नेहू।।
राम ब्रह्म परमारथ रूपा।
अविगत अकथ अनादि अनूपा।।
सकल विकार रहित गत भेदा।
कहि नित नेति निरूपहिं बेदा।।
गोस्वामीजी का कथन है कि हमलोग अज्ञान की रात में सोये हुए हैं। अज्ञानता की ओर से हम ज्ञान की दिशा में चलें। अज्ञानता किस ओर है और ज्ञान की दिशा कौन-सी है? आँख से नीचे जबतक हम रहते हैं, यह अज्ञान की दिशा है। हम जैसे-जैसे आँख से ऊपर की ओर जाते हैं; वैसे-वैसे ज्ञान की दिशा में जाते हैं। जाग्रतावस्था में हम आँख में रहते हैं, उस समय हमको इस स्थूल जगत का ज्ञान होता है। स्वप्नावस्था में हम आँख के नीचे कंठ में चले आते हैं, तो जाग्रतावस्था का ज्ञान छूट जाता है, स्वप्नावस्था का ज्ञान होने लग जाता है। उस समय हमारा शरीर रहता है कहीं और हम दृश्य देखते हैं कहीं का। उससे नीचे जब हम हृदय में चले आते हैं, तो उस मानसिक जगत से भी छूटकर हम अचेतावस्था में आ जाते हैं। इसको सुषुप्ति अवस्था कहते हैं। संतों का कथन है कि जैसे-जैसे हम आँख से नीचे की ओर जाते हैं, वैसे-वैसे हमारी अज्ञानता बढ़ती जाती है। जब हम आँख में रहते हैं, तो जाग्रतावस्था में आँख से जितनी दूर की चीजों को हम देखते हैं, उसी जाग्रतावस्था में कान से हम उतनी दूर के शब्दों को नहीं सुन सकते। कान से जितनी दूर के शब्दों को हम ग्रहण कर सकते हैं, नासिका से उतनी दूर की गंधों को ग्रहण नहीं कर सकते। नासिका से जितनी दूर की गंध हम ग्रहण करते हैं, जिभ्या से उतनी दूर की चीजों का रसास्वादन नहीं कर सकते हैं। इससे सिद्ध होता है कि जैसे-जैसे हम नीचे की ओर जाते हैं, हमारी अज्ञानता बढ़ती जाती है।
हृदय से जब हम कंठ में जाते हैं, तो हमारी अचेतावस्था छूट जाती है, स्वप्नावस्था आ जाती है। उस समय मानसिक जगत में हम घूमने लगते हैं। कंठ से ऊपर जब हम आँख में आ जाते हैं, तो मानसिक जगत छूट जाता है और स्वाभाविक जगत हमारे सामने में आ जाता है। इस प्रकार प्रतिदिन के कार्य- कलाप से प्रमाणित है कि जैसे-जैसे ऊपर की ओर जाते हैं ज्ञान की वृद्धि होती है। संत जन का कथन है-अगर आँख से ऊपर तुम अपने को ले जा सके, तो तुमको उस जगत का ज्ञान हो जाएगा, जिस जगत का ज्ञान तुमको अभी नहीं है। उसी जगत में जाना ही जगने का आरंभ है। इसी के लिए गोस्वामीजी ने कहा है- ‘तीन अवस्था तजहु भजहु भगवन्त।’ और वे भगवंत जो मिलेंगे, उसका स्वरूप कैसा होगा, तो कहा-
‘मन क्रम वचन अगोचर, व्यापक व्याप्य अनन्त।’
अभी हम इन्द्रियों के द्वारा विषयों का ज्ञान कर रहे हैं और इन्द्रियों को प्रेरित करनेवाला मन है। आँखों से हम रूप देखते हैं, कानों से शब्द सुनते हैं, नासिका से गंध ग्रहण करते हैं, जिभ्या से रसास्वादन करते हैं और त्वचा से स्पर्श का ज्ञान करते हैं। इन पंच ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा पंच विषयों का ज्ञान करते हैं। लेकिन गोस्वामीजी का कथन है-
जानिय तबहिं जीव जग जागा।
जब सब विषय विलास विरागा।।
जब इन विषयों से हम ऊपर उठ जाएँ। इन विषयों से ऊपर उठने का मतलब कि हम अपने को मन से ऊपर उठा लें; क्योंकि मन की प्रेरणा से ही इन्द्रियाँ विषयों में जाती हैं। मूल चीज पहले हम मन को शुद्ध करें। मन ही विषयों के कीचड़ में लिपटा हुआ है, फँसा हुआ है। इसको हम कैसे निकालें? गो0 तुलसीदासजी ने बड़े ही उत्तम ढंग से इसका स्पष्टीकरण किया है-
भूमि परत भा ढाबर पानी।
जनु जीवहिं माया लिपटानी।।
वर्षा का जल बहुत पवित्र होता है। किन्तु वह जल जब मिट्टी का स्पर्श करता है, तो गँदला हो जाता है, अपेय हो जाता है। उसी तरह यह जीव जो ईश्वर का अंश और अविनाशी है, माया का संग करके अपवित्र हो गया है।
जब पवित्र जल मिट्टी का संग करके अपवित्र हो जाता है, तो हमलोग उसका फिल्टरेशन करके उसे साफ करते हैं, पेय बना लेते हैं। क्या करते हैं? गँदला जल का घड़ा सबसे ऊपर में रखते हैं। उसके नीचे एक दूसरा घड़ा रखते हैं, जिसमें कोयला रहता है। उसके नीचे एक घड़ा रखते हैं, जिसमें चूना रहता है। उसके नीचे एक घड़ा हम रखते हैं, जिसमें बालू रहता है। उसके नीचे बिल्कुल खाली घड़ा रहता है, उसके मुँह के ऊपर कपड़ा बँधा रहता है। नीचेवाले खाली घड़े को छोड़कर ऊपर के अन्य भी घड़ों के पेंदे में छेद रहता है। ऊपर गँदला पानी चू करके कोयलावाले घड़े में आ जाता है, कोयला से छनकर पानी चूनावाले घड़े में आ जाता है। चूना से पानी छनकर नीचे बालू से छनकर पानी फिर कपड़े से छनकर खाली घड़ा में आ जाता है। तब जैसे पहले पवित्र जल था, वैसा ही हो जाता है।
कहने का तात्पर्य क्या हुआ? कबीर यह तन कुंभ है-यह तन घड़ा है, इसमें गँदला जल भरा है। उस गँदले जल को साफ करने के लिए किधर ले जाएँगे? पहले कोयले के घड़े में ले जाइए। आँखें बंद कर लीजिए, अंधकार-मंडल मालूम होगा, वह है कोयला का घड़ा। जैसे कोयले के घड़े में छेद था, उसी तरह अंधकार में छेद है, जिसका भेद संत सद्गुरु बतलाते हैं। उस छेद से निकालिए। वह छेद कैसा है? बहुत महीन है। गुरु महाराज के वचन में आया है-‘सूई अग्र दर ले लही।’
सूई के आगे का हिस्सा होता है, उसकी नोक से भी वह अधिक महीन है। अगर उस होकर के सुरत आगे सरक जाए तो क्या होगा? कहा कि ‘या मग सुरत सरकि जब जावे’ तो-‘जोति झकाझक कीनी’। चूना होता है उजला अर्थात् आप जब अंधकार से प्रकाश में चले जाएँगे, तो समझिए कि चूना के घड़े में आ गये। लेकिन चूने के घड़े में ही रहना नहीं है।
छट-छट छट-छट बिजली छटके,
भोर का तार दिखाता है।
चन्दा उगत उदय हो रबिहू,
धूर शब्द मिल जाता है।।
गुरु महाराज कहते हैं-विविध प्रकार की ज्योतियाँ हैं; लेकिन इन ज्योतियों में लिपट कर नहीं रहना है। ‘इस मंडल से आगे वीरो और तुम्हें बढ़ना होगा।’ अंधकार को पार करके तो प्रकाश में आ जाए। अब प्रकाश को भी पार करो, आगे जाओ। कहाँ जाओगे? चूना के घड़े से पानी कहाँ जाएगा? बालू के घड़े में। बालू के इतने कण हैं, जिसकी गणना नहीं हो सकती। गंगा के किनारे में बालूका राशि है, उसकी गणना हम नहीं कर सकते; लेकिन चलते-चलते बालूका राशि पार कर मिट्टीवाले जमीन पर चले जाते हैं। उसी तरह अपने अंदर में इतने प्रकार के शब्द हैं, जिसकी गणना नहीं हो सकती। इसीलिए उसकी संज्ञा अनहद की दी गई है। अंतस्साधना द्वारा अनहद को भी पार कर जाएँगे। वही है सारशब्द। उस शब्द को भी पार करो। उस शब्द के सहारे चले जाओ, कहाँ? ‘निःशब्दं परमं पदम्’ में। वही निर्विषय तत्त्व परम प्रभु परमात्मा है। मानो कपड़े से छनकर पूर्ववत् पवित्र पानी शून्य घड़ा में चला गया। महायोगी गोरखनाथ की वाणी है-
‘बस्ती न शून्यं शून्यं न बस्ती,
अगम अगोचर ऐसा।
गगन शिखर महिँ बालक बोलहिं,
वाका नाम धरहुगे कैसा।।’
‘वह तुम्हीं तुम वही मेँहीँ प्रश्न पुनि रहते नहीं।’
तुम वही बन जाओगे, जो पहले थे। जीव पीव में मिलकर एक हो जाएगा। वहाँ जगने का प्रश्न नहीं रहेगा।
(स्थान: कुप्पाघाट, भागलपुर; साप्ताहिक, दिनांक: 20-8-2001; शान्ति सन्देश, नवम्बर 2001 ई0)
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गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने विनय- पत्रिका में लिखा है-
अनविचार रमणीय महा संसार भयंकर भारी।
अनविचार अर्थात् बिना विचार के। जो विचार हीन, विवेकहीन लोग हैं, उनके लिए यह संसार रमणीय है, किन्तु विवेकी जन की दृष्टि में भयंकर भारी है। संसार का बहिरंग बहुत सुंदर, प्रिय एवं मधुर है; किन्तु इसका अंतरंग अत्यन्त असुंदर, अप्रिय और विषाक्त है। संसार की उपमा सर्प से दी गयी है। सर्प का बाह्यरूप सुन्दर होता है; किन्तु उसके भीतर में विष भरा हुआ होता है। सर्प के सिर को आप अपनी मुट्ठी में लेकर उसकी पूँछ को नीचे की ओर लटका दीजिए, तो दूर से देखनेवाले लोग कहेंगे कि बाबू के हाथ में सुंदर छड़ी है। अगर उस सर्प को गले में लपेट लीजिए, तो देखनेवाले कहेंगे कि गले में बहुत अच्छा माला है। अगर उसकी पूँछ को हाथ में लपेट लीजिए तो लोग कहेंगे-हाथ में बहुत सुन्दर बाला है। लेकिन वास्तव में वह न बाला है, न माला है, वह तो विष धर नाग का काला है। गोस्वामीजी ने दूसरी उपमा इस प्रकार दी है-मन मलीन तन सुन्दर कैसे।
विष रस भरा कनक घट जैसे।।
जैसे सोने का घड़ा हो और उसमें विष भरा हुआ हो, तो घड़ा का बहिरंग तो बहुत सुंदर है; लेकिन उसके भीतर जो है, उसको पान कीजिए, तो जान अवश्य जाएगी। उसी तरह यह संसार बहुत सुंदर, आकर्षक लगता है, लेकिन इसे भोग करनेवाला मृत्यु के मुँह से नहीं छूट सकता है। भगवान बुद्ध ने कहा-संसार के लोग कोई ‘सुभानुपस्सी’ होते हैं और कोई ‘असुभानुपस्सी’।
सुभानुपस्सिं विहरन्तं इन्द्रियेसु असंवुतं ।
भोजनम्हि अमत्तमञ्ञुं कुसीतं हीनवीरियं ।
तं वे पसहति मारो वातो रुक्ख व दुब्बलं ।।
शुभ ही शुभ देखते हुए विहार करनेवाले, इन्द्रियों में असंयत, भोजन में मात्र न जाननेवाले, आलसी और उद्योगहीन पुरुष को मार वैसे ही गिरा देता है, जैसे वायु दुर्बल वृक्ष को। महोपनिषद् में आया है-
भारोऽविवेकिनः शास्त्रं भारो ज्ञानं च रागिणः।
अशान्तस्य मनो भ्ाारो भारोऽनात्मविदो वपुः।।
जो अविवेकी है उसके लिए शास्त्र भार है, शास्त्र की बात उनको अच्छी नहीं लगती, उनको अपने मन की ही बात अच्छी नहीं लगती है। वे जो समझते हैं, वही बात उनको हितकर जान पड़ती है। अच्छी बात अगर उनको कोई समझाते हैं, तो वह उनको अच्छी नहीं लगती।
भगवान श्रीकृष्ण ने दुर्योधन को बहुत समझाया कि युद्ध मत करो, तुम दोनों भाई हो। पाण्डव बेचारे जंगल-जंगल भटक चुके, दूसरे के यहाँ जाकर रहे। जो पांडव का राज्य है, उसको तुम दे दो। शर्त के अनुकूल अपना काम करो। लेकिन दुर्योधन ने भगवान की एक न सुनी। भगवान ने यहाँ तक कहा-‘अरे! धर्म- अधर्म को, पाप-पुण्य को, कर्तव्य-अकर्तव्य को भी तो समझो।’ लेकिन दुर्योधन क्या उत्तर देता है-
जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्तिः
जानामि अधर्मं न चे मे निवृत्तिः ।
केनाऽपि देवान्हृदि स्थितेन यथा
नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि ।।
हे कृष्ण! आप मुझे धर्म और अधर्म की बात क्या समझाते हैं! मैं धर्म-अधर्म की बात जानता हूँ; लेकिन धर्म की ओर मेरी प्रवृत्ति नहीं है। आपके समझाने से क्या होगा? मैं अधर्म को भी जानता हूँ, लेकिन उस ओर से निवृत्ति नहीं है। कोई देवता मेरे भीतर बैठा हुआ है, वह मुझको जैसा कहता है, वैसा मैं करता हूँ। विवेकी जन समझ सकते हैं कि दुर्योधन के भीतर देवता बैठा था या राक्षस।
जो अविवेकी है उसके लिए शास्त्र भार है, बेकार है, किसी काम का नहीं है। उसके लिए तो यह चार्वाक का सिद्धांत ही महत्त्वपूर्ण है।
यावत् जीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् ।
भस्मीभूत शरीरस्य पुनरागमन कुतो भवेत् ।।
जबतक जियो सुख से जियो, ऋण लेकर घी पियो। शरीर छूटता है तो कौन देखता है कि कौन मरा, कौन जिया, कहाँ गया, नहीं गया। इसलिए जो करना है, इसी शरीर में मौज कर लो, भोग कर लो।
संतों का ज्ञान बतलाता है कि किसी भी स्थूल चीज का निर्माण तबतक नहीं होता, जबतक उसका सूक्ष्म रूप नहीं होता है। हमलोगों का यह स्थूल शरीर है। इसके पहले सूक्ष्म शरीर, सूक्ष्म के पहले कारण शरीर, कारण के पहले महाकारण शरीर और महा कारण शरीर के पहले कैवल्य शरीर है। जब हमारा स्थूल शरीर छूटता है तो हम कहाँ जाते हैं? जैसे अभी हमारा यह स्थूल शरीर है और स्थूल शरीर के लिए स्थूल लोक है, उसी तरह स्थूल शरीर जब छूट जाता है, तो सूक्ष्म शरीर के साथ हम यहाँ से निकलकर सूक्ष्मलोक में जाते हैं। उसी सूक्ष्मलोक में स्वर्ग और नरक है। शुभ कर्म करनेवाले स्वर्ग जाते हैं और अशुभ कर्म करनेवाले नरक जाते हैं।
भगवान बुद्ध ने कहा है-‘हमारी वर्तमान हालत हमारे विचारों का फल है, उसकी बुनियाद हमारे विचारों पर है, वह हमारे विचारों से बनी है। मनुष्य अगर बुरी कल्पना से बोलता या काम करता है, तो दुःख उसके पीछे वैसे ही चलता है, जैसे बैलगाड़ी खींचनेवाले बैल के पीछे-पीछे उसका चक्का।’
पुनः उन्होंने कहा-‘हमारी वर्तमान हालत हमारे विचारों का फल है, उसकी बुनियाद हमारे विचारों पर है और वह हमारे विचारों से बनी है। मनुष्य अगर अच्छी कल्पना से बोलता या काम करता है, तो सुख उसके पीछे-पीछे वैसे ही चलता है, जैसे उसके शरीर की छाया, जो उसे कभी नहीं छोड़ती।’
मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम जगज्जननी जानकी और लक्ष्मणजी के साथ वनगमन करते हैं। उसी क्रम में भगवान श्रीराम और जानकी एक वृक्ष के नीचे पत्ते की शय्या पर सोये हुए थे। रात्रि का समय था। लक्ष्मणजी थोड़ी दूर पर बैठकर पहरा दे रहे थे। गुहनिषाद लक्ष्मणजी के पास आकर बैठ गये। भगवान श्रीराम और सीताजी को पत्ते की शय्या पर सोये देखकर गुहनिषादजी के मन में विषाद हुआ। वे कहने लगे, ‘ये राजराजेश्वर और राजरानी हैं। कहाँ महल अटारी में दुग्धफेन के समान कोमल उज्ज्वल शय्या पर सोनेवाले आज यहाँ पत्ते की शय्या पर सोये हैं। कैकेयी ने अच्छा नहीं किया।’ गुहनिषाद् की बात सुन, लक्ष्मणजी कहते हैं-
काहु न कोउ सुख दुख कर दाता ।
निज कृत करम भोग सुनु भ्राता ।।
हे भाई! कोई किसी को सुख या दुःख देनेवाला नहीं है, सब अपने-अपने कर्मों का फल भोगते हैं। पिता-माता जन्म देनेवाले होते हैं; लेकिन कर्म का फल तो स्वयं भोगना पड़ता है। हमारे हाथ में पाँच अंगुलियाँ हैं, पाँचों अंगुलियों में जो अंगुली आग में जाएगी, तकलीफ उसी अंगुली को होगी। जब एक ही शरीर के अंग की बात यह है तो एक परिवार की क्या बात होगी, कौन किसका कर्मफल भोगेगा?
बहुत जमाने की बात है। दो मित्र थे। साथ-साथ व्यापार करते थे। माल खरीदकर बम्बई आढ़त में जाकर रख देते थे। जब भाव तेज होता, तो वहाँ से खबर आती और दोनों मित्र वहाँ जाकर माल बेच देते। जो लाभ होता था, दोनों बाँट लेते थे। एक बार आढ़त में माल जमाकर दोनों मित्र घर आए। कुछ दिनों के बाद वहाँ से खबर आई कि भाव तेज हो गया है, आकर अपना माल बेच लें। दोनों मित्र बम्बई गए। माल बेचने पर एक लाख रुपए का लाभ हुआ। रुपए लेकर वे लोग वहीं एक धर्मशाला में ठहर गए। अब दोनों में से एक के मन में होने लगा कि अगर मित्र को किसी तरह मार दें, तो हम लाखपति बन जाएँगे, अन्यथा जीवन भर हजारपति ही बने रहेंगे। उसने मित्र से कहा-‘देखिए, इतने रुपए लेकर हमलोग कहाँ-कहाँ भटकेंगे। आप रुपए लेकर यहीं धर्मशाला में रहिए। मैं होटल जाता हूँ, भोजन कर लूँगा और आपके लिए भोजन लेता आऊँगा।’ मित्र ने कहा-‘ठीक है, जाइए।’ वह गया, स्वयं भोजन किया और भोजन में विष मिलाकर मित्र के लिए ले आया। भोजन करते ही दूसरे मित्र का राम-नाम सत् हो गया। उसने शव को कार पर लादकर समुद्र में लुढ़का दिया और मित्र के पुत्र को टेलीग्राम कर दिया कि तुम्हारे पिता बहुत बीमार हैं, जल्दी आकर भेंट करो।
कुछ दिनों के बाद उसने घर जाने के लिए बम्बई से प्रस्थान किया। इधर टेलीग्राम पाकर उसके मित्र का पुत्र भी बम्बई की ट्रेन पकड़ने के लिए स्टेशन आया। पहला मित्र उसी ट्रेन से उतरा। उसकी मित्र के पुत्र से भेंट हुई, तो उसने दिखावटी रोना शुरू कर दिया। रोते-रोते वह कहने लगा-‘हम एक रोटी को दो टुकड़ा करके खाते थे। हमारे दिल का टुकड़ा हमसे छिना गया, हम बर्बाद हो गए।’ आगे कहने लगा-‘हमारे मित्र तो चले ही गए, तकदीर भी फूट गई। हमलोग मन में सोचे थे कि एक लाख रुपए का लाभ होगा। लेकिन जबतक वहाँ गए, भाव घट गया। मात्र दस हजार रुपए का लाभ हुआ। पाँच हजार तुम्हारे और पाँच हजार मेरे। दवाई, डॉक्टर को दिखाने में, गाड़ी भाड़ा करने आदि में जो खर्च हुआ, वह सब मेरा हुआ। मेरा मित्र ही तो था, कोई बात नहीं है। उसके लिए तुम कोई चिन्ता मत करना। ये पाँच हजार रुपये लो।’ बेचारे का बाप भी मर गया और रुपये भी मिले पाँच हजार ही। आखिर क्या करता, रोते-रोते घर आ गया। जिसने मित्र को मारकर रुपये लिए थे, वह व्यक्ति निःसन्तान था। सालभर के बाद उसको पुत्र हुआ। बुढ़ापे में बाप बना, घर में बहुत खुशियाली थी। कारोबार भी तेज हो गया। खूब कमाई होने लगी। वह समझने लगा कि वास्तव में पाप करने में ही लाभ है। इतने दिनों तक तो कुछ लाभ नहीं हुआ था, अब लाभ-ही-लाभ है। पाप नहीं करते तो बाप भी नहीं कहलाते। बंगाल में एक कहावत है- ‘जे कऽरे पाप सेई सात छेलेर बाप।
जेई कऽरे पुन्न ताँरे काये लागे घुन।।’
अचानक लड़का बीमार हुआ। बड़े-बड़े डाक्टरों को बुलाया गया। इलाज चलने लगा पर सुधार नहीं हुआ। अन्त में डॉक्टरों ने कह दिया-‘इस रोग का इलाज यहाँ नहीं हो सकेगा, इसे स्वीटजरलैंड ले जाइए।’ पैसे की कमी तो थी नहीं। ले गए स्वीटजरलैण्ड। वहाँ पर रहने, डॉक्टरों की फीस भरने, दवाई आदि में बेसुमार खर्च होने लगे। पर कब तक रोगी को आराम होगा, कोई ठिकाना नहीं। इधर जो मुनीम लोग कारोबार देखते थे, उन्होंने देखा कि मालिक कब तक आएँगे, कोई ठिकाना नहीं है। सब मनमानी करने लगे। मालिक जो खर्च माँगते, भेज देते। मुनीम लोगों ने खाते में घाटा दिखलाना शुरू कर दिया। अन्त में वहाँ के डॉक्टर ने भी कह दिया-‘अब तुम्हारे पुत्र को भगवान् ही बचा सकते हैं, इसे अपने देश ले जाओ।’ निराश होकर वह बच्चे को लेकर भारत आ गया। यहाँ फिर से इलाज शुरू हुआ। डॉक्टर आते, देखते और दवाई दे देते। इधर व्यापार में सब घाटा-ही-घाटा होने लगा। कर्ज बढ़ने लग गया। एक दिन वह व्यथित मन से बच्चे को गोद में लेकर उसकी ओर देख रहा था। एकाएक बच्चा हँसने लगा। उसके मन में हुआ कि बच्चे को आराम हो गया। पूछा-‘बेटा, तबियत ठीक है ना?’ बच्चे ने कहा-‘पहचान लो, मैं कौन हूँ। तुमने जो रुपए लिए थे, मैंने वसूल कर लिए। अब जो बचे हैं, उन्हें मेरे श्राद्ध में खर्च कर देना।’ इतना कहकर उसने शरीर छोड़ दिया। इसलिए कहा-
‘निज कृत करम भोग सुनु भ्राता।’
संत कबीर साहब ने कहा है-
खाय खुराका पहन पोसाका, जम का बकरा पलता है ।
जम बदजाती तोरे छाती, उससे क्यों नहीं डरता है ।। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा-‘कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।’ तुम्हें कर्म करने का अधिकार है, फल लेने का अधिकार नहीं। जैसा फल चाहो, वैसा मिल जाए, ऐसा नहीं होगा। तुम जैसा चाहो कर्म करोगे, तदनुकूल फल तुमको दिया जाएगा। शुभ कर्म करोगे, तो शुभ फल मिलेगा और अशुभ कर्म करोगे, तो अशुभ फल मिलेगा। आम का पेड़ बोओगे, तो आम का फल और कटहल का फल बोओगे, तो कटहल का फल तुमको दिया जाएगा। आम बो करके कटहल चाहोगे, कटहल बोकर तुम लीची चाहोगे, ऐसा नहीं होगा।
यह कर्मफल किस तरह मिलता है? जिस तरह खेत में हम एक मन बीज बो देते हैं, तो फसल पकने पर जब काटने का समय होता है, तो क्या एक ही मन अनाज काटकर लौट आते हैं? नहीं, एक मन के बदले में अनेक मन काटकर लाते हैं। एक आम की गुठली लगाते हैं और पेड़ का रूप धारण करके जब वह वृक्ष बन जाता है, तो क्या एक ही फल लगता है? कितने फल लगते हैं, ठिकाना नहीं। उसी तरह से हम एक कर्म करते हैं, तो उसका फल बढ़कर अनेक गुणा हो जाता है। भगवान बुद्ध का वचन है-
न अन्तलिक्खे न समुद्द मज्झे,
न पब्बतानं बिबरं पवस्सि।
न विञ्ञति सो जगतिप्पदेसो
यत्थट्ठितं नप्पसहेय्य मच्चू।
चाहे अंतरिक्ष में चले जाओ, चाहे समुद्र में चले जाओ, चाहे पहाड़ की गुफा में ले जाओ, लेकिन जो तुम्हारा कर्मफल है, वह तुमको भोगना ही पड़ेगा। तुम्हारा जितना जीवन शेष है, उस जीवन को तुम कर्मानुसार भोगोगे। ‘भारो ज्ञानं च रागिनः’-जो रागी है, संसार में आसक्त रहनेवाला है, कितना भी उसको ज्ञान की बात समझाइए, वह नहीं समझता। संत कबीर साहब ने कहा-
मूरख को समझावते, ज्ञान गाँठ का जाय ।
कोयला होय न उजला, सौ मन साबुन लगाय ।।
कोयला काला होता है, उसमें सौ मन साबुन घिस दीजिए; लेकिन वह काला का काला ही रहेगा, उजला होनेवाला नहीं है। उसी तरह मूढ़ व्यक्ति पर ज्ञान की बातों का असर नहीं होता।
कोयला भी हो उजरो, जरि बरि होय जो सेत ।
मूरख होय न उजरो, जो काजर की खेत ।।
कोयला तो जलकर उजला हो भी जाता है, पर मूढ़ व्यक्ति ज्ञान की बात सुनने समझनेवाला नहीं है।
बहते को मत बहन दे, कर गहि लावो ठौर ।
कहा सुना मानै नहीं, तो वचन कहो दुई और ।।
अरे! जो बह रहा है, उसे बहने मत दो, नहीं समझता है, तो फिर समझाने की कोशिश करो। तुम्हारी बातों को नहीं मानता है तो और कुछ बात समझाकर फिर मनाने की कोशिश करो।
संत कबीर साहब आगे कहते हैं कि इतना होने पर भी नहीं समझे, तो उसे बूड़ने के लिए छोड़ दो। संतों का हृदय तो कोमल होता ही है। वे फिर अपने विचार को बदलते हुए कहते हैं-छोड़ो नहीं, उसे अज्ञान से ज्ञान में लाने के लिए और धक्के लगाओ अर्थात् फिर प्रयास करो।
बहते को बह जाने दे, मत गहि लावो ठौर ।
कहा सुना माने नहीं, दे दो धक्के और ।।
संत लोग स्वयं कल्याणस्वरूप, शांतिस्वरूप होते हैं और दूसरों के लिए भी सुख-शांति चाहते हैं। उनके लिए तो ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ होता है। हमारा एक छोटा-सा परिवार है, तो हमारे परिवार के लोग दुःखी नहीं हों, सुख-ही-सुख भोगें, इसके लिए हम सचेष्ट रहते हैं। वसुधा के समस्त लोग ही जिनके कुटुम्ब हैं, वे तो सबके कल्याण की कामना करेंगे ही। संत जन सबके लिए कल्याण का मार्ग बतलाते हैं। पर जब लोग उनकी बात नहीं मानकर मनमानी करते हैं, तो उनको चिंता होती है। संत कबीर साहब कहते हैं-‘अरे भाई! तुम्हें किधर जाना चाहिए और तुम किधर जा रहे हो!
मोरे जियरा बड़ा अंदेसबा मुसाफिर जैहौं कौनी ओर।
मनुष्य-शरीर पाकर जो विषयों में मन लगाता है, भगवद्भजन नहीं करता, उसके लिए भगवान श्रीराम कहते हैं-
सो परत्र दुख पावई, सिर धुनि धुनि पछताइ ।
कालहि कर्महि ईस्वरहि, मिथ्या दोष लगाइ ।।
शरीर छूटने के बाद वह जहाँ जाएगा, वहाँ दुःख पाएगा। सिर धुन-धुनकर पछताएगा। लेकिन वहाँ पछताने से होगा क्या?
आछे दिन पाछे गये, हरि से किया न हेत ।
अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गइ खेत ।।
जिस समय खेत में फसल लगी हुई थी, उस समय उसकी देखभाल नहीं की, सुरक्षा नहीं की और जब चिड़िया फसल चुगकर चली गयी, तो सिर धुनते हैं। भजन नहीं करनेवाला काल, कर्म, ईश्वर को मिथ्या ही दोष लगाता है। प्रायः लोग कहते हैं कि क्या करें? हमारे मन में तो बहुत था कि हम दान करें, पुण्य करें, सेवा करें, परोपकार करें, शुभ कर्मों को करें, भगवद्भजन करें, पर कलिकाल कराल होने नहीं दिया। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-
काल धर्म व्यापै नहीं तेही ।
रघुपति चरन प्रीति अति जेही ।।
कभी तो काल का दोष लगाता है, कभी कहते हैं कि ‘क्या करें हमारे कर्म में लिखा हुआ नहीं था, तो होगा कहाँ से। अरे! कर्म में क्या लिखा हुआ रहेगा? जो भी अच्छा या बुरा कर्म तुम करोगे, वही कर्म तो लिखा जाता है। इतना ही नहीं लोग ईश्वर को भी दोष लगाने से बाज नहीं आते हैं। कहते हैं कि ईश्वर की कृपा के बिना तो एक पत्ता तक नहीं हिलता है, अगर ईश्वर की कृपा मुझपर हुई होती तो क्या मैं अच्छे-अच्छे कर्मों को नहीं करता? उत्तर में निवेदन है कि जिस समय हम बुरे कर्म करने के लिए चलते हैं, क्या उस समय भगवान का पत्ता हिल जाता है और जब अच्छे कर्म करना चाहते हैं, तब पत्ता स्थिर हो जाता है? यह सब झूठी बहाना है। दूसरे पर दोष लगाने से कोई लाभ नहीं। जैसा हमारा कर्म होगा, उस कर्म का फल हमको भोगना ही पड़ेगा। इसलिए हमलोगों को चाहिए कि अच्छे-अच्छे कर्मों को करें। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
लाभ कहा मानुष तन पाये ।
काय वचन में सपनेहु कबहुँक घटत न काज पराये ।।
अगर परोपकार के लिए तन नहीं लगा, मन नहीं लगा, धन नहीं लगा, वचन नहीं लगा, तो मनुष्य शरीर मिलने से क्या लाभ हुआ? कोई लाभ नहीं। हम इस शरीर की उपादेयता को जानें, भगवद्भजन करें, शुभ कर्मों को करें। जितना बन पड़े जीवन परोपकारमय हो, यही अच्छा है। (शान्ति सन्देश, दिसम्बर 2001
स्थान: कुप्पाघाट, साप्ताहिक सत्संग, दिनांक 14-10-2001 ई0)
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गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज के वचन मे आया है-
जो मारग श्रुति साधु दिखावै।
तेहि मग चलत सबे सुख पावै ।।
पावई सदा सुख हरि कृपा, संसार आसा तजि रहै ।
सपनेहुँ नहीं दुख द्वैत दरसन, बात कोटिक को कहै ।।
जिज्ञासा होती है-वह ‘मार्ग’ क्या है, जिसपर चलकर सब कोई सुख पाएँगे? ‘मार्ग’ लकीर को कहते हैं, जिसका कहीं से आरंभ होता है, कहीं जाकर अंत होता है और दोनों के बीच में कुछ दूरी होती है। मार्ग पर चला जाता है। यक्ष ने महाराज युधिष्ठिर से पूछा था-कः पंथा? अर्थात् रास्ता क्या है? महाराज युधिष्ठिर ने उत्तर दिया था-
महाजनो येन गतः स पन्थाः।
जिसपर महाजन चलते हैं, वह रास्ता है। महाजन का अर्थ है-श्रेष्ठ लोग, महापुरुष। धम्मपद में भगवान बुद्ध की वाणी है-
अभिवादनसीलिस्स निच्चं बद्धापचायिनो ।
चत्तारो धम्मा वड्ढन्ति आयु वण्णो सुखं बलं ।।
(सहस्सवग्गो)
जो वृद्धों की सेवा करता है, उनकी आज्ञा का पालन करता है, उसकी चार चीजें बढ़ती हैं-आयु, वर्ण, सुख और बल। प्रश्नोदय होता है-वृद्ध कौन? उसी धम्मपद में भगवान बुद्ध की वाणी है-
न तेन थेरो होति येनस्स पलित सिरो ।
परिपक्को वयो तस्स मोघ जिण्णो’ति वुच्चति ।।
जिनके बाल पक गये हैं, वे बूढ़े हो गये हैं? नहीं, वे कहने मात्र के बूढ़े हैं। वास्तव में बूढ़े वे होते हैं, जिनमें सम, दम, अहिंसा और सत्य होते हैं।
हमारे गुरुदेव कहते थे-वृद्ध चार प्रकार के होते हैं-जो उम्र में अधिक होते हैं, उनको वयोवृद्ध कहते हैं। दूसरे संबंध वृद्ध होते हैं; जैसे भतीजे का उम्र अधिक है और चाचा का उम्र कम है, तो संबंध में चाचा होने के कारण भतीजा चाचा को प्रणाम करता है; क्योंकि चाचा संबंध वृद्ध है। तीसरे होते हैं-पदवृद्ध। जैसे मान लीजिए, हमारी उम्र पचास साल की है और हमारे आफिसर का उम्र पैंतीस साल का है। आफिसर का उम्र कम होने पर भी हम उनको प्रणाम करते हैं; क्योंकि वे पदवृद्ध हैं। चौथे होते हैं-ज्ञानवृद्ध। उम्र तो थोड़ी है; लेकिन ज्ञान में बढ़े-चढ़े हैं। जैसे शुकदेव मुनि उम्र में कम ही थे; लेकिन वे जिस सभा में जाते थे, बड़े-बड़े मुनि लोग उठकर खड़े जो जाते थे।
‘क्पेबवअमतल वि प्दकपं’ पंडित जवाहरलाल की लिखी हुई पुस्तक है। उसमें उन्होंने लिखा है-‘जो संत होते हैं, उनके सामने बड़े-बड़े सम्राट का भी मुकुट झुकता है।’ इसलिए संत पलटूदासजी महाराज ने कहा है-
‘बड़ा होय तेहि पूजिए संतन किया विचार।’
जो बड़े हैं, उनकी पूजा करो। बड़े कौन? उन्होंने बताया-
सबसे बड़े हैं संत दूसरा नाम है।
तीजे दस अवतार तिन्हें परणाम है।
ब्रह्मा विष्णु महेश सकल संसार है।
अरे हाँ रे पलटू सबके ऊपर संत मुकुट सरदार है।
सबसे बड़े संत होते हैं। संत से बढ़कर कोई नहीं होते। इसलिए संत के बताए मार्ग पर जो चलते हैं, उनको सदा सुख मिलता है।
भारत के सम्राट महाराजा अशोक थे। उनके समय में भारत-साम्राज्य इतना बड़ा था, जितना बड़ा और किसी के समय में नहीं हो सका। उतने बड़े सम्राट होते हुए भी वे भिक्षुओं को प्रणाम करते और उनके आगे सिर झुकाते थे। उस समय बौद्ध-धर्म का बहुत प्रचार था। जब महाराजा अशोक किन्हीं भिक्षु को प्रणाम करते थे, तो उनके प्रधानमंत्री के मन में ठेस लगती थी। वे सोचते थे, महाराजा के राज्य में ये भिक्षु लोग रहते हैं और इन्हीं के दाने पर पलते हैं, फिर भी राजा इनको प्रणाम करते हैं, यह ठीक नहीं। देखते-देखते उनसे रहा नहीं गया और उन्होंने सम्राट अशोक से कहा-महाराज! आप जो भिक्षुओं को प्रणाम करते हैं, उनके आगे सिर झुकाते हैं, यह मुझे अच्छा नहीं लगता। ये आपके राज्यान्तर्गत, आपकी छत्रच्छाया में रहते हैं, आपके अन्न खाकर जीते हैं, आपके अधीन है, फिर भी आप उनको प्रणाम करते हैं, मुझे यह उचित नहीं लगता है।
महाराजा अशोक ने सोचा-अभी समझाने से ये ठीक-ठीक समझ नहीं पाएँगे। इसलिए उन्होंने कहा- ‘अच्छा, मैं सोचूँगा? महाराज अशोक ने प्रधानमंत्री को छोड़कर अन्य मंत्रियों से कहा-‘आपलोग बाजार जाएँ, वहाँ जो लोग भेड़-बकरे काटते हैं, उनसे भेड़-बकरों के सिर को मोल ले लें और उनकी एक दुकान लगा दें। खरीदने में जितने पैसे लगें और जो बिक्री हो, सबका हिसाब शाम में मुझे दें।
मंत्रियों ने बाजार जाकर जितने भेड़-बकरे कटे थे, उन सबके सिरों को मोल लेकर दुकान लगा दी और शाम में बिक्री का हिसाब-किताब महाराजा अशोक को समझा दिया। दूसरे दिन महामंत्री को बुलाकर महाराजा अशोक ने कहा-आप मजदूरों को साथ लेकर श्मशानघाट चले जाइए। वहाँ जितने नरमुंड पडे़ हों, सबको एकत्रित करके उसकी दुकान लगा दीजिए। इस काम में जितने पैसे मजदूरी में लगे, उतना ही मूल्य रखिए। फिर उसका हिसाब शाम में मुझे दीजिए।
प्रधानमंत्री मजदूरों को लेकर श्मशानघाट गये। वहाँ उन्होंने नरमुंडों को एकत्रित करवाकर बाजार में उसकी दुकान लगा दी। दिनभर बैठे रह गये; लेकिन एक भी नरमुंड की बिक्री नहीं हुई। शाम में आकर सम्राट से उन्होंने कहा-‘महाराज! एक भी नरमुंड नहीं बिका। महाराजा अशोक ने कहा-‘आप दाम अधिक रखे होंगे।’ महामात्य ने उत्तर दिया-जी नहीं, जितना खर्च हुआ था, मात्र उतना ही दाम रखा था। महाराजा ने कहा-अच्छा, कोई बात नहीं। कल वहाँ पर एक बोर्ड लगा दें। उसमें लिख दें कि बिना मूल्य के नरमुंड दिये जाते है, जो कोई जितना ले जाना चाहें, ले जाएँ। महाराजा के कथनानुसार महामंत्री ने वैसा ही किया। किन्तु वे दूसरे दिन भी बैठे रह गये, मुफ्रत में भी कोई एक भी नरमुंड नहीं ले गया। शाम को फिर महामंत्री ने महाराजा अशोक से कहा-बिना पैसे के भी नरमुंड लेने के लिए कोई तैयार नहीं। आज भी किसी ने नरमुंड नहीं लिया।
सम्राट अशोक ने कहा-महामात्य! जरा सोचिए, जिस नरमुंड को कोई पूछता नहीं है, वह सिर अगर भिक्षु के चरणों में झुकता है, तो आपको तकलीफ किस बात की होती है? महाराजा का उत्तर सुनकर महामात्य लज्जित हो, नतमस्तक हो गये। हमें संतों के बताए मार्ग पर चलना चाहिए। वह कौन-सा मार्ग है, उसके विषय में गोस्वामीजी कहते हैं-
संत संग अपवर्ग कर, कामी भवकर पंथ ।
कहहिं संत कवि कोविद, श्रुति पुरान सद्ग्रंथ ।।
-रामचरितमानस, उत्तरकांड
संतों का रास्ता मोक्ष का है, अपवर्ग का है। अपवर्ग यानी अ+पवर्ग=अपवर्ग। पवर्ग में प, फ, ब, भ, म-पाँच अक्षर होते हैं। जहाँ ये पवर्ग नहीं हों, वहाँ अपवर्ग है। प=जहाँ पाप-पुण्य नहीं है, फ=जहाँ फलाशा नहीं है, ब=जहाँ बंधन नहीं है, भ=जहाँ भव- भय नहीं है, म=जहाँ मृत्यु नहीं है; उस स्थान को अपवर्ग कहते हैं। वह रास्ता कहीं बाहर संसार में नहीं है, अपने अंदर है और उस रास्ते का पता संत लोग बतलाते हैं। वह मार्ग आंतरिक होने के कारण स्थूल नहीं है, सूक्ष्म है। कैसा सूक्ष्म है? इस संदर्भ में संत कबीर साहब कहते हैं-
भक्ती का मारग झीना रे ।।टेक।।
नहिं अचाह नहिं चाहना, चरनन लौ लीना रे ।।
साधुन के सतसंग में, रहे निसिदिन भीना रे ।।
सब्द में सुर्त ऐसे बसे, जैसे जल मीना रे ।।
मान मनी को यों तजे, जस तेली पीना रे ।।
दया छिमा संतोष गहि, रहे अति आधीना रे ।।
परमारथ में देत सिर, कछु बिलँब न कीना रे ।।
कहै कबीर मत भक्ति का, परगट कह दीना रे ।।
भक्ति का मार्ग झीना (सूक्ष्म) है, महीन है। यमराज ने नचिकेता को बतलाया था-
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया, दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति।
(कठोपनिषद्, अ0 1, व0 3)
जिस प्रकार क्षुरे की धार तीक्ष्ण और दुस्तर होती है, तत्त्वज्ञानी लोग उस मार्ग को वैसा ही दुर्गम बतलाते हैं। इससे मिलती-जुलती बात गुरु नानकदेवजी महाराज बतलाते हैं-
भगता की चाल निराली ।
चाल निराली भगताह केरी विखम मारगि चलणा ।।
लबु लोभु अहंकारु तजि त्रिसना बहुतु नाहीं बोलणा ।।
खंनिअहु तीखी बालहु नीकी एतु मारगि जाणा ।।
यह मार्ग ‘खंनिअहु तीखी’ और ‘बालहु नीकी’ है। अर्थात् तलवार की धार से तीक्ष्ण ओर बाल की नोक से भी महीन है। ‘एतु मारगि जाणा’।
गुर परसादी जिनि आपु तजिआ हरि वासना समाणी ।।
कहै नानक चाल भगताह केरी जुगहु जुग निराली ।।
परम संत बाबा देवी साहब के एक शिष्य थे महात्मा धीरजलालजी, उसकी वाणी है-
राह गई है बड़ि झीनी हे साधो नैन नगर से ।।
नैन नगर में घोर अँधियारी सतगुरु ज्ञान सफीनी ।।
सहस भाग एक बाल बराबर धार धरहु लवलीनी ।।
वा मग सुरत सरकि जब जावै जोति झकाझक कीनी ।।
सत पथ गत यह कहत सन्तमत चढ़ि चल चाल प्रवीनी ।।
बाबा देवी साहब भेद बतावें धीरज ध्यान महीनी ।।
रास्ता का आरंभ कहाँ से है और अंत कहाँ पर होता है? जो कोई जहाँ बैठे रहते हैं, रास्ता का आरंभ वहाँ से होता है। वे वहाँ से चलते हैं और अपने निर्दिष्ट स्थान पर पहुँचते हैं। उसी तरह परमात्म-प्राप्ति के लिए यह जीव कहाँ से चलेगा? जीव इस शरीर के बाहर नहीं है, शरीर के अंदर ही है। जिज्ञासा होगी, शरीर में है तो कहाँ पर हैं? ब्रह्मोपनिषद् में इसका समाधान बतलाया है-
नेत्रस्थं जागरितं विद्यात्कण्ठे स्वप्नं समाविशेत् ।
सुषुप्तं हृदयस्थं तु तुरीयं मुर्ध्नि संस्थितम् ।।
शरीर के अंदर जीव सदा एक ही स्थान में नहीं रहता है। जाग्रतावस्था में वह आँख में रहता है, स्वप्नावस्था में कंठ में चला जाता है। सुषुप्ति (गहरी नींद) में वह हृदय में और तुरीयावस्था में मस्तक में होता है। इसी विषय को संत चरणदासजी महाराज ने इस भाँति कहा है-
जाग्रत वासा नैन में, स्वप्न कंठ स्थान ।
जान सुषुप्ति हृदय में, नाभि तुरीय मन तान ।।
इस शरीर में हम कहाँ हैं, इसकी जानकारी के लिए हमें आँखें बंद कर देखना चाहिए। बाहर की चीजों को हम आँखें खोलकर देखते हैं और भीतर की चीजों को देखने के लिए आँखें बंद कर भीतर देखें। जैसे हम आँखें बंद करते हैं, वैसे ही अंधकार मालूम पड़ता है। इसी अंधकार में हम हैं। इसी अंध- कार से चलना है। कैसे चलना है? कबीर साहब के वचन में आया है-
बिन पावन की राह है, बिन बस्ती का देश ।
बिना पिंड का पुरुष है, कहै कबीर संदेश ।।
जहाँ न चींटी चढ़ि सकै, राई ना ठहराय ।
मनुवाँ तहँ ले राखिए, तहहिं पहुँचे जाय ।।
उस मार्ग पर बिना पैर के चलना है। कैसे चलेंगे? किसी चीज का जब पूर्ण सिमटाव होता है, तो उसकी ऊर्ध्वगति होती है; चाहे वह चीज कठिन हो, तरल हो, वाष्पीय हो या विद्युत् हो। जो जितना सूक्ष्म होता है, उसके सिमटाव से उसकी उतनी ही अधिक ऊर्ध्वगति होती है।
एक मन अनाज सूखने के लिए फैलाया हुआ है। उसका विस्तार बहुत है, लेकिन उसको जितना हम अधिक समेटेंगे, ढेर उतना ऊँचा हो जाएगा। हम अनाज को ऊपर नहीं उठा रहे हैं, केवल समेट रहे हैं। समेटने से स्वाभाविक वह ऊपर हो जाएगा। एक किलो बर्फ का ढेला है, उसकी ऊँचाई जितनी अधिक होगी, एक किलो पानी का सिमटाव करने से उससे अधिक होगी। अर्थात् जितना पतला नल रहेगा, पानी उतना ही अधिक ऊपर दूर तक जाएगा। उसी एक किलो पानी को यदि हम वाष्प में परिवर्तित कर लेते हैं, तो जितनी दूर तक पानी गया था, उससे अधिक दूर तक वाष्प जाएगा, बर्फ से जल तरल होने के कारण की उसकी अधिक ऊर्ध्वगति हुई। जल से वाष्प की सूक्ष्मता अधिक होने के कारण उससे वाष्प की और अधिक ऊर्ध्वगति हुई। उसको यदि हम विद्युत् में परिवर्तित कर सकें, तो वैज्ञानिकों का कहना है-विद्युत् की गति एक सेकेंड में 186767 मील है। विद्युत् के स्पर्श से शरीर में झटका लगता है, कितने मर भी जाते हैं। लेकिन विद्युत् की अपेक्षा मन कितना सूक्ष्म है, इसपर विचार कीजिए।
यहाँ जितने लोग बैठे हैं, सबका मन कहाँ-कहाँ से घूमकर चला आता है, किसी को पता नहीं चलता। किसी के शरीर में स्पर्श का ज्ञान भी नहीं होता। इतना सूक्ष्म मन का अगर हम सिमटाव करेंगे, तो उसकी गति कितने हो जाएगी, यह सरलतापूर्वक समझा जा सकता है।
हमारी जो पाँच कर्मेन्द्रियाँ और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं, इन दसो इन्द्रियों का राजा मन है। वराहोपनिषद् में आया है-‘इन्द्रियाणां मनो नाथो।’ अर्थात् इन्द्रियों का नाथ मन है। मन जो कहता है, इन्द्रियाँ वही करती हैं। जैसे हमारे आगे भोजन की थाली परोसी हुई है। उसमें विविध भाँति की मिठाइयाँ, सब्जियाँ और भोज्य पदार्थ हैं; लेकिन उन चीजों में हम किस चीज को पहले खाएँगे? मन जो कहेगा, हाथ उसी पर जाएगा। मन कहेगा कि पहले पेड़ा उठाओ, तो पेड़ा पर हाथ जाएगा। हाथ पेड़ा उठा लिया है, अब मुँह में देना चाहते हैं, तो मन कहता है-नहीं, पहले रसगुल्ला खाओ। हाथ में जो पेड़ा लिया था, उसको रखकर रसगुल्ला उठा लेंगे। मन हमारा विषयों में फैला हुआ है। विषय पाँच हैं-रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द; इन पंच विषयों में हमारा मन फँसा हुआ है। इसलिए संत कबीर साहब ने कह दिया-
मन पाँचों के वश पड़ा, मन के वश नहिं पाँच ।
अपने अपने स्वाद में, सभी नचावै नाच ।।
संसार के पंच विषयों में हमारा मन पसरा हुआ है। इसका सिमटाव कैसे होगा? शास्त्रें में, सद्ग्रंथों में, संतों की वाणियों में इस संसार को नाम-रूपात्मक कहा गया है। वैसे तो पाँच विषय हैं; लेकिन नाम और रूप-ये दो प्रधान हैं। नाम कहते हैं शब्द को। दिन-रात में हमलोग कितने शब्दों का उच्चारण करते हैं, किसी को याद नहीं होगा। कितने रूपों को हम इन आँखों से देखते हैं, उसकी गणना नहीं है। नाम-रूप में जो फैलाव है, उसी से मन को समेटना है। इसलिए संतों ने बतलाया-सभी नामों, सभी शब्दों को छोड़कर ईश्वरवाचक कोई एक शब्द लो। उसी की मंत्रवृत्ति करो, वही है मानस जप।
मंत्र कहते हैं, जिससे मन का त्रण हो। विषयों में मन भाग रहा है, उसको समेटकर एक सूते में बाँध दीजिए। वही सूता है मानस जप। जिस नाम का हम जप करते हैं, उससे संबंधित रूप भी हमारे सामने आता है। जैसे हमारे दो पुत्र और दो पुत्रियाँ हैं। जिस समय हम जिस पुत्र का नाम लेकर पुकारेंगे, उसी पुत्र का रूप मन में आएगा, अन्य पुत्र या पुत्री का रूप मन में नहीं आएगा। या जिस समय हम जिस पुत्री को पुकारेंगे, तो उस समय उसी पुत्री का रूप आएगा, अन्य पुत्र या पुत्री का रूप मन में नहीं आएगा। उसी तरह जिस इष्ट का नाम लेकर हम जप करेंगे, उस इष्ट का रूप हमारे सामने आना चाहिए। यही है मानस ध्यान।
जैसे कोई सुन्दर भव्य-भवन बनाना चाहता है, वह उसकी नींव मजबूत बनाता है। तब भव्य-भवन ठोस बनता है। उसी तरह मानस जप और मानस ध्यान नींव है। अगर यह मजबूत हो जाए यानी ठीक-ठीक मानस जप और ठीक-ठीक मानस ध्यान हो जाए, तो दृष्टिसाधन की सूक्ष्म उपासना सरल हो जाएगी।
जैसे पहले हमलोग मोटे-मोटे अक्षरों को लिखते हैं, फिर महीन अक्षर लिखते हैं। माँ-बहन जब चौके में पहले दिन रोटी बनाने जाती हैं, तो उस दिन की रोटी मोटी होती है, जल भी जाती है और कच्ची भी रह जाती है। लेकिन वही जब बराबर अभ्यास करती है, तो कुछ ही दिनों में पतली और सुन्दर रोटी बनाने लगती है।
आरंभ में मोटे-मोटे काम करते हैं, फिर महीन-महीन काम करते हैं। सूता काटने के लिए जाते हैं, तो चरखा पर पहले मोटा-मोटा सूता काटते हैं। काटते-काटते जब आदत पड़ जाती है, तब महीन सूत काटने लग जाते हैं। उसी तरह साधना का आरंभ स्थूल सगुण साकार उपासना से अर्थात् नाम-जप से होता है।
पहले मानस जप के द्वारा मन का कुछ सिमटाव होता है। उसके बाद मानस ध्यान के द्वारा उससे कुछ अधिक सिमटाव होता है। तब सूक्ष्मता में प्रवेश करने की क्षमता आती है। जबतक मानस जप, मानस ध्यान ठीक-ठीक नहीं होगा, सूक्ष्मता में प्रवेश नहीं कर सकते हैं। जैसे विद्यालयों में पहले सामान्य जोड़, घटाव, गुणा, भाग सिखाया जाता है, उसके बाद मिश्र जोड़, घटाव, गुणा, भाग सिखाया जाता है। पश्चात् भिन्न का जोड़, घटाव, गुणा, भाग सिखाते हैं। तत्पश्चात् दशमलव सीखने पर अलजबरा सिखाया जाता है। जोड़, घटाव, गुणा, भाग आदि कुछ सीखे बिना यदि कोई अलजबरा बनाने के लिए बैठ जाए, तो उसको कोई क्या सिखा सकता है और वह क्या सीखेगा? इसलिए महर्षि मेँहीँ-पदावली में आया है-
गुरु जाप मानस ध्यान मानस, कीजिए दृढ़ साधकर ।
इनका प्रथम अभ्यास कर, श्रुत शुद्ध करना चाहिए ।।
मानस जप, मानस ध्यान से मन की एकाग्रता होती है। भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है-‘यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि।’ यज्ञों में जपयज्ञ में हूँ। पहले तो जपयज्ञ कर लो, यह सब यज्ञों का राजा है।
‘गुरु जाप जपन साँचो तप’-यह बहुत बड़ी तपस्या है, जप और तप एक साथ हो जाएगा। इससे आगे की बात हमारे गुरुदेव इस भाँति कहते हैं-
खोजो पंथी पंथ, तेरे घट भीतरे ।
तू अरु तेरो पीव, भी घट ही अन्तरे ।। 1 ।।
पिउ व्यापक सर्वत्र, परख आवै नहीं ।
गुरुमुख घट ही माहि, परख पावै सही ।। 2 ।।
तू यात्री पीव घर को, चलन जो चाहहू ।
तो घट ही में पंथ निहारु, विलम्ब न लावहू ।। 3 ।।
तम प्रकाश अरु शब्द, निशब्द की कोठरी ।
चारो कोठरिया अहइ, अन्दर घट कोट री ।। 4 ।।
तू उतरि पर्यो तम माहि, पीव निःशब्द में ।
यहि तें परि गयो दूर, चलो निःशब्द में ।। 5 ।।
कहाँ से चलो?
नयन कमल तम माँझ से पंथहि धारिये ।
यहाँ से रास्ता पकड़िए-
सुनि धुनि जोति निहारि के पंथ सिधारिए ।
‘नयन कमल तम माँझ से पंथहि धारिये’ यह कैसे होगा? इसके उत्तर में कहा गया है-
युग दृष्टि की एक तीक्ष्ण नोक से चीरि तेजस विंदु रे ।
सुनो अंदर नाद ही लखो चन्द्र सूर्य तारे इन्दु रे ।।
दृष्टि की दोनों धारों को मिलाकर एक करें, विन्दु उदय होगा।
दोऊ नैना बिच सन्मुख देख,
एक बिन्दु मिलै दृष्टि दोउ रेख ।।
दो रेखाओं का मिलन एक विन्दु पर होता है। हमारी दृष्टि की दोनों धाराएँ जहाँ जाकर मिलेंगी, वहाँ पर विन्दु उत्पन्न होगा। कागज पर कलम रखने से वहाँ छोटे-से-छोटा चिह्न बनता है, जिसको विन्दु कहते हैं। उसी प्रकार हमारी दृष्टि की धार अपने अंदर में जहाँ इकट्ठा होगी, वहाँ पर चिह्न होगा, वही असली विन्दु होगा। कागज पर तो नकली विन्दु बनता है।
असली विन्दु की परिभाषा है-जिसका स्थान है, परिणाम नहीं। हम संसार में कहीं भी विन्दु बना लें, उसका कुछ-न-कुछ परिमाण हो ही जाएगा। इसलिए हमलोग विद्यालय में जाकर पढ़ते हैं-कल्पना किया कि अ, ब, स एक त्रिभुज है। कहते हैं कल्पना किया, यथार्थ नहीं कहते हैं। विन्दु से रेखा और रेखा से त्रिभुज बनता है। कलम से विन्दु बनाते हैं, तो जैसी स्याही रहती है, वैसा ही विन्दु बनता है। लाल स्याही है, तो लाल विन्दु और हरी स्याही है, तो हरा विन्दु। उसी तरह हमारी दृष्टि की दोनों धाराएँ जहाँ जाकर मिलेंगी, वह प्रकाशमयी होने के कारण जो विन्दु होगा, वह प्रकाशमय विन्दु होगा। तेजोविन्दूपनिषद् में लिखा है-
तेजो विन्दुः परम ध्यानं विश्वात्म हृदि संस्थितम्।
उस तेजोविन्दु का ध्यान परम ध्यान है, श्रेष्ठ ध्यान है। भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है-‘पहले हमारे संपूर्ण रूप का ध्यान करो। फिर हमारे मुस्कानयुक्त मुख का ध्यान करो और फिर शून्य का ध्यान करो। इसी शून्य ध्यान के लिए संत कबीर साहब ने कहा है-
शून्य ध्यान सबके मन माना। तुम बैठो आतम अस्थाना।।
इस शून्य ध्यान से मन वश में होता है और नादानुसंधान से आत्मज्ञान होता है। हमारे गुरुदेव कहते हैं, तुम्हारे अंदर त्रय कपाट हैं।
घटतम प्रकाश व शब्द पटत्रय, जीव पर हैं छा रहे ।
कर दृष्टि अरु ध्वनियोग साधन, ये हटाना चाहिये ।।
जो कोई दृष्टियोग की क्रिया करेंगे, अंधकार मंडल को पार करके प्रकाश मंडल में जाएँगे।
‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ होगा।
प्रकाशमंडल में फिर शब्द मिलेगा और वह शब्द एक ही नहीं है, अनहद शब्द है। अनहद शब्द अपार दूर सों दूर है। पहले अनहद शब्द मिलेगा। अनहद-जिसकी हद नहीं, सीमा नहीं। बहुत प्रकार के शब्द वहाँ होते हैं। उन अनहद शब्द में किस शब्द को पकड़कर हम आगे बढ़ेंगे? इस संदर्भ में संत सद्गुरु बतलाते हैं-
बजती हैं पाँच नौबतें, सुनि एक एक को ।
प्रति एक पै चढ़ि जाय के, निज नाह खोजना ।।
पहले स्थूल के केन्द्र पर पहुँचेंगे। सूक्ष्म के केन्द्र से जो शब्द आता है, पहले उसको पकड़ेंगे। उसको पकड़कर सूक्ष्म के केन्द्र पर जाएँगे। सूक्ष्म के केन्द्र पर जो कारण के केन्द्र से शब्द आता है, उसको पकड़कर कारण के केन्द्र पर जाएँगे। कारण के केन्द्र से महाकारण के केन्द्रीय शब्द को पकड़कर महाकारण के केन्द्र पर जाएँगे। महाकारण के केन्द्रीय शब्द को पकड़कर कैवल्य के केन्द्र पर जाएँगे। वहाँ कैवल्य के केन्द्र पर जो शब्द आता है, वह परम प्रभु परमात्मा से आता है। कैवल्य अर्थात् केवल एक शब्द वहाँ है। उसी को सारशब्द, प्रणव, ओ3म्, स्फोट, उद्गीथ आदि अनेक नामों से अभिहित करते हैं। उस शब्द को पकड़कर परमात्मा के पास पहुँच जाएँगे। इस तरह अंधकार से प्रकाश में, प्रकाश से शब्द में, फिर शब्द से ‘निःशब्दं परमं पदम्’ में चले जाएँगे। यही रास्ता अपने अंदर का है। इस रास्ते पर जो कोई चलेंगे, उनके लिए गोस्वामीजी ने लिखा है-
सपनेहुँ नहीं दुख द्वैत दर्शन बात कोटिक को कहै।
वह परम प्रभु परमात्मा एक ही एक है। उससे मिल जाएँगे, एकमेक हो जाएँगे। जिस तरह नदी का जल समुद्र में जाकर, मिलकर एक हो जाता है, उसी तरह यह जीव पीव से जा मिलकर एक हो जाएगा। जो नदी का जल समुद्र में जाकर मिल गया, तो उसको निकाला नहीं जा सकता, उसी तरह जो जीव परमात्मा से जाकर मिल जाता है, फिर वह इस संसार में नहीं आता।
यही सूक्ष्म रास्ता है, सरल, सुखद रास्ता है। भगवान श्रीराम ने अपनी प्रजा, पुरजन एवं गुरुजन से कहा था-‘सुलभ सुखद मारग यह भाई। भगति मोरि पुरान श्रुति गाई।।’ वेद पुराण, बाइबिल, कुरान और संतवाणियों में यही बात है, जो इस रास्ते से चलेंगे, उसका यह लोक और परलोक दोनों कल्याणमय होगा।
[(शान्ति-सन्देश, मार्च, 2002) स्थान: जमशेदपुर सिंहभूम; प्रातःकाल; दिनांक: 10-1-2002 ई0,ह्
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जीवन में पवित्रता को अनिवार्य आवश्यकता है। पवित्र जीवन ही वास्तविक जीवन है, अपवित्र जीवन किस काम का? रात्रि विश्राम के बाद प्रभात काल में जब हमारी नींद टूटती है, तभी से पवित्रता शुरू हो जाती है। अर्थात् सोकर उठते ही हम आँख धोते हैं, कुल्ली करते हैं, शौच जाते हैं, हाथ-पैर धोते हैं, दतवन करते हैं, घर-दरवाजे की सफाई करते-कराते हैं, स्नान करते हैं, कपड़े धोते हैं, ये सब सफाई-ही- सफाई है।
कितने लोग कपड़े तो साफ और धुले हुए पहनते हैं; लेकिन जब शौच करके उठते हैं, तो हाथ साफ किये बिना ही अपने सारे कपड़े छूते हैं। यह कैसी पवित्रता है? देहातों में जहाँ शौचालय नहीं है, लोग लोटे में जल लेकर जंगल, बगीचे की ओर जाते हैं। शौच करके लौटते हैं, तो रास्ते में किसी पेड़ की टहनी तोड़ लेते हैं। बायें हाथ में लोटा लिये, दायें हाथ से दतवन करते हुए घर आ जाते हैं, तब हाथ साफ करते हैं। यह पवित्रता नहीं है।
अधिकांश लोग शौच करके तो पानी लेते हैं, पर पेशाब करके पानी नहीं लेते, उनका पेशाब उनके हाथों और कपड़ों में लगा रहता है। उसी शरीर से देवालयों और साधु-आश्रमों में जाते हैं। साधु-महात्मा तो पवित्र होते हैं। आगन्तुक जन अपने अपवित्र हाथ से साधु-संतों का चरण-स्पर्श करना चाहते हैं। वे कहते हैं कि दूर से प्रणाम करो, तो उनके मन में तकलीफ होती है। वे सोचते हैं कि ये कैसे साधु हैं, जो कि पैर छूने नहीं देते हैं। अरे भाई! पवित्र रहिएगा, तब न पवित्र व्यक्ति का चरण छूइएगा। जिस तरह शौच करके पानी लेते हैं, उसी तरह पेशाब करके भी पानी लें, तो अच्छा है। वैदिक धर्म में उच्चवर्ण के लोग पहले पानी लेकर लघुशंका जाते थे, पर अब तो कितने नहीं भी लेते हैं। इस संबंध में मुसलमान भाइयों के यहाँँ अच्छी प्रथा है। बच्चे, बड़े-सभी पानी लेकर लघुशंका जाते हैं। कहीं पानी न मिले, तो मिट्टी से काम लेते हैं।
हमलोग नदी-तालाब या नल-कूपादि के जल से स्नान करते हैं, साबुन लगाते हैं; इससे तन की सफाई होती है। यह बाहरी पवित्रता है। तन की सफाई के साथ-साथ मन की सफाई भी होनी चाहिए। और वह होती है सत्संग से। फिर जब हम ध्यान करते हैं, तो उससे आत्मा की सफाई होती है। आत्मा आवरण रहित हो जाता है। संत कबीर साहब की वाणी आपलोगों ने सुनी-
सुकिरत करि ले नाम सुमिरि ले को जानै कल की ,
जगत में खबर नहीं पल की ।
सुकृति का अपभ्रंश ‘सुकिरत’ शब्द हुआ है। सु=अच्छा और कृति कहते हैं कर्म को। सुकृति का अर्थ होता है-उत्तम कर्म। कीर्ति कहते हैं यश का। संत कबीर साहब कहते हैं-शुभ कर्मों को करो। शुभ कर्म करने से सुकीर्ति होती है, सुयश फैलता है और अशुभ कर्म करने से अपकीर्ति होती है, अपयश फैलता है। भगवान बुद्ध की वाणी है-सत्कर्म करनेवाले को पाँच चीजें मिलती हैं-1- संसार में उनका सुयश फैलता है, 2- उनके धन का अपव्यय नहीं होता, 3- सभा में उनके वचन का प्रभाव पड़ता है, 4- उनकी मृत्यु सुखकर होती है तथा 5- मृत्यूपरांत का जीवन सुखकर होता है। दुष्कर्म करनेवाले को भी पाँच चीजें मिलती हैं-1- संसार में उनका अपयश फैलता है, 2- उनके धन का अपव्यय होता है, 3- सभा में उनके वचन का प्रभाव नहीं पड़ता है, 4- उनकी मृत्यु दुःखकर होती है तथा 5- मृत्यूपरांत का जीवन दुःखकर होता है।
अब हमलोग इसपर विचार करें कि अशुभ कर्म क्या है और शुभ कर्म क्या है? झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचारी; ये पंच पाप अशुभ कर्म हैं, इन्हें करने से अपयश फैलता है। पंच पापों में झूठ सबसे बढ़कर है। हमारे गुरुदेव (महर्षि मेँहीँ परमहंस) कहा करते थे कि झूठ एक ऐसा झोला है, जिसमें सभी पाप अँट जाते हैं। कोई कितना भी पाप कर ले, चोरी करे, नशा-सेवन करे, हिंसा और व्यभिचार करे; पूछने पर कह दे कि नहीं किया, तो सब पाप झूठ के झोले में अँट गया। जिस तरह हाथी के पदचिह्नों में सभी जीव-जन्तु के पदचिह्न अँट जाते हैं, उसी तरह झूठ के झोले में सभी पाप समा जाते हैं। इसीलिए कहा गया है-
साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप ।
जाके हिरदय साँच है, ता हिरदय गुरु आप ।।
पाप में रत रहनेवाला व्यक्ति भक्ति और ध्यान क्या करेगा? लोगों को दिखलाने के लिए घंटों बैठकर ध्यान का ढोंग वह अवश्य कर सकता है, पर उससे ध्यान होनेवाला नहीं है। संत कबीर साहब ने कहा है-
बाहर क्या दिखलाइए, अन्तरी जपिए नाम ।
कहा महोला जगत से, पड़ा धनी से काम ।।
बंगाल के संत रामप्रसाद सेन के वचन में है-
जाँक जम के कऽर ले पूजा, अहंकार होय मऽने मऽने ।
तुमी लुकिये ताँरे करबे पूजा, जानिबे ना रे जगज्जने ।।
वस्तुतः हमारा हृदय पवित्र होना चाहिए। जो व्यक्ति एक ईश्वर पर विश्वास करते हैं, ईश्वर की प्राप्ति अपने अंदर होगी, इसका दृढ़ निश्चय रखते हैं, सत्संग करते हैं, ध्यान करते हैं, गुरु-सेवा करते हैं, शुभ कर्म करते हैं; अतः उनकी सुकीर्ति होती है, उनका सुयश फैलता है।
गोस्वामी तुलसीदासजी की वाणी है-जो व्यक्ति पंचविषयों में बरतता है, भगवद्भजन नहीं करता है, वह कूकर-सूकर की भाँति है। जन्मान्तर में उसे कूकर- सूकर की योनि में जन्म लेकर दुःख उठाना पड़ेगा। आज जिस घृणित वस्तुओं को देखकर नाक-भौं सिकोड़ते हैं, उन्हीं चीजों को श्वान-शृगाल की योनियों में जाने पर खाना पड़ेगा। उत्तरगीता में लिखा है-
आहारनिद्राभयमैथुनञ्च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।
ज्ञानं नराणामधिकं विशेषो ज्ञानेनहीनाः पशुभिः समानाः ।।
आहार, निद्रा, भय तथा मैथुन; इन चार बातों के आधार पर पशु और मनुष्य में कोई पृथक्ता नहीं है। मनुष्य में ज्ञान की विशेषता है। ज्ञान के बिना मनुष्य पशु के समान है। जिज्ञासा हो सकती है-कौन-सा ज्ञान? बृहत्तंत्रसार में लिखा है-
ज्ञानान्मोक्षमवाप्नोति तस्माज्ज्ञानं परात्परम् ।
अर्थात् ज्ञान से मोक्ष होता है, इसलिए ज्ञान से बढ़कर दूसरा उपदेश नहीं। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
धर्म ते बिरति योग ते ज्ञाना ।
ज्ञान मोक्षपद बेद बखाना ।।
ज्ञान वह है, जो मोक्ष प्राप्त करा दे। ‘सा विद्या या विमुक्तये’। वह विद्या है, जिससे मुक्ति मिलती है। मोक्षप्रद ज्ञान या विद्या को पवित्र और निर्विषयी व्यक्ति ही प्राप्त कर सकता है। कठोपनिषद् में आया है-
नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः ।
नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात् ।।
जो पापकर्मों से निवृत्त नहीं हुआ है, जिसकी इन्द्रियाँ शान्त नहीं हैं और जिसका चित्त असमाहित या अशान्त है, वह इसे आत्मज्ञान-द्वारा प्राप्त नहीं कर सकता है।
बाहरी और भीतरी दोनों पवित्रता चाहिए। प्रयाग की त्रिवेणी में स्नान करने की मनाही नहीं है, वहाँ जाकर स्नान कर सकते हैं। उस त्रिवेणी में स्नान करने से तन पवित्र होगा। सत्संग-रूपी त्रिवेणी में स्नान करने से मन पवित्र होगा और अंतर की त्रिवेणी (इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना संगम) में स्नान करने से चेतन आत्मा पवित्र होगी। निर्मल जल में तन की परिछाईं दीखती है और निर्मल मन में प्रभु का प्रतिबिम्ब दीखता है। संत कबीर साहब ने कहा है-
जब दरसन देखा चाहिए, तब दरपन माँजत रहिए ।
जब दरपन लागी काई, तब दरस कहाँ ते पाई ।।
हम आईने में चेहरा देखना चाहें, तो उसे साफ रखना होगा। जब दर्पण गंदा हो, तो चेहरा कैसे दीखेगा? इसी प्रकार यदि हमारा अंतःकरण पवित्र न हो, तो प्रभु की परिछाईं भी नहीं देख सकते, प्रभु को देखना तो सुदूर की बात है। गुरु नानकदेवजी महाराज फरमाते हैं-
सूचै भाड़ै साचु समावै बिरले सूचाचारी ।
तंतै कउ परम तंतु मिलाइआ नानक सरणि तुमारी ।।
पवित्र बर्तन में सत्य अँटता है और आचरण को पवित्र कर सत्य को धारण करनेवाले विरले होते हैं। हमलोग गंगा-स्नान करने के लिए जाते हैं, तो उधर से गंगाजल ले आते हैं। पर क्या गंदे बरतन में गंगाजल भर लेते हैं? नहीं। पहले बरतन को माँजकर खूब साफ करते हैं, तब उस पवित्र बर्तन में गंगाजल भरते हैं। वह परम प्रभु परमात्मा परम पवित्र है, उसे हम अपने अपवित्र हृदय में कैसे बिठाएँगे। संत तुलसी साहब ने कहा है-
दिल का हुजरा साफ कर, जाना के आने के लिए ।
ध्यान गैरों का उठा, उसको बिठाने के लिए ।।
हम जूता पहनकर चलते हैं। कभी उसमें कंकड़ आ जाता है, तो वह चुभने लगता है, हम चल नहीं पाते हैं। जूता खोलकर कंकड़ निकाल देते हैं, तब हम आगे चलते हैं। हमारा जो चमड़े का पैर है, वह छोटा कंकड़ नहीं सह सकता है। परमात्मा का चरण, कमल से भी अधिक कोमल है और हमारे हृदय में काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य, राग-द्वेष आदि दुर्गुणों के काँटे उगे हुए हैं, वे उसपर कैसे रखेंगे!
जबतक इन्हें हटाएँगे नहीं, मानस जप और मानस ध्यान भी ठीक-ठीक नहीं हो सकता, दृष्टियोग और शब्दयोग तो दूर की चीज है। जब गंगा हो या उसमें हलचल हो, तो परछाईं नहीं देख सकते हैं। शांत और साफ जल में परछाईं दखते हैं। उसी तरह शांत और साफ हृदय में ही हम अपने इष्टरूप के दर्शन कर सकते हैं।
हम स्वयं अपनी परीक्षा करके देखें कि कितने दिनों से सत्संग और ध्यान करते आ रहे हैं, अबतक हमने क्या पाया? यदि कुछ पाया है, तो बहुत अच्छी बात है और अगर नहीं पाया, तो कारण क्या है? कारण को जानकर उसका निराकरण करें। पवित्रता का आचरण सबको करना चाहिए। इसमें साधु और गृहस्थ की कोई बात नहीं है। सिर्फ साधु का वेश बना लेने से कोई पवित्र नहीं हो जाता। श्रीकाष्ठ जिह्वा स्वामी ने बड़ा अच्छा कहा है-
कोई सफा न देखा दिल का,
साँचा बना झिलमिल का ।।
कोइ बिल्ली कोइ बगुला देखा,
पहिरे फकीरी खिलका ।
बाहर मुख से ज्ञान छाँटते,
भीतर कोरा छिलका ।।
भजन करन में गजब आलसी,
जैसे थका मँजिल का ।
औरन के पीसन में सुरमा,
जैसें बट्टा सिल का ।।
पढ़े लिखे कुछ ऐसेहि वैसे,
बड़ा घमण्ड अकिल का ।
जहरी वचन यों मुख से निकले,
साँप निकलता बिल का ।।
भजन बिना सब जप तप झूठा,
झूठ तवक्का फजल का ।
क्या कहिये गुरु ‘देव’ न पाया,
महरम आँख के तिल का ।।
‘मरहम आँख के तिल का’ अंतःसाधना की बात है। इसका स्पष्टीकरण हमारे गुरुदेव इस भाँति करते हैं-
तिल द्वार तक के सीधे, सुरत को खैंच ला ।
अनहद धुनों को सुन सुन, चढ़-चढ़ के खोजना ।।
साधक जब दृष्टिसाधन की किया करता है, तब उसे तिल (सुषुम्ना-द्वार) मिलता है। फिर-
स्थूल सूक्ष्म कारण महाकारण कैवल्यहु के पार ।
सुष्मन तिल हो पिल तन भीतर होंगे सबसे न्यार ।।
बह्मज्योति ब्रह्मध्वनि को धरि धरि ले चेतन आधार ।
तन में पिल पाँचो तन पारा जा पाओ प्रभु सार ।।
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
जो सुषुम्ना के तिल में पैठते हैं, वे स्थूल से सूक्ष्म में प्रवेश कर जाते हैं। वहाँ उन्हें आंतरिक नाद मिलता है, जो ध्वन्यात्मक शब्द है। ध्वन्यात्मक शब्द दो प्रकार के होते हैं-आहत और अनाहत अपने अंदर जो आहत शब्द मिलता है, उसे अनहद शब्द (नाद) कहते हैं और अनाहत शब्द को सारशब्द, प्रणवध्वनि आदि कहते हैं। श्रीमद्भागवत के स्कन्ध 11, अध्याय 21 में तीन प्रकार के शब्द बतलाये गये हैं-इन्द्रियमय, मनोमय और प्राणमय; यथा-
शब्दब्रह्म सुदुर्बोधं प्राणेन्द्रिमनोमयम् ।
अनन्त पारं गंभीरं दुर्विग्राह्य समुद्रवत् ।।36।।
इन्द्रियमय शब्द वह है, जिसे हम मुँह से बोलते हैं और कान से सुनते हैं। मन के द्वारा उच्चरित शब्द मनोमय कहलाता है। अंतस्साधना के क्रम में जहाँ तक मन की गति है और जो शब्द मन के द्वारा ग्रहण होता है, वह भी मनोमय शब्द है। जब साधक अनहद शब्द को पार कर अनाहत शब्द को पकड़ता है, तो वह प्राणमय शब्द है। वह प्राणमय शब्द (ओ3म्, स्फोट, उद्गीथ आदि) परम प्रभु परमात्मा का वाचक है, उसी शब्द को पकड़कर परमात्मा तक पहुँचा जाता है। उसे ही गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने उलटा नाम कहा है; यथा-
हम जो शब्द बोलते और सुनते हैं, वह नाभि से निकलता है और हृदय, कंठ तथा मुँह के उच्चारण स्थानों में ठोकर लगकर बाहर निकलता है, वह पिंडी शब्द है। दूसरा होता है ब्रह्मांडी शब्द, जो ऊपर से ब्रह्मांड में आता है, फिर ब्रह्मांड से पिंड में। पिण्डी शब्द वर्णात्मक और सगुण होता है, जबकि ब्रह्मांडी शब्द ध्वन्यात्मक और निर्गुण होता है। ये दोनों शब्द एक दूसरे के उलटे हैं। यही उलटा नाम है। इन सब गंभीर बातों को सत्संग में जाकर जानना चाहिए और संत सद्गुरु से सद्युक्ति जानकर साधना करनी चाहिए। आजकल कहकर टालना ठीक नहीं है।
आज कहै मैं काल्ह भजूँगा, काल्ह कहै फिर काल्ह।
आज काल्ह के करत ही, औसर जासी चाल।।
पुनः संत कबीर साहब कहते हैं-
को जाने पल की, जगत में खबर नहीं पल की।
भूतकाल यानी अतीत, जो व्यतीत हो गया और भविष्य अज्ञात है, कोई ठिकाना नहीं कि क्या होगा! लेकिन वर्तमान हमारे हाथ है, हम वर्तमान को जैसा बनाएँगे, हमारा भविष्य वैसा ही बनेगा। जो अपने भविष्य को उज्ज्वल बनाना चाहते हैं, वे पवित्र जीवन बितावें और शुभ कर्मों को करते हुए भगवद्भजन करें। इहलोक और परलोक दोनों जीवन कल्याणमय होगा। (महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर दिनांक 10-2-2002, शांति-संदेश, अप्रैल 2002 ई0)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
यह अखिल भारतीय सन्तमत-सत्संग का 91वाँ वार्षिक अधिवेशन है। यह बतलाता है कि इसके पूर्व नब्बे वार्षिक अधिवेशन हो चुके हैं। नब्बे हमलोग कैसे लिखते हैं-9 के आगे शून्य देते हैं, यह एक सैन है। कबीर साहब ने कहा है-
“ जो कोई समझै सैन से, ताको कहिए बैन ।
सैन बैन समझै नहीं, ताको कछु नहीं कैन ।।”
यह सैन क्या है, 9 के आगे शून्य। जबसे सृष्टि हुई है और इस सृष्टि में हमलोग आए हैं, नौ दरवाजे में ही घूम रहे हैं। नौ के आगे शून्य है। वह संकेत करता है कि नौ के आगे कोई दशवाँ दरवाजा भी है। उस दशवें दरवाजे की ओर जाओ। लेकिन उस शून्य को भी देख करके हमलोग कुछ नहीं समझ पाये, तब 91वाँ वार्षिक अधिवेशन कहता है कि 9 के बाद 1 और द्वार है उसको जानो कि वह एक द्वार क्या है? 9 द्वार तो हमलोग जानते हैं-आँख के दो द्वार हैं, कान के दो द्वार हैं, नाक के दो द्वार हैं, मुँह का एक द्वार हैं और मल-मूत्र विसर्जन के दो द्वार हैं। ये नौ द्वार पिण्ड में हैं, लेकिन दशवाँ द्वार पिण्ड- ब्रह्माण्ड की संधि स्थल पर है, उस ओर इंगित करता है। जबतक हमलोग इन आठ दरवाजे में हैं, तब क्या हो रहा है और यदि हम दशवें द्वार में जाएँ, तब क्या होगा? इस सन्दर्भ में पंजाब में बहुत बड़े महान संत हो गए हैं-गुरु नानकदेवजी महाराज, उन्होंने बतलाया है-
“ नउ दरि ठाके धावतु रहाए,
दसवै निज घरि वासा पाए ।
उथै अनहद सबद बजहि दिन राती,
गुरमति शबदु सुणावणिआ ।।”
जबतक तुम नौ दरवाजे में रहोगे, आवागमन के चक्र में पड़े रहोगे, विषयों में तुम भुले हुए रहोगे। लेकिन जब तुम दशवें दरवाजे में प्रवेश करोगे, तो वहाँ जाओगे, जहाँ तुम्हारा निज घर है। निज घर में जाकर क्या होगा, तो महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज कहते हैं-
“ निज घर में निज प्रभु को पावै, अति हुलसावै ना ।
‘मेँहीँ’ अस गुरु सन्त उक्ति, यम-त्रस मिटावै ना ।।”
आवागमन के चक्र से छूट जाओगे। वह दशवाँ दरवाजा क्या है, कहाँ है? भगवान शंकर ने ब्रह्माजी से इस प्रकार कहा था-
“ वामदक्षे निरुन्धन्ति प्रविशन्ति सुषुम्नया ।
ब्रह्मरन्ध्रं प्रविश्यांतस्ते यान्ति परमां गतिम् ।।”
(योगशिखोपनिषद्)
जो बायें और दायें को रोकता है अर्थात इड़ा, पिंगला को रोकता है, सुषुम्ना में प्रवेश कर जाता है और जो सुषुम्ना में प्रवेश करता है, वही ब्रह्मरन्ध्र्र में प्रवेश करता है। जो ब्रह्मरन्ध्र में प्रवेश करता है, वही ब्रह्म को प्राप्त करता है। ब्रह्म के पास जाने का यही एक मार्ग है। यों कहने के लिए लोग कहा करते हैं कि एक नगर में जाने के लिए चारो ओर से रास्ते होते हैं। किसी भी नगर से रास्ते में प्रवेश कर सकते हैं, लेकिन परमात्मा के पास जाने के लिए अनेक नहीं एक ही रास्ता है। हमलोग अपने-अपने रहने के लिए घर-मकान बनाते हैं और प्रभु के लिए भी घर बनाते हैं। मन्दिर बनाते हैं, मस्जिद बनाते हैं, गिरजाघर बनाते हैं। हमलोग तो अपने लिए बनाते हैं, प्रभु के लिए भी बनाते हैं। क्या प्रभु अपने लिए घर नहीं बनाते हैं? प्रभु ने भी अपने लिए घर बनाया है। मंदिर, मस्जिद और गिरजा तो पूजा घर है, उसमें जाकर हम उनकी पूजा करते हैं। पर वहीं प्रभु मिलेंगे, ऐसी बात नहीं है, जब हम शरीर-रूपी मंदिर में प्रवेश करेंगे, गिरजाघर में प्रवेश करेंगे, मस्जिद में प्रवेश करेंगे, तभी प्रभु के दर्शन होंगे। जैसे देखने का रास्ता एक है-आँख, सुनने का रास्ता है-कान, गंध ग्रहण करने का रास्ता है-नाक, भोजन ग्रहण करने का रास्ता है-मुँह, मल-मूत्र विसर्जन के लिए भी एक-एक रास्ता नियुक्त है। चाहें वे हिन्दू हों, मुसलमान हों, जैन हों, बौद्ध हों, सिक्ख हों, ईसाई हों, नर हों वा नारी हों, किसी देश वा वेश के हों, सबके लिए एक ही समान बात है। उसी तरह परम प्रभु परमात्मा तक जाने का एक ही रास्ता है और वह रास्ता बाहर का नहीं है अपने भीतर का है। यही बतलाने के लिए यह 91वाँ वार्षिक अधिवेशन है। शरीर स्थित नौ द्वारों के बारे में महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज कहते हैं-
“ तन नव द्वार हो रामा, अति ही मलीन हो ठामा ।
त्यागि चढ़˜ दशम द्वारे, सुख पाउ रे भाई ।।”
ये नौं द्वार जो हमारे हैं, ये मलिन हैं, अपवित्र हैं। बल्कि यदि हम विवेक विलोचन से अवलोकन करें, तो पायेंगे कि इस शरीर में जैसे-जैसे हम नीचे की ओर जाते हैं, वैसे-वैसे हमारी अज्ञानता बढ़ती है और अपवित्रता भी बढ़ती है। जैसे हमारी आँखें है, आँखों से हम बाह्य जगत का दृश्य देखते हैं। लेकिन आँखों से हम जितनी दूर की चीजों को देख सकते हैं, कान से उतनी दूर के शब्द को सुन नहीं सकते, क्योंकि आँख से कान नीचे है। कान से जितनी दूर के शब्द को हम सुन सकते हैं, नासिका से उतनी दूर की गंध को ग्रहण नहीं कर सकते हैं, क्योंकि कर्णेन्द्रिय से नासिका नीचे है। नासिका से जितनी दूर की गंध को हम ग्रहण कर सकते हैं, जिभ्या से उतनी दूर पर रखी चीज का रसास्वादन नहीं कर सकते है; क्योंकि नासिका इन्द्रिय रसनेन्द्रिय नीचे है। इस प्रकार सिद्ध है कि जैसे-जैसे हम नीचे की ओर जाते हैं, वैसे-वैसे हमारी अज्ञानता बढ़ती है। अब प्रश्न है कि जैसे-जैसे नीचे की ओर जाते हैं, उतनी अपवित्रता भी बढ़ती है, यह कैसे? मान लीजिए हमारे कोई मित्र किसी कारण-विशेष से दुःखी है, हमारे सामने वे रो रहे हैं। उनकी आँखों से अजस्त्र-धारा प्रवाहित हो रही है, ऐसी परिस्थिति में हम क्या करते हैं? अपना रूमाल निकाल करके उनकी आँखों के आँसू को पोछते हैं और कहते हैं-रोइये नहीं, धैर्य धारण कीजिए, उनको हम विविध प्रकार से सान्त्वना देते हैं, ढाढ़स बँधाते हैं। विचारणीय विषय है कि जिस मित्र की आँखों के आँसुओं को हम अपने रूमाल से पोंछ देते हैं, यदि उन्हीं मित्र के कान से गुज्जू निकलता हो तो क्या पोछेंगे? नहीं पोछेंगे। इसी प्रकार उनकी नाक से यदि नेटा निकलता हो तो हम नहीं पोछेंगे, उनके मुँह से लार निकलता हो तो हम नहीं पोछेंगे और नीचे की इन्द्रियों से निःसृत मल-मूत्र के लिए तो कहना ही क्या? अब हम दूसरी तरह से सोचें, सच्छास्त्रें में लिखा है-जब हम जाग्रतावस्था में रहते हैं, तो नेत्र में रहते हैं। स्वप्नावस्था में कंठ में चले जाते हैं और सुषुप्ति की अवस्था में हृदय में चले जाते हैं।
“ नेत्रस्थं जागरितं विद्यात्कण्ठे स्वप्नं समाविशेत् ।
सुषुप्तं हृदयस्थं तु तुरीयं मूर्ध्निं संस्थितम् ।।”
(ब्रह्मोपनिषद्, कृष्णयजुर्वेद)
इस वेद वाक्य से संत चरणदासजी महाराज की वाणी में कितना साम्य है, मिलाकर देखिए-
“ जाग्रत वासा नैन में स्वप्न कंठ स्थान ।
जान सुषुप्ति हृदय में नाभि तुरीय मन तान ।।”
सन्त दरिया साहब बिहारी कहते हैं-
“ जानि ले जानि ले सत्त पहिचानि ले ,
सुरत साँची बसै दीद दाना ।”
और सन्त तुलसी साहब की वाणी सुनिए-
“ सत सुरति समझि सिहार साधौ ,
निरखि नित नैनन रहो ।”
जाग्रतावस्था में आँख में रहने के कारण हम दूर तक देखते हैं। जब हम स्वप्नावस्था में आँख से नीचे उतरकर कंठ में चले जाते हैं, तो नजदीक का भी ज्ञान हमको नहीं रहता है। उस समय हम मानसिक जगत में घूमते रहते हैं और जब कंठ से नीचे हृदय में चले जाते हैं तो वहाँ मानसिक जगत भी छूट जाता है और ऊपर कंठ में आते हैं तो पूर्ववत् मानसिक जगत में घूमते हैं। कंठ से ऊपर जब हम आँख में आते हैं तो जाग्रतावस्था में आ जाते हैं और तब हमें स्थूल जगत का ज्ञान होने लग जाता है। संतों ने कहा कि यदि तुम अपने को इन तीनों अवस्थाओं से परे चौथी अवस्था तुरीय में ले जाओ तो तुमको उस दिव्य अलौकिक जगत का ज्ञान होगा। जहाँ से तुम इस स्थूल शरीर और संसार में आये हो। संत कबीर साहब ने कहा है-
“ वा घर की सुधि कोई नहीं बतावे ,
जा घर से जीव आया हो ।”
हम कहाँ से आये हैं और हमको कहाँ जाना है, यह बतलानेवाला कोई नहीं है। यह तो कोई संत सद्गुरु ही बतला सकते हैं। इस 91वाँ वार्षिक अधिवेशन में यह बात बतलायी जाएगी। सत्संग की तिथियाँ 7, 8 और 9 निश्चित की गयी। जरा इस पर भी हम विचार करें। ये सात, आठ और नौ तिथियाँ क्या बतलाती है? इस सप्तमी तिथि के विषय में हम गोस्वामी जी के शब्दों में कहना चाहेंगे-
“ सातईं सप्त धातु निरमित तनु, करिय विचार ।
तेहि तनु केर एक फल, कीजिए पर उपकार ।।”
सप्तधातुओं-रक्त, रस, मेद, मज्जा, मांस, अस्थि और वीर्य से हमारा शरीर निर्मित है। गोस्वामी जी का कहना है कि इस शरीर को पाकर विचार कीजिए कि क्या करना है जरा विचार शब्द पर हम विचार करें, विचार किसको कहते हैं? संत वचन है-
“ को मैं आया कहाँ से, कित जाना क्या सार ।
को मम जननी को पिता, या को कहिये विचार ।।”
यह विचार करना है। भगवान बुद्ध का जमाना था, वे चारिका करके भोजन करते थे। जिस गाँव में भोजन करते थे, उस गाँव के बाहर वृक्ष के नीचे बैठ जाते थे, गाँव के कुछ लोग वहाँ एकत्रित होते और भगवान बुद्ध कुछ उपदेश वाक्य कहकर अपने विहार चले जाते थे। विहार कहने का मतलब बिहार प्रान्त से नहीं, बल्कि उनकी कुटियों से है। उस समय उनकी कुटिया निवास आश्रम को विहार की संज्ञा दी जाती थी। एक बार किसी गाँव में भिक्षाटन करके वे गाँव के बाहर में बैठ गए। वहाँ गाँव के कुछ लोग इकट्ठे हो गए। भगवान बुद्ध उपदेश करने लग गए। संयोग से उस गाँव की एक युवती लड़की जिसका विवाह नहीं हुआ था, वह भी आ गयी, जहाँ भगवान बुद्ध बैठे थे, वह वहीं उनके निकट नीचे में बैठ गयी। भगवान उपदेश वाक्य समाप्त करने के बाद उस लड़की से पूछते हैं-कुमारिके! तू कहाँ से आयी है? वह लड़की कहती है-‘भन्ते! मैं नहीं जानती’, भगवान बुद्ध पूछते हैं-‘तू कहाँ जाएगी’, लड़की कहती है-‘भन्ते मैं नहीं जानती’, भगवान बुद्ध पूछते हैं-‘तू नहीं जानती है?’, लड़की उत्तर देती है-‘हाँ भगवन! जानती हूँ।’ भगवान बुद्ध पूछते हैं कि तू जानती है? लड़की उत्तर देती है कि मैं नहीं जानती हूँ। वहाँ जितने लोग बैठे थे, उनलोगों के मन में आक्रोश हुआ कि यह कोई छोटी बच्ची नहीं है, सयानी लड़की है, इतने बड़े महान सन्त पूछ रहे हैं कि कहाँ से आयी हो, तो वह कहती है कि मैं नहीं जानती हूँ, पूछते हैं कि कहाँ जाएगी? तो कहती है, नहीं जानती हूँ। जब भगवान पूछते कि नहीं जानती हो, तो कहती है कि हाँ जानती हूँ। पुनः जब भगवान पूछते हैं कि जानती हो, तो वह कहती है कि नहीं जानती हूँ, यह कैसी अशिष्ट लड़की है! सबके मन के आक्रोश को जानकर भगवान बुद्ध ने पुनः उस लड़की से पूछा-‘कुमारिके!’ मैं तुमसे क्या पूछ रहा हूँ और तुम क्या उत्तर दे रही है? वह लड़की कहती है-‘भन्ते! आप जानते हैं कि मैं अमुक पेशकार की पुत्री हूँ और आप यह भी जानते हैं कि मेरी शादी हुई नहीं है, तो मैं कहाँ से आयी हूँ और कहाँ जाऊँगी, यह बात आप जानते ही हैं, लेकिन आपका पूछना यह नहीं है। आपका पूछना है कि संसार में, इस शरीर में तुम कहाँ से आयी हो? भगवन्! मुझे क्या पता, मैं पूर्वजन्म क्या थी और कहाँ से आयी हूँ, इसलिए मैंने कहा कि मैं नहीं जानती हूँ। आपने पूछा कि कहाँ जाएगी? भगवन्! मुझे क्या पता कि शरीर छूटने पर मैं कहाँ जाऊँगी, इसलिये कहा कि नहीं जानती हूँ। आपने पूछा-नहीं जानती है? तो मैंने कहा कि जानती हूँ अर्थात् संसार से एक दिन जाना है। आपने पुनः पूछा कि जानती है? तो मैंने उत्तर दिया, नहीं जानती हूँ अर्थात् कब जाऊँगी, यह नहीं जानती हूँ।
हमलोगों को भी यह सोचना है, विचारना है कि हम कहाँ से आये हैं और कहाँ जाएँगे? तथा अन्य संत भी कहते हैं कि ‘याको कहिए विचार।’ यह देव दुर्लभ मनुष्य शरीर हमलोगों को मिला हुआ है, इसकी उपादेयता क्या है, हमलोग जानें। गोस्वामी जी कहते हैं कि ‘कीजिए पर उपकार।’ इस परोपकार कार्य में चाहें हमारा तन लग जाय, मन लग जाय, धन लग जाय, वचन लग जाय, जो लग जाय, वह तो हमारे हिस्से का होगा, बाकी बचा हुआ भाग किसके हिस्से में जाएगा, पता नहीं। गुरु गोरखनाथजी कहते हैं-
“ सप्त धातु का काया प्यंजरा, ता माहिं जुगति बिन सूवा ।
सतगुरु मिलै तो उबरै बाबू, नहिं तो प्रलय हूवा ।।”
यह सप्त धातु का बना हुआ पिंजरा है, इस पिंजरे में जीव रूप सुग्गा बैठा हुआ है। इस सुग्गे को पढ़ने के लिए जो सिखा दिया गया है, जैसे-राम-राम, शिव-शिव, वाह गुरु आदि वही यह पढ़ रहा है, कर रहा है। लेकिन जबतक सन्त सद्गुरु नहीं मिलेंगे, तबतक इससे निकलने का रास्ता इसको नहीं मिलेगा।
आठवीं तिथि क्या बतलाती है-
“ आठइँ आठ प्रकृति पर, निरविकार श्री राम ।
केहि प्रकार पाइय हरि, हृदय बसहिं बहु काम ।।”
संतमत-सत्संग के द्वारा आपको बतलाया जाएगा कि आठ प्रकृति के परे परम प्रभु परमात्मा किस प्रकार हैं। वास्तव में प्रकृति दो ही हैं-अपरा प्रकृति और परा प्रकृति। गोस्वामीजी ने अष्टधा प्रकृति को आठ प्रकृति कहा है। अपरा प्रकृति ही अष्टधा प्रकृति है; क्योंकि इसके अभ्यंतर में मिट्टी, जल, अग्नि, हवा, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार; ये आठ चीजें है। गोस्वामीजी कहते हैं-अष्टधा प्रकृति के परे निर्विकार श्रीराम हैं। वे निर्विकार श्रीराम कैसे मिलेंगे, जबकि हमारे हृदय में बहुत सी कामनाएँ बैठी हैं। जबतक हम निर्विकारी नहीं हो सकेंगे, उस निर्विकारी प्रभु को नहीं प्राप्त कर सकते। ब्रह्माण्ड पुराणोत्तर गीता में लिखा है-
“ नवछिद्रान्विता देहाः स्नुवत्ते जालिका इव ।
नैव ब्रह्म न शुद्धं स्यात् पुमान् ब्रह्म न विन्दति ।।”
अर्थात नवछिद्र विशिष्ट शरीर से ज्ञान, विज्ञानादि निरन्तर निःसृत होते रहते हैं। मानवगण इन्द्रिय संयम करके देहाभिमान और रागादि परित्याग पूर्वक साक्षात् ब्रह्मवत् परिशुद्ध न होकर किसी प्रकार ब्रह्म का लाभ नहीं कर सकते।
हम अपने अन्दर से कामनाओं को कैसे निकालेंगे, अन्तःपुर का प्रक्षालन कैसे होगा और हम निर्विकार प्रभु को कैसे पाएँगे आदि बातें क्रम-क्रम से इस सत्संग में बतलाई जाएँगी। अब आगे नवमी तिथि आती है, यह क्या बतलाती है-
“ नवमी नव द्वार-पुर वसि, न आपु भल कीन ।
ते नर जोनि अनेक भ्रमत, दारुन दुख दीन ।।”
कहते हैं-जबतक हम शरीर के नौ द्वार रूप पुर में रहेंगे, तबतक आवागमन के चक्र में पड़े रहेंगे, इससे हमारी अपनी भलाई नहीं हो सकेगी। अभी तो हम अपने को शरीर जान रहे हैं, इसलिए शरीर सुख के लिए ही सब कुछ कर रहे हैं। हमारा जितना प्रयास है, इन्द्रिय सुख के लिए है। लेकिन हम न तो शरीर हैं और न इन्द्रिय ही। हम शरीर, इन्द्रिय से परे हैं। हम अपने को जानें, पहचानें। एक बंगाली महात्मा योगी पंचानन भट्टाचार्य ने कहा था-
“ आमी आमी करि बूझते न पारी ।
के आमी अमाते आछे की रतन ।।
कोन शक्ति बले बेड़ाइ चले बलै ।
कारे अभावे हय देह अचेतन ।।
देहे माझे आछे प्राणेरि संचार ।
ताहा तेई बली आमी या आमार ।।
प्राण गेले चले हवे शवाकार ।
केवाकार कोथाय रव धन-जन ।।”
‘हम-हम’ तो कह रहे हैं, लेकिन ‘हम’ हैं कौन, कभी भेंट हुई अपने से? हम गोरे हैं, काले हैं, नाटे हैं, मोटे हैं, दुबले हैं, पतले हैं, कैसे हैं? वस्तुतः हमलोग केवल शरीर ज्ञान में हैं, अपना ज्ञान नहीं है। शरीर का ज्ञान रहने के कारण ही हम शरीर से सम्बन्धित व्यक्ति और वस्तु का उपभोग करते हैं, इससे लाभ लेते हैं। लेकिन जिस दिन हमको स्वयं का ज्ञान हो जाएगा कि हम अमुक हैं, उस दिन उससे सम्बन्धित लाभ हमको मिलेगा। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-
“ ईस्वर अंस जीव अविनासी ।
चेतन अमल सहज सुख रासी ।।
सो माया बस भयउ गोसाईं ।
बंधेउ कीर मर्कट की नाईं ।।”
यह ‘ईस्वर अंस जीव अविनासी’ जब पीव को प्राप्त कर लेगा, तब उसका सारा दुःख दूर हो जाएगा। जितने प्रकार के दैहिक, दैविक, भौतिक आदि ताप हैं, इनसे मुक्ति मिल जाएगी।
यह दो हजार, दो ईसवी है। दो के बाद दो शून्य लिखकर फिर दो लिखते हैं। इस प्रकार इधर से अथवा उधर से, जिधर से भी पढ़िए बीस हो जाता है। यह बीस बतलाता है कि मानव शरीर पा करके उन्नीस (खोटा) काम मत करो। जो काम करो बीस (शुभ) काम करो, इक्कीस (उत्तमोत्तम) काम करो। यह उत्तमोत्तम कार्य भगवद्भजन, सत्संग, परोपकार और स्वावलम्बी जीवन है। यह मनुष्य-शरीर की उपादेयता है। इतना बड़ा विशाल आयोजन किसलिए है, यह क्या सन्देश देता है, यह भूमिका के रूप में मैंने थोड़ा-सा आपलोगों के समक्ष रखा।
आज ‘सत्संग’ के विषय में पाठ करके आपलोगों को सुनाया गया है। जिज्ञासा होती है-सत्संग किसको कहते हैं? सत्संग में दो शब्द हैं-सत् और संग। सत् सापेक्ष शब्द है। सापेक्ष कहते हैं-स+अपेक्ष। जिसको दूसरे की अपेक्षा होती है, वह है सापेक्ष। जब दो पदार्थ परस्पर उलटे गुणवाले हों और एक दूसरे के अपेक्षित हों, वह सापेक्ष शब्द है। जैसे सत् है, उसका सापेक्ष असत् होगा। जैसे दिन-रात, हानि-लाभ, सुख-दुःख, पाप-पुण्य; ये सभी सापेक्ष शब्द हैं, एक दूसरे के उलटे गुणवाले हैं। लेकिन एक जहाँ रहेंगे, दूसरे भी वहाँ रहेंगे। जिसका संग करने के लिए यह आयोजन किया गया है, वह सत् क्या है? संसार की जितनी चीजें हैं, सारी चीजें नाशवान हैं, असत् हैं।
परमात्मा ने जो सृष्टि की है, उस सृष्टि के पाँच बड़े-बड़े मण्डल हैं। जिसमें हमलोग रह रहे हैं, यह स्थूल मण्डल है। इसके बाद सूक्ष्म मंडल है, इसके बाद कारण मंडल है, उसके बाद महाकारण मण्डल है; ये चार बड़े-बड़े जड़ के मण्डल हैं और ये क्षर हैं। इन चार मण्डलों के परे पाँचवाँ कैवल्य मंडल है। वह कैवल्य मंडल क्षर नहीं, अक्षर है। वह जड़ नहीं, चेतन है। जबतक हम इन चार मण्डलों में रहेंगे, तबतक हम असत् में रहेंगे, तबतक हम क्षर में रहेंगे। और जब हम इन चारों मण्डलों को पार करके पाँचवें मण्डल में स्थित होंगे, तब हमको अपने सत्-स्वरूप का ज्ञान होगा। और जब अपने स्वरूप का ज्ञान होगा, तब परमात्म-स्वरूप का भी ज्ञान होगा। जबतक अपने स्वरूप का ज्ञान नहीं होगा, तबतक सत्-स्वरूप परमात्मा का ज्ञान नहीं होगा।
यह जीवात्मा सत् है और परमात्मा भी सत् है। परमात्मा में जीवात्मा को मिला देना, इस प्रकार सत् का सत् से संग होना सत्संग है। गुरु नानकदेवजी महाराज ने कहा है-
“ सूचै भाड़ै साचु समावै बिरले सूचाचारी ।
तंतै कउ परम तंतु मिलाइआ नानक सरणि तुमारी ।।”
अर्थात् पवित्र बर्तन में सत्य अँटता है। जड़ावरण अपवित्र बर्तन है, इसमें जीवात्मा रहकर परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकता है। इनको पार करना है। कैवल्य मण्डल में जाकर-परा प्रकृति में अवस्थित होना है, तब अपना और परमात्मा दोनों का ज्ञान होगा। इसलिए एक शायर ने बड़ा अच्छा कहा है-
“ इबादत है किसी नाशाद को फिर शाद कर देना ।
इबादत है किसी बर्बाद को आबाद कर देना ।।
यही सीखा है सागर हमने मुर्शद के कदम छूकर ।
खुदा से हो अगर मिलना पता खुद का लगा लेना ।।”
जबतक खुद का पता नहीं मिलेगा, तबतक खुदा का पता नहीं मिलेगा। जबतक आत्मा का पता नहीं मिलेगा, तबतक परमात्मा का पता नहीं मिलेगा। चारो मंडलों को पार करने पर, चारों जड़ शरीरों को पार करने पर आत्मा का पता चलेगा। फिर जीव और पीव मिलकर एक हो जाएगा।
यह सत्संग बहुत उच्च श्रेणी का सत्संग है, इससे बढ़कर और कुछ हो नहीं सकता है। लेकिन जबतक यह सत्संग नहीं मिला है अर्थात् जीवात्मा- परमात्मा का मिलन नहीं हुआ है, तबतक हमलोग क्या करें? सत्-स्वरूप सर्वेश्वर का जिन्होंने साक्षात्कार कर लिया है, ऐसे सत् जन का संग भी सत्संग है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है-
“ सोइ जानहि जेहि देहु जनाई ।
जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई ।।”
जो जल समुद्र में जाकर मिल जाता है, उसकी संज्ञा समुद्र ही हो जाती है। उसी तरह जो जीव परमात्मा से जाकर, मिल करके एक हो जाता है, उसकी संज्ञा वही हो जाती है, वह परमात्मा से अभिन्न हो जाता है। लेकिन ऐसे संतों की पहचान भी कठिन है; क्योंकि हमारे पास उस तरह का मीटर नहीं है, जिससे हम ठीक-ठीक उनकी पहचान कर सकें।
एक साधु बाबा ने अपने शिष्यों को एक छड़ी दिया और कहा कि यह लो, तुम जिसके सामने इस छड़ी को रखोगे, उसके अंदर क्या दोष-गुण हैं, इसमें देख लोगे। शिष्य ने छड़ी ले ली। उसने सोचा कि और लोगों को तो पीछे देखेंगे, पहले अपने गुरुजी को ही देख लें कि इनमें क्या गुण-अवगुण हैं। उसने उस छड़ी को गुरुजी के सामने कर दिया, तो उसकी नजर में गुरुजी के अंदर के गुण-दोष सब कुछ आ गए। गुरुजी के अवगुणों को देखकर वह सोचने लगा कि इतने दिनों तक मैंने इनकी व्यर्थ सेवा की; क्योंकि इनमें तो दोष भरे पड़े हैं। मैं तो समझता था कि ये विकार-रहित, निर्दोषी हैं, पवित्र हैं। अब इनके साथ रहना ठीक नहीं है। गुरुजी ने उस शिष्य से कहा- अच्छा, मुझे तो तुमने देख लिया। अब तुम अपनी ओर छड़ी घुमाकर देखो, तुम कैसे हो? शिष्य ने जब अपनी ओर देखा, तो दंग रह गया। वह सोचने लगा- अरे! हम तो सभी दुर्गुणों से भरे पड़े हैं।
इसी प्रकार लोग तो दूसरे को मीटर लगाकर देखते हैं, लेकिन अपने में मीटर लगाकर देखना भूल जाते हैं। जरा झाँककर देखो तो अपने में क्या है?
“ देखि के परदोष रज सम, कहत गिरि सम सोई रे ।
दोष अपने मेरु सम हैं, तिन्हें राखत गोई रे ।।”
-गो0 तुलसीदासजी
संतों में कोई दोष नहीं होता। दोष हमारी दृष्टि में रहता है। संतों का संग दूसरी श्रेणी का सत्संग है। लेकिन जब कोई संत हमारे सामने नहीं हों, तब हम किसका संग करें, ऐसी जिज्ञासा हो सकती है? उत्तर में निवेदन है कि जो संत हो चुके हैं, उन सन्तों की जो वाणियाँ हैं, उन सन्तों की वाणियों का हम संग करें, यह भी सत्संग है। यह तीसरी श्रेणी का सत्संग है। कुछ दिन हम सत्संग करते रहेंगे, संतवाणी का संग करते रहेंगे, तो कभी-न-कभी प्रभु की कृपा हो जाएगी और दुर्लभ संत के दर्शन हो जाएँगे। दूसरी श्रेणी का सत्संग करते-करते उनसे सद्युक्ति लेकर सदाचार समन्वित होकर, सत् साधना करने लग जाएँगे तो सत्-स्वरूप सर्वेश्वर का साक्षात्कार करके पहली श्रेणी का भी सत्संग हो जाएगा।
अभी हमलोग संतवाणी का संग करने के लिए यत्र-तत्र से यहाँ एकत्र हुए हैं। संतों ने क्या कहा है, उसको हम सुनेंगे, समझेंगे, विचारेंगे और व्यवहार में लाएँगे, हमारा परम कल्याण होगा, परमात्मा का ज्ञान ऐसा है कि वह सर्वत्र है। परमात्मा सर्वव्यापी होने के कारण वह बाघ में भी रहते हैं और गाय में भी रहते हैं। बाघ का संग करने से क्या होगा और गाय का संग करने से क्या होगा, सो समझिए। उसी तरह परमात्मा सज्जन में भी रहते हैं और दुर्जन में भी रहते हैं। सज्जन तो गाय के समान होते हैं और दुर्जन बाघ के समान। बाघ के सामने जाइए तो वह आपको खा लेगा। उसी तरह दुर्जन के सामने जाइए तो आपके सद्ज्ञान को खा लेगा। गाय हमको दूध देती है, उसका दूध हम जीवन भर पीते हैं। माता का दूध उतना नहीं पी पाते हैं, जितना कि गाय का दूध पीते हैं। जैसे जीवन भर गाय हमको दूध देती रहती है, उसी तरह संत-महात्मागण अपने जीवन भर हमको सद्ज्ञान देते रहते हैं। जिस तरह दूध पीकर हम पुष्ट होते हैं, उसी तरह संतों के ज्ञान को लेकर हम संतुष्ट होते हैं।
शारीरिक बल के लिए भोजन की आवश्यकता होती है, मानसिक बल के लिए इस सत्संगरूपी भोजन की आवश्यकता होती है और आत्मबल के लिए भगवद् भजन करने की आवश्यकता होती है। ये तीनों प्रकार के भोजन चाहिए। तन का भोजन चाहिए, मन का भोजन चाहिए और आत्मा का भी भोजन चाहिए।
जो संत होते हैं, वे हमको देते ही रहते हैं। संत सुन्दरदासजी महाराज ने कितना अच्छा कहा है-
“ साँचो उपदेश देत भली भली सीख देत ,
समता सुबुद्धि देत कुमति हरतु है ।
मारग बताई देत भावहू भगति देत ,
प्रेम की प्रतीति देत अभरा भरतु हैं ।
ज्ञान देत ध्यान देत आतम विचार देत ,
ब्रह्म कूँ बताई देत ब्रह्म में चरतु है ।
सुन्दर कहत जग संत कछु लेत नाही ,
निशदिन संत जन देवो ही करतु हैं ।”
वे संत हमको देते ही देते रहते हैं। संतमत बतलाता है कि सत् और असत् से क्या लाभ और क्या हानि होती है-
“ सत-संगति से हो जाता नर विषयों से निस्संग ।
फिर व्यामोह रहित हो जाता हो सर्वत्र असंग ।।
मोह विगत होते ही होता मन निश्चलता युक्त ।
निश्चलता आते ही वह हो जाता जीवन मुक्त ।।”
सत्संग से प्रेम करनेवाला जीवनमुक्त हो जाता है। शरीर में रहते हुए अशरीरी हो जाता है, विदेह हो जाता है। गुरु नानकदेवजी महाराज गृहस्थ थे, पर परिवार में रहते हुए निर्लिप्त थे। राजा जनकजी राजपाट सब कुछ चलाते थे, पर असंग होकर रहते थे। संतमत बतलाता है अपने परिवार, घर-गृहस्थी को छोड़ने की जरूरत नहीं है। घर-गृहस्थी, परिवार में रहो, अपना काम-धंधा सँभालते रहो, लेकिन निर्लिप्त हो करके रहो। गुरु नानकदेवजी महाराज ने कहा है-
“ जैसे जल महि कमलु निरालमु मुरगाई नैसाणै ।
सुरति शबदि भवसागरु तरिअै नानक नामु बखाणै ।।”
संत कहते हैं-जल से कमल की उत्पत्ति होती है, वह अपने सौरभ से चारो ओर सुरभित करता है। दूर-दूर से भौंरे आते हैं और उसके पराग को लेकर जाते हैं। उसी तरह यह संसार क्या है-कीचड़ है, भवजल है, जिसमें तुम हो। तुम्हारा जीवन इस तरह का होना चाहिए, जैसे कमल का फूल। तुम्हारा यश लेने के लिए, तुम्हारा गुण लेने के लिए, तुम्हारा संग करने के लिए दूर-दूर से लोग आवें और लाभान्वित होकर जाएँ। लेकिन यह सब होगा कैसे? इसके लिए सत्संग की आवश्यकता है। जितने अंशों में हमारा मन सत्संग में लगेगा, उतने ही अंशों में हमारा सुधार होगा। सत्संग के संदर्भ में गुरुदेव का वचन है-
“ नित सत्संगति करो बनाई, अन्तर बाहर द्वै विधि भाई ।
धर्म कथा बाहर सत्संगा, अन्तर सत्संग ध्यान अभंगा ।।”
उन्होंने सत्संग के बाह्य और अंतर दो प्रकार बतलाए हैं। यह धर्म कथा की चर्चा बाहर का सत्संग है और जब जीव पीव से मिलने के लिए अभंग ध्यान करता है, तब अंतर का सत्संग होता है। जो अपना कल्याण चाहते हैं, उन्हें दोनों ही प्रकार का सत्संग करना चाहिए।
(यह प्रवचन अखिल भारतीय संतमत-सत्संग के 91वाँ वार्षिक महाधिवेशन, कटिहार में दिनांक 07-04-2002 ई0 को प्रातःकालीन सत्संग के सुअवसर पर हुआ था।)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ एवं भक्तिमती बहनो!
संतमत-सत्संग के द्वारा ईश्वर-भत्तिफ़ का प्रचार होता है। वह ईश्वर-भक्ति अंधी भक्ति नहीं, ज्ञान-योग-युक्त भक्ति है। जिनकी हम भक्ति करना चाहें, उनके स्वरूप का ज्ञान हमें होना चाहिए; पहले परोक्ष ज्ञान, पीछे अपरोक्ष ज्ञान। गोस्वामी तुलसी दासजी महाराज ने लिखा है-
जाने बिनु न होइ परतीती।
बिनु परतीति होइ नहीं प्रीती।।
प्रीति बिना नहिं भगति दृढ़ाई।
जिमि खगेस जल कै चिकनाई।।
जबतक हम किसी व्यत्तिफ़ के सम्बन्ध में कुछ जानेंगे नहीं, तबतक जो उसकी उचित सेवा (भत्तिफ़) होनी चाहिए, नहीं हो सकेगी और जब जान जाएँगे, तब जो उचित सेवा है, वह होगी।
ईश्वर के संबंध में जबतक हम समझेंगे नहीं कि वे स्वरूपतः कैसे हैं, तबतक उनकी भत्तिफ़ कैसे कर सकेंगे? नाम के बिना नामी को कैसे जान सकेंगे? परम प्रभु परमात्मा के अनेक नामों में ‘राम’ भी एक नाम है। ‘रम्’ धातु से राम शब्द बना है, जिसका अर्थ होता है-जो सबमें रमण करता हो। ‘रमन्ति योगिनो यस्मिन् सः रामः।’ जिसमें योगीजन रमण करते हैं, वह राम है। संत कबीर साहब की वाणी है-
एक राम दशरथ घर डोलै,
एक राम सब घट घट बोलै ।
एक राम का सकल पसारा,
एक राम है सबसे न्यारा ।।
संत गरीब दासजी ने राम के विषय में बतलाया है-
अल्लाह अविगत राम है, बेचगून निरबान ।
मेरा मालिक है सही, महल मढ़ी नहिं थान ।।
वह राम ही अल्लाह है। कुरान शरीफ के अलबकरा पारा एक, सूरा दो में लिखा है- “ पूरब और पश्चिम सब अल्लाह के हैं। तुम जिस ओर रुख करोगे, अल्लाह का रुख भी उसी ओर है। वह अल्लाह सर्वव्यापक है, सब कुछ जाननेवाला है।” अल्लाह शब्द आला शब्द से बना है, जिसका अर्थ है-सबसे बड़ा। जिससे बड़ा और कोई नहीं हो सकता, वह है अल्लाह। वही है परम प्रभु परमात्मा, वही है God , वही है राम।
सीता-हरण के पश्चात् का एक प्रसंग है। हनुमानजी श्रीलंका पहुँचे और उन्होंने सीता जी से भेंट की। अशोक वाटिका का विध्वंस किया। रावण का मान-मर्दन कर सम्पूर्ण लंका जला दी। सम्पूर्ण लंका तो जल गई; लेकिन विभीषण का घर नहीं जला। रावण ने विभीषण को बुलाकर पूछा- “ सारी लंका जल गई और तुम्हारा घर नहीं जला, क्या कारण है? क्या उस बन्दर से तुम्हारी मैत्री थी या पहले की जान पहचान थी?” विभीषण राम-भक्त तो थे ही, बड़े विद्वान और बोलने में बड़े कुशल भी थे। उन्होंने कहा- “ आप यहाँ के राजा हैं, मैंने आपका और भाभी का-दोनों का नाम अपने मकान के ऊपर लिख रखा था, फिर कैसे जलता?” रावण ने कहा- “ तुम तो अपने घर पर ‘राम’ लिखे हुए हो और कहते हो कि मेरा और मन्दोदरी का नाम लिखा था।” विभीषण ने उत्तर दिया- “ मैंने संक्षेप में आपके नाम रावण का ‘रा’ और मन्दोदरी का ‘म’ मिलाकर ‘राम’ लिखा है। मेरा घर कैसे जलता!” ‘राम’ की ऐसी महिमा है, अगर हमारे हृदय में विराजित ‘राम’ का प्रत्यक्षीकरण हो, तो हमारा सब काम पूरा हो जाय और परम कल्याण हो जाय। यह संतमत उसी राम की भक्ति बतलाता है। एक बार नारद मुनि भगवान श्रीराम के पास पहुँचते हैं और कहते हैं-
यद्यपि प्रभु के नाम अनेका।
श्रुति कह सकल एक तें एका ।।
रामनाम सबहिंन ते अधिका।
होउ नाथ अघ खग गन बधिका ।।
यह हमको वरदान दीजिए। भगवान राम ने उनको वरदान दे दिया। राम क्या है? इसको हम अच्छी तरह समझें। राम के सगुण और निर्गुण दोनों रूप हैं। पहले सगुण साकार से भत्तिफ़ आरम्भ करें, उसके बाद निर्गुण निराकार तक जाएँ, ऐसी संतवाणी कहती है।
एक सज्जन श्रीरामकृष्ण परमहंसजी महाराज के पास पहुँचे। उन्होंने कहा- “ मैं गृहस्थ हूँ, मेरे पास समय नहीं है, आप एक ऐसा उपदेश दीजिए, जिसमें सारे-का-सारा ज्ञान भरा पड़ा हो।” श्रीरामकृष्ण परमहंसजी महाराज ने उत्तर दिया-ब्रह्म सत्य जगन्मिथ्या। इसको जान लो, फिर कुछ जानने के लिए बाकी नहीं रह जाएगा-ब्रह्म सत्य है, उसके अतिरित्तफ़ जो है, वह भ्रम है, मिथ्या है। किस तरह? गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है-
रजत सीप महँ भास जिमि, जथा भानुकर वारि ।
जदपि मृषा तिहु काल सो, भ्रम न सकै कोउ टारि ।।
ऐसेहि जग हरि आश्रित रहई।
जदपि असत्य देत दुःख अहई।।
सीपी में सूर्य की किरण पड़ती है, तो वह चाँदी-सी भासती है। सूर्य की किरण रेतीले मैदान पर पड़ती है, तो वहाँ पानी-सा भासता है। न तो रेतीले मैदान में पानी है और न सीपी में चाँदी ही; लेकिन इस भ्रम को कोई दूर नहीं कर सकता। जिस तरह सूर्य के आधार पर ही ये दोनों भासते हैं, उसी तरह परम प्रभु परमात्मा के आधार पर ही यह संसार भासता है। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं कि यद्यपि यह असत्य है, फिर भी दुःख देता है। लोग कह सकते हैं कि जो असत्य है, वह दुःख क्या दे सकता है? लेकिन ऐसा भी होता है। इस संबंध में एक प्रसंग सुनिए-
एक युवक ने विवाह किया। वह अपनी पत्नी को साथ लेकर अपने घर लौट रहा था। लड़की की विदाई में देर हो गई थी, जिससे रास्ते में ही रात हो गई। लड़के ने सोचा कि रात के समय अब कहाँ जाएँ? स्टेशन के नजदीक ही धर्मशाला थी, उसमें वे दोनों ठहर गए और भी बहुत-से लोग उस धर्मशाला में ठहरे हुए थे। जब दोनों खा-पीकर निश्चिन्त हुए और अपने कमरे में बैठे, तो प्रेमालाप में लड़के ने अपनी पत्नी से पूछा- “ कहो, हमलोगों को जब लड़का होगा, तो उसको तुम क्या पढ़ाओगी? पत्नी बोली- “ मेरा मन है लड़के को डॉक्टर बनाने का आपका क्या मन है?” लड़के ने कहा- “ मेरा मन है, वकील बनाने का।” उसकी पत्नी कहती है- “ नहीं, वकील बनाना ठीक नहीं है, डॉक्टर बनाना ही ठीक है।” लड़का कहता है- “ देखो, डॉक्टरी सबकी चलती नहीं, किसी-किसी की चलती है; लेकिन जो वकालत करेगा, तो कुछ-न-कुछ कमाकर लाएगा ही।” उसकी पत्नी कहती है- “ नहीं, वकालत में वकील स्वयं तो झूठ बोलते ही हैं और दूसरे से भी झूठ बोलवाते हैं। झूठी कमाई ठीक नहीं है। जो थोड़ी-सी सच्ची-पवित्र कमाई होगी, वही ठीक, लोगों का उपकार तो होगा।”
इस प्रकार वार्तालाप होते-होते बात बढ़ गई। लड़की कहती-मैं तो डॉक्टर बनाऊँगी और लड़का कहता है-मैं वकील बनाऊँगा। देहात में कहावत है कि लकड़ी को माठने से उसमें चिकनापन आता है और बात को माठने से उसमें रुखड़ापन आता है। लड़का नौजवान ठहरा, आवेश में आकर पत्नी को जोर से एक थप्पड़ लगा दिया। बेचारी रोने लग गई और रोते-रोते कहने लगी- “ मैं तो डॉक्टर ही बनाऊँगी।” फिर दूसरा थप्पड़ मारते हुए वह क्रोधित स्वर में कहता है- “ वकील बनाना छोड़कर डॉक्टर-डॉक्टर कर रही है।” दूसरा थप्पड़ लगा कि बेचारी और जोर-जोर से फूट-फूटकर रोने लगी।
आस-पास के कमरे में जो लोग थे, वे सब इकट्ठे हो गए। लोगों ने पूछा- “ अरे भाई, थोड़ी देर पहले आपलोग तो बड़े प्रेम से आपस में बातें कर रहे थे, अभी क्या बात हो गई, जो रोने-धोने की नौबत आ गई?, लड़की कहती है- “ देखिये न, मैं अपने पुत्र को डॉक्टर बनाना चाहती हूँ और ये वकील बनाना चाहते हैं।” लड़के ने कहा- “ मैं अपने लड़के को वकील बनाना चाहता हूँ और यह डॉक्टर बनाना चाहती है।”
इस प्रकार जब दोनों ने अपनी-अपनी फरियाद रखी, तो लोग कहने लगे- “ देखो भाई! आजकल का जमाना ऐसा नहीं है कि आपलोग जैसा चाहेंगे, वैसा हो जाएगा। लड़के की रुचि जाननी पड़ती है कि वह क्या पढ़ना चाहता है, क्या बनना चाहता है। लड़के को बुलाओ और पूछो कि वह क्या पढ़ना चाहता है? इसपर दोनों लज्जित होते हुए संकुचित स्वर में कहने लगे- “ अभी तो हमलोग शादी करके आ ही रहे हैं, लड़का कहाँ है?” यह घटना बतलाती है कि जैसे लड़का तो हुआ नहीं और मार-पीट, रोना-धोना सब तो हो ही गया। इसी प्रकार यद्यपि संसार मिथ्या है, फिर भी उससे दुःख होता है। ‘यद्यपि असत्य देत दुःख अहई’ यही बात गोस्वामी तुलसीदासजी ने कही है। यह प्रत्यक्ष सत्य है कि संसार असत्य है; लेकिन उसका जो दुःख-सुख है, वह तो हमलोग भोग ही रहे हैं। इसलिए संत सूरदासजी महाराज ने कहा है-
ताते सेइये यदुराई।
संपति विपति विपति सौं संपति, देह धरे को यहै सुभाई ।।
तरुवर फूलै फलै परिहरै, अपने कालहिं पाई ।
सरवर नीर भरै पुनि उमड़ै, सूखे खेह उड़ाई ।।
द्वितीय चंद्र बाढ़त ही बाढ़े, घटत घटत घटि जाई ।
सूरदास सम्पदा आपदा, जिनि कोऊ पतिआई ।।
यह संसार सापेक्ष है। यहाँ दुःख है, तो सुख भी है; लाभ है, तो हानि भी। हम देखते हैं, एक पेड़ है, उसमें फूल होता है, फल होता है, फिर सब झड़ जाते हैं। एक सूखी नदी है, वर्षा हुई-पानी जम गया। बाढ़ आई, पानी भर गया। फिर कुछ दिनों के बाद पानी सूख जाता है। अमावस्या-तिथि में सारी रात अँधेरा रहता है, परिवा तिथि में चन्द्रोदय होता है। पश्चात् द्वितीया आती है। होते-होते चाँद पूर्णिमा को प्राप्त होता है। सारी रात प्रकाश-ही-प्रकाश बना रहता है। वही चन्द्रमा पूर्णिमा से घटते-घटते अमावस्या को प्राप्त होता है। पूर्ववत् अँधेरा छा जाता है। इस तरह संपत्ति और विपत्ति का घटना और बढ़ना संसार का नियम है। सब दिन एक-सा नहीं रहता। इसलिए क्या करो? जो घटे नहीं, बढ़े नहीं, सदा एकरस रहे, उस राम की भत्तिफ़ करो-‘ताते सेइये यदुराई।’ संपत्ति हो या विपत्ति, इसपर विश्वास नहीं करो कि यह सदा रहनेवाला है।
वह परम प्रभु परमात्मा कहाँ है और कहाँ नहीं है? वह सर्वत्र है। जब कौरवों की सभा में द्रौपदी की साड़ी खींची जा रही थी, तो बेचारी विलख-विलखकर रो रही थी। करुण-क्रन्दन करती हुई वह भगवान को पुकारने लगी-
दुःख हरो द्वारिका नाथ शरण में तेरी ।
बिन काज आज महाराज लाज गई मेरी ।।
दुःशासन वंश कुठार महादुःखदाई ।
कर पकड़त मेरी चीर लाज नहीं आई ।।
पाँचो पति बैठे मौन कौन गति होई ।
ले नंदनंदन को नाम द्रौपदी रोई ।।
करि करि विलाप संताप सभा में तेरी ।
दुःख हरो द्वारिका नाथ शरण में तेरी ।।
भत्तफ़ के पुकारने में देर होती है, भगवान के पधारने में नहीं। द्रौपदी की करुण पुकार भगवान सुनते हैं और उसकी साड़ी बढ़ने लग जाती है। दुःशासन के भुजा में दस हजार हाथियों का बल था। साड़ी खींचते-खींचते उसकी भुजा का बल समाप्त हो गया; लेकिन साड़ी समाप्त नहीं हुई। साड़ी का पहाड़ लग गया। द्रौपदी की प्रतिष्ठा बच गई।
महाभारत के युद्ध में कौरवों का विनाश हुआ, पाण्डवों की जीत हुई। युधिष्ठिर महाराज राजगद्दी पर बैठे और निष्कंटक राज्य करने लगे। एक दिन भगवान श्रीकृष्ण ने कुन्ती से कहा- “ जिस काम के लिए मैं आया था, वह काम पूरा हो गया, अब हमको जाने की आज्ञा दीजिए।” द्रौपदी के साथ पाँचो भाई पाण्डव वहाँ बैठे थे। द्रौपदी ने कहा- “ केशव! सब काम तो आपने अवश्य किया; लेकिन कौरवों की सभा में जब मेरी पूरी फजीहत हो गई, तब आपने हमारी रक्षा की।” भगवान कृष्ण ने कहा- “ द्रौपदी! उसमें तुम्हारा दोष है या मेरा?” द्रौपदी ने कहा- “ दुःशासन ने जैसे ही मेरी साड़ी पकड़ी, वैसे ही मैंने आपको पुकारना शुरू किया; लेकिन आप देर से आये।” भगवान कृष्ण ने कहा- “ देखो, द्रौपदी! दूसरे का छोटा-सा दोष लोग बहुत बड़ा बनाकर देखते हैं और अपना बहुत बड़ा दोष रहने पर भी उसको बहुत छोटा मानते हैं।”
देखि कै परदोष रज सम, कहत गिरि सम सोइ रे ।
दोष अपने मेरु सम है, तिन्हें राखत गोइ रे ।।
द्रौपदी ने कहा- “ मेरा क्या दोष है, आप बतला दीजिए?” भगवान कृष्ण ने कहा- “ तुम मुझको यह कहकर पुकार रही थी- “ दुःख हरो द्वारिकानाथ शरण में तेरी।” तो द्वारिका से दिल्ली आने में देर लगेगी कि नहीं, तुम्हीं बतलाओ? और जब तुमने कहा कि “ हृदयेश! मेरी रक्षा करो, तो हृदयेश कहते ही मैं तेरी साड़ी में प्रवेश कर गया। दुःशासन का बल शेष हो गया, तुम्हारी साड़ी निःशेष रह गई।”
विचारणीय विषय है कि जो हमारी रक्षा के लिए दूर से आएँ और देर से आएँ, हम उनकी पुकार करें अथवा जो हमारे अंग-संग हर वत्तफ़ मौजूद रहते हैं, उनकी? सन्त प्रवर सूरदासजी ने सब-उर-पुरवासी निरंजन राम के लिए माधव शब्द का प्रयोग किया है। मा = माया, धव = पति। माधव = माया-पति। साथ ही, उन्होंने उस कृपासिन्धु प्रभु से भवसिन्धु पार करने की प्रार्थना की है। जैसे समुद्र में जल होता है, उसमें लहर होती है, ग्राह-मछली आदि जीव-जन्तु होते हैं। उसी प्रकार भवसागर में क्या जल है, क्या तरंग है, क्या मगर-मछलियाँ आदि जीव-जन्तु हैं, भव में पड़े जीव की कैसी दयनीय दशा होती है तथा जग-उदधि पार करने में क्या-क्या विघ्न हैं, किन-किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है प्रभृति बातों का उन्होंने अपने एक पद्य में सजीव चित्र-चित्रित किया है। यथा-
अबके माधव मोहि उधारि ।
मगन हौं भव-अंबु-निधि में, कृपा सिन्धु मुरारि ।।
नीर अति गंभीर माया, लोभ लहरि तरंग ।
लिये जात अगाध जल में, गहे ग्राह अनंग ।।
मीन इन्द्रिय अतिहि काटत, मोट अघ सिर भार ।
पग न इत उत धरन पावत, उरझि मोह सेंवार ।।
काम क्रोध समेत तृष्णा, पवन अति झक झोर ।
नाहिं चितवन देत तिय सुत, नाक नौका ओर ।।
थक्यो बीच बेहाल विहवल, सुनहु करुणा मूल ।
स्याम भुज गहि काढ़ि डारहु, ‘सूर’ ब्रज के कूल ।।
यह संसार माया का महासागर है। इससे निकलना सामान्य बात नहीं। जबतक प्रभु-कृपा नहीं होगी, निकल नहीं सकते। प्रभु की कृपा कब होती है? प्रभु को याद करने से। जब हम प्रभु को याद करेंगे, तो वह प्रभु तक जाएगी, उधर से वह दया बनकर आएगी। उनकी दया मिल जाने से सब कुछ हो सकता है। संतमत बतलाता है कि एक ईश्वर पर विश्वास करो। उस ईश्वर की प्राप्ति अपने अन्दर होगी, इसका दृढ़ निश्चय रखो। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है-
एक भरोसो एक बल, एक आस विस्वास ।
एक ईश्वर की भत्तिफ़ करो। जैसे वृक्ष की जड़ में पानी डालने से समूचा वृक्ष हरा-भरा हो जाता है, फूलने-फलने लग जाता है, उसी तरह एक ईश्वर की भत्तिफ़ में सबकी भत्तिफ़ हो जाती है। संत कबीर साहब की वाणी है-
अछै पुरुष एक पेड़ है, निरंजन वाकी डार ।
तिरदेवा शाखा भये, पात भया संसार ।।
संत सूरदासजी ने भी एकेश्भरवादी बनने की सीख दी है और त्रिगुण के परे निर्गुण को पकड़ने की प्रेरणा दी है; यथा-
ब्रह्म कुलाल रचे बहु भाजन,
कर्मन के वश मोहि न भावै।
विष्णुहि संकट आय पड़े,
गर्भ काहुक रक्षक काहु सतावै ।।
संकर भूत पिशाचन के पति,
हाथ कपाल लिये बिललावै ।
ताहिते सुन्दर तिरगुन त्यागि,
सो निर्गुण एक निरंजन ध्यावै ।।
हजरत मुहम्मद साहब ने कहा- “ एक ईश्वर विश्वासी बनो, बहुदेव उपासी मत बनो।”
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण का वचन है- “ अव्यभिचारिणी भत्तिफ़ करो।” जो पतिव्रता नारी होती है, वह एक पति को भजती है। उसी तरह जो सच्चे भत्तफ़ होते हैं, वे एक ईश्वर को पकड़कर रखते हैं, ईश्वर उनकी रक्षा करते हैं। कुरान शरीफ अलबकरा सूरा-2, पारा-3 में लिखा है- “ जो अल्लाह पर ईमान लाते हैं, तो अल्लाह उनकी रक्षा करते हैं, सहायता करते हैं और उनको अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाते हैं।” भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-योगक्षेमं वहाम्यहम्। मैं अपने भत्तफ़ों का योगक्षेम करता हूँ-क्या चाहिए, वह जुटा देता हूँ और जो देता हूँ, उसकी रक्षा भी करता हूँ। इस सम्बन्ध में एक उपदेश-प्रद अतिरोचक कहानी मुझे याद आती है-
एक बार यूनान का बादशाह बीमार हुआ। बहुत चिकित्सा करने पर भी रोग आराम नहीं हुआ। उन्होंने अपने हकीमों से कहा- “ मैं इतने दिनों से तुमलोगों की परवरिश करता रहा हूँ और तुमलोग मुझे रोग-मुत्तफ़ नहीं कर सकते! तुम्हें पालने-पोसने से क्या लाभ हुआ?” हकीमों ने कहा- “ जहाँपनाह! इसके लिए जो औषधि है, वह मिलनी बहुत कठिन है। इसलिए हमलोग हमलोग उपाचार करने में लाचार हैं।” बादशाह ने कहा- “ बताओ, क्या औषधि है? सारे संसार से छानकर लायी जाएगी।” हकीमों ने उत्तर दिया- “ एक ग्यारह साल के स्वस्थ, अमुक-अमुक गुणधारी लड़के का कलेजा निकालकर उससे तेल बनाना पड़ेगा। उसी तेल से आप रोग-मुक्त हो सकते हैं।”
बादशाह ही ठहरे, अपने लोगों को उस तरह का लड़का खोजने के लिए राज्य भर में भेज दिया। यह भी कह दिया कि उसके माँ-बाप जितने पैसा लेना चाहें, दे देना। कहावत है-खोजने से खुदा मिलते हैं, फिर आम आदमी क्यों नहीं मिलेगा। वैसा ही लड़का मिल गया। उसके माँ-बाप ने पैसे लेकर उस लड़के को राजा के आदमियों के हवाले कर दिया। लड़के को दरबार में लाया गया। बादशाह ने हकीमों से पूछा- “ आपलोग जैसा चाहते थे, यह लड़का वैसा ही है न?” उन लोगों ने कहा- “ हाँ, ठीक है।” बादशाह ने काजी को बुलाकर पूछा- “ मेरी जान बचाने के लिए इस लड़के की जान ली जा सकती है?” काजी ने उत्तर दिया- “ आप देश के बादशाह हैं। आपकी जान बचाने के लिए कई जानें भी चली जाएँ, तो अनुचित नहीं है।” काजी ने लड़के को मारने का फतवा (आदेश) दे दिया। जल्लाद बुलाया गया। जल्लाद हाथ में तलवार उठाकर उसे मारने के लिए ज्यों ही तैयार हुआ, वैसे ही लड़का आसमान की ओर देखते हुए ठठाकर हँस दिया। बादशाह ने जल्लाद को संकेत किया कि तलवार रोको, तलवार रुक गई। बादशाह ने उस लड़के से पूछा- “ तुम अपने माता-पिता से बिछुड़ गये हो और अभी तुरन्त तुम्हारी जान जानेवाली है, फिर भी तुम हँस रहे हो, इसका क्या कारण है?” लड़के ने कहा- “ मेरी जान जाएगी, आपकी जान तो बचेगी न! आप अपना काम कीजिए।” राजा के पुनः आग्रह करने पर लड़के ने कहा- “ मैंने सुना था कि बाल-बच्चे माँ-बाप के कलेजे होते हैं। बच्चे के लिए अपनी जान देते हैं; लेकिन दुनिया के माँ-बाप कैसे होते हैं, यह मैंने देख लिया कि उन्होंने चाँदी के चंद टुकड़ों के लिए मुझे बेच दिया। सुना था कि राजा प्रजा के माता-पिता होते हैं। दुनिया के राजा को भी मैंने देख लिया, जो अपनी जान बचाने के लिए एक निरीह, गरीब बच्चे की जान लेने को तैयार हैं। यह भी सुना था कि काजी का न्याय सच्चा होता है, आज मैंने काजी के न्याय को भी देख लिया। अब ऐ अल्लाह परवरदीगार! दीन-दुखियों के मालिक! अब तुम्हारा न्याय मुझे देखना है कि तुम क्या करते हो? लड़के के तथ्यपूर्ण उपदेशमय वाक्य को सुनकर बादशाह का दिल पिघल गया। अपनी गद्दी से नीचे उतरकर उसने लड़के को गले से लगाते हुए कहा- “ तुमने मेरी आँखें खोल दीं। जाओ, तुम्हें मुत्तफ़ कर दिया गया।” प्रभु-अनुकम्पा से बादशाह भी धीर-धीरे रोगमुत्तफ़ हो गया। संतमत बतलाता है कि एक ईश्वर पर अचल विश्वास और पूर्ण भरोसा रखना चाहिए। साथ ही अपने अन्तर में उनकी प्राप्ति के लिए सदाचार- समन्वित होकर भत्तिफ़ करनी चाहिए।
गुरुदेव एक कथा कहा कहते थे- “ एक राजा था। वह इतना बड़ा लोभी था कि समुद्र पर उसने चढ़ाई कर दी। जब राजा ने बम-वर्षा करना प्रारंभ किया, तो समुद्र ने प्रकट होकर पूछा-आपको क्या चाहिए? राजा बोले- “ इतने अधिक जल से तुम मेरे राज्य को ढँके हुए हो, तुम हमें कर दो।” समुद्र ने कहा- “ वहाँ पर गड्ढा है, उससे जितना धन चाहो, ले जाओ।” राजा उस गड्ढे से धन निकलवाने लगा। धन निकालते-निकालते उसके कितने वाहन समाप्त हो गये, कितनी गाड़ियाँ टूट गईं। धन से मकान-पर- मकान भरता जाता, पर खजाना खाली ही नहीं होता। राजा ने फिर बम-बरसाना शुरू किया। समुद्र फिर प्रकट हुआ और कहा-अब क्यों बम-वर्षा कर रहे हो? राजा ने कहा- “ तुमने जो खजाना दिया है, यह तो खत्म होता ही नहीं है और धन से हमारा मकान-पर- मकान भरता जा रहा है। यह धन कैसे खत्म होगा?” समुद्र ने एक मनुष्य की खोपड़ी दी और उसमें धन रखने को कहा। राजा उसमें धन रखने लगा। खोपड़ी तो छोटी थी; किन्तु ऐसी विचित्र थी कि कितना भी धन उसमें रखा जाय, पर वह भरता ही नहीं था। राजा ने पुनः समुद्र पर बम-बरसाना शुरू कर दिया। समुद्र प्रकट होकर बोला-अब क्यों व्यर्थ हिंसा करते हो? राजा ने समुद्र से खोपड़ी भरने का उपाय पूछा। समुद्र ने कहा- “ यह मानव की खोपड़ी है। यह धन से कभी नहीं भरती है, इसमें एक चुटकी मिट्टी डाल दो, भर जाएगा।” संत कबीर साहब ने कहा है-
कबीर औंधी खोपड़ी, कबहु अघावै नाहिं।
तीन लोक की सम्पदा, कब आवै घर माँहि।।
जब बर्तन सीधा रहता है, तो उसमें जो डाल दीजिए, वह भर जाता है, पर जो बर्तन उल्टा है, उसमें कितना भरिएगा?
गोधन गजधन वाजिधन, और रतनधन खान।
जब आवे संतोष धन, सब धन धूर समान।।
यह संतोष-धन कब आएगा? जबतक राम का भजन, भगवद्भजन नहीं करेंगे, कामनाओं का अन्त नहीं होगा।
राम भजन बिनु मिटहिँ कि कामा ।
थल बिहीन तरु कबहुँ कि जामा ।।
सूरदास जी महाराज कहते हैं- “ लोभ लहरि तरंग” और साथ ही- “ लिये जात अगाध जल में गहे ग्राह अनंग।” कामदेव रूपी ग्राह ने ग्रस लिया है और निगलने को ही है। फिर भी हमारी क्या हालत है? गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-
लील चुका अहि मेढ़कन, मूढ़ रहा सो लेय ।
तुलसी मूरख मेढ़कन, मसाखान चित्त देय ।।
एक नवेला है, उसने एक साँप को पकड़ रखा है। साँप ने एक मेढ़क को पकड़ रखा है। मेढ़क का आधा हिस्सा साँप के पेट में चला गया है और उसका सिर बचा हुआ है। अब भी जो कीड़े-मकोड़े और फतिंगे सामने आते हैं, मेढ़क उसे टप से खा जाता है। मेढ़क यह नहीं समझता है कि हम स्वयं दूसरे के पेट में चले गये हैं। उसी तरह हमलोगों के जीवन का जितना अंश समाप्त हो गया, उतना तो कालरूप साँप के पेट में चला गया है और जो बाकी बचा हुआ है, उसमें भी हाय-हाय करते हैं। समुद्र में जल रहता है, उसमें जीव-जन्तु भी रहते हैं। बड़ी-बड़ी मछलियाँ रहती हैं। सूरदास जी महाराज कहते हैं-
मीन इन्द्रिय अतिहि काटत, मोह अघ सिर भार ।
पग न इत उत धरन पावत, उरझि मोह सेंवार ।।
हमारी जो इन्द्रियाँ हैं, वे इन्द्रिय ही मछलियाँ हैं। जिस तरह नदी में कोई लाश रहती है, तो मछलियाँ उसे नोच-नोचकर खाती हैं, उसी तरह हमारी जो इन्द्रियाँ हैं, विषयों की ओर जाती हैं और ग्रहण करती हैं। हमारी आत्म-शत्तिफ़ इससे दिन-प्रतिदिन क्षीण होती चली जाती है। हम जानते हैं कि यह पाप है और उसे नहीं करना चाहिए, फिर भी हम उसको करते हैं। इस तरह सिर पर पाप का बोझ लेते हैं।
भगवान श्रीकृष्ण दुर्योधन को समझाने के लिए गये। उन्होंने कहा- “ पाण्डवों का हिस्सा उन्हें दे दो और तुम उसका पूरा हिस्सा नहीं दे सकते हो, तो कम-से-कम पाँच भाई हैं, पाँच गाँव ही दे दो।” दुर्योधन ने कहा-सूच्यग्रं नैव दास्यामि बिना युद्धेन केशव । हे केशव! बिना युद्ध के मैं सूई की नोक के बराबर भी जमीन नहीं दूँगा। भगवान श्रीकृष्ण ने उनको समझाया कि कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य क्या है, धर्म-अधर्म क्या है, इसको भी तो समझो। दुर्योधन ने उत्तर दिया-
जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्तिः
जानामि अधर्मं न च मे निवृत्तिः।
केनाऽपि देवेनहृदिस्थितेन यथा
नियोक्तोऽस्मि तथा करोमि।।
हे केशव! आप मुझको धर्म और अधर्म की बात समझाते हैं। क्या मैं धर्म-अधर्म की बात नहीं जानता? मैं धर्म को जानता हूँ; लेकिन मेरी प्रवृत्ति उस ओर नहीं है। मैं अधर्म को भी जानता हूँ; लेकिन उस ओर से मेरी निवृत्ति नहीं है। कोई देवता मेरे भीतर बैठा हुआ है, वह मुझको जैसा कहता है, वैसा मैं करता हूँ। विवेकी जन समझ सकते हैं कि दुर्योधन के भीतर देवता बैठा था या राक्षस। संत सूरदासजी आगे कहते हैं-
पग न इत उत धरन पावत, उरझि मोह सेंवार ।
अब पैर आगे रखना चाहता हूँ, पर वह मोह के सेंवार में फँस जाता है और मैं चल नहीं पाता हूँ।
काम क्रोध समेत तृष्णा, पवन अति झक झोर ।
नाहिं चितवत देत तिय सुत, नाक नौका ओर ।।
समुद्र में लहरें उठती हैं। इस संसार रूपी समुद्र में लहरें क्या हैं? काम-क्रोधादि विकार लहरें हैं। कभी काम के विकार, तो कभी क्रोध के विकार सताते हैं और कभी अन्दर राग की आग जलाती है। यह काम क्या है? गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने लिखा है-
को जग काम नचाव न जेहि?
ऐसा कौन है, जिसको काम ने नचाया नहीं? श्रीमद्भागवत में कथा आई है। व्यासदेवजी श्रीमद्भागवत लिखते थे और उनके शिष्य जैमिनी उसको देखते थे। व्यासदेवजी ने एक जग लिखा-
बलवान् इन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति।
इन्द्रियाँ इतनी बलवती होती हैं कि वे विद्वानों को भी आकर्षित कर लेती हैं। जब जैमिनी ने यह पढ़ा, तो उन्होंने कहा- “ गुरुदेव! यह बात सही मालूम नहीं पड़ती। यहाँ पर होना चाहिए-
बलवान् इन्द्रियग्रामो विद्वांसं नापि कर्षति।
बलवान् इन्द्रियाँ विद्वानों को आकर्षित नहीं करती हैं।” व्यासदेवजी ने सोचा कि अगर इसको अभी समझाता हूँ, तो यह समझेगा नहीं। इसलिए किसी विशेष तरीके से इसको समझाया जाना चाहिए। व्यासदेव ने कहा- “ अच्छा जी, तुम अभी देखो, मैं इसपर बाद में सोचूँगा। अभी जरा घूमने जाता हूँ। व्यासदेवजी जंगल घूमने चले गए। उन्होंने एक लीला रची। देखते-ही-देखते आँधी-तूफान के साथ घनघोर वर्षा होने लगी। एक नवयुवती वर्षा मे भींगती हुई व्यासदेवजी की कुटिया के बरामदे पर आकर ख्ाड़ी हो गयी। बेचारी जाड़े से काँप रही थी। जैमिनी ने कहा- “ अरे! तू बाहर क्यों भींग रही है, भीतर चली जाओ।” युवती ने कहा- “ नहीं, मैं भीतर नहीं जाऊँगी, बाहर ही रहूँगी।” जैमिनी ने कहा- “ क्यों, क्या बात है?” युवती ने कहा- “ मुझे पुरुषों पर विश्वास नहीं होता।” जैमिनी ने कहा- “ क्या तुम मुझे नहीं जानती हो? अठारह पुराणों के रचनाकार व्यासदेवजी हैं, वे जो लिखते हैं, मैं उसको देखता हूँ। तुम भीतर आ जाओ।” युवती भीतर आ गई; लेकिन उसके रूप-लावण्य को देखकर जैमिनी उसपर मुग्ध हो गए और उससे कहा कि तुम मुझसे विवाह कर लो। युवती ने उत्तर दिया- “ मेरा विवाह हुआ तो नहीं है, मेरी भी इच्छा विवाह करने की है। आप जैसे बड़े विद्वान से शादी हो जाय, तो मेरा अहोभाग्य होगा; लेकिन हमारी एक कुल-परंपरा है कि जब लड़की का विवाह होता है, तो थोड़ी देर के लिए लड़का घोड़ा बनता है और लड़की उसकी पीठ पर सवार होकर देवपूजन करने के लिए मंदिर जाती है। अगर आपको मुझसे विवाह करना है, तो आप भी घोड़ा बन जाइए और मैं आपकी पीठ पर चढ़न्न्ँगी। पास ही देव-मंदिर है, वहाँ जाकर प्रणाम कर हम दोनों चले आयेंगे, तब शादी हो जाएगी।”
जैमिनी ने सोचा कि यहाँ जंगल में तो कोई है नहीं, कौन देखेगा, थोड़ी देर के लिए घोड़ा ही बन जाएँ। वे घोड़ा बन गये और लड़की पीठ पर चढ़ गई। वर्षा समाप्त हो गई थी। मंदिर में देव-पूजन के लिए दोनों चले। वहाँ मंदिर के बरामदे पर व्यासदेव जी बैठे थे। दोनों को देखकर उन्होंने कहा- “ कहो बेटा! क्या हाल-चाल है? मैंने जो लिखा है-‘बलवान् इन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति।’ यह सही है कि तुमने जो लिखा- विद्वांसं नापि कर्षति, वह सही है? इन्द्रियाँ हमारी इतनी बलवती हैं कि कब कहाँ ले जाएँगी, कोई ठिकाना नहीं है। कबीर साहब ने कहा है-
मन पाँचो के बस पड़ा, मन बस नहिं पाँच ।
अपने-अपने स्वाद में, सभी नचावै नाच ।।
सभी इन्द्रियाँ हमको नचा रही हैं। सूरदासजी महाराज कहते हैं-
थक्यो बीच विहाल विह्वल, सुनहु करुणा मूल ।
स्याम भुज गहि काढ़ि डारहु, ‘सूर’ ब्रज के कूल ।।
अब तो मैं किनारे आ गया हूँ, आप बाँह पकड़कर मुझको निकाल लीजिए। त
यह प्रवचन अखिल भारतीय संतमत-सत्संग के 91वें वार्षिक महाधिवेशन, कटिहार में दिनांक 8-4-2002 के अपराह्णकालीन सत्संग में हुआ था।
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सृष्टि की ओर दृष्टि करने से परम प्रभु परमात्मा की अनंतता की परिपुष्टि हो जाती है। प्रभु ने जड़ और चेतन; दो प्रकार की सृष्टि की है। इन दो प्रकार की सृष्टियों में-अंडज, पिंडज, उष्मज और अंकुरज; ये चार खानियाँ हैं और इनके अंदर चौरासी लाख प्रकार की योनियाँ हैं। भगवान श्रीराम कहते हैं-
अखिल विश्व यह मम उपजाया।
सब पर मोहि बराबर दाया।।
अर्थात् समस्त सृष्टि का सृजनकर्ता मैं हूँ और सब प्राणियों पर मेरी दया समरूप से है। पुनः उन्होंने कहा-
सब मम प्रिय सब मम उपजाये।
सबसे अधिक मनुज मोहि भाये।।
यद्यपि सारी सृष्टि की रचना हमने की है और सभी मुझे प्रिय है, तथापि मानव मुझे सबसे अधिक प्रिय हैं। हम देखते हैं कि मानवीय सृष्टि में भी प्रतिदिन लाखों-करोड़ों की संख्या में लोग जन्म लेते और मरते है। किन्तु हम उनमें किसी की जयन्ती या पुण्यतिथि नहीं मनाते। आज हमलोग वैशाख शुक्ल चतुर्दशी के अवसर पर जिनकी जयंती मनाने के लिए यत्र-तत्र से यहाँ एकत्र हुए हैं, वे भी मानव ही थे। फिर उनमें ऐसी कौन-सी विशेषता रही कि हमलोग उनकी जयंती मना रहे हैं? वे मानव तो अवश्य थे; लेकिन मानव में भी महामानव थे। महामानव ही नहीं, वे तो नररूप में हरि थे। हरि ही नहीं, हरि से भी कुछ विशेष थे; क्योंकि वे संत थे। श्रीहरि ने अपने श्रीमुख से नवधा भक्ति का उपदेश करते हुए परमभक्तिन शबरी से कहा था-
सातवँ सम मोहिमय जग देखा।
मोतें संत अधिक करि लेखा।।
हरि कह रहे हैं-हमसे विशेष संत हैं। चैत्रशुक्ल नवमी को हमलोग भगवान श्रीराम की जयन्ती मनाते हैं और भाद्रकृष्ण अष्टमी को श्रीकृष्ण की जयंती मनाते हैं। किन्तु जो हरि से भी विशेष हैं अर्थात् संत- उनकी जयंती क्यों न मनायी जाए। इसी हेतु हमलोग यहाँ एकत्र हुए हैं। मैं कहना चाहूँगा कि वे संत ही नहीं थे, बल्कि संत से भी एक डेग आगे बढ़े हुए थे। आप कहेंगे, सो कैसे? जो सत्यस्वरूप, शांतिस्वरूप सर्वेश्वर का साक्षात्कार किये हुए होते हैं, उनको संत कहते हैं। उन महापुरुषों में से ही कोई हमको सद्ज्ञान, सद्शिक्षा के साथ-साथ सद्दीक्षा भी देते हैं। वे हमारे सद्गुरु होते हैं। हमारे गुरुदेव परम पूज्य महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज संत ही नहीं, बल्कि संत सद्गुरु थे। उनके ही वाक्यों में हम कह सकेंगे- “ जीवनकाल में जिनकी सुरत सारे आवरणों को पार कर शब्दातीत पद में समाधि-समय लीन होती है और पिंड में बरतने के समय उन्मुनी रहनी में रहकर जिनकी सुरत सारशब्द में लगी रहती है, ऐसे जीवन-मुक्त परम सन्त पुरुष पूरे और सच्चे सद्गुरु कहे जाते हैं।”
जिन मर्यादापुरुषोत्तम भगवान श्रीराम की भगवान श्रीकृष्ण की हम पूजा करते हैं, उन्होंने भी गुरु धारण किया था। भगवान श्रीराम के दो गुरु थे और भगवान श्रीकृष्ण के भी दो गुरु थे। भगवान श्रीराम के लौकिक शिक्षा देनेवाले गुरु विश्वामित्र जी थे और पारलौकिक या आध्यात्मिक शिक्षा देनेवाले गुरु ऋषि वशिष्ठ जी थे। इसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण के लौकिक गुरु संदीपन मुनि थे और आध्यात्मिक गुरु गर्ग मुनि थे। भगवान श्रीराम, भगवान श्रीकृष्ण ने गुरु की इतनी मर्यादा दी, जिनसे विशेष अन्य किसी की नहीं। उदाहरणार्थ-
जब रावण वध कर, सीताजी का उद्धार कर मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम अयोध्या आते हैं, तो माता कौशल्या उनको अपनी गोद में बैठा लेती है और उनके अंगों को सहलाती हुई प्यार भरे शब्दों में पूछती हैं-बेटा! तुम्हारा शरीर कमल से भी अधिक कोमल है और वह रावण तो दुर्दान्त राक्षस था, उसके डर से तीनों लोक काँपते थे; तुमने उसपर कैसे विजय प्राप्त की। भगवान श्रीराम अपने गुरु वशिष्ठजी की दुहाई देते हुए कहते हैं-
गुरु वसिष्ठ कुल पूज्य हमारे।
तिनकी कृपा दनुज रन मारे।।
उन वशिष्ठजी का ज्ञान, गर्ग मुनि का ज्ञान भारत में है। लेकिन जिनकी जयंती मनाने के लिए आज हमलोग समवेत हुए हैं, उनके ज्ञान का प्रचार अमेरिका, इंग्लैंड, रूस, जापान, नार्वे, स्वीडेन, आस्ट्रेलिया, नेपाल आदि विभिन्न देशों में हो रहा है, आज हमलोग ऐसे जगद्गुरु की जयन्ती मना रहे हैं। कुछ लोग कहते हैं कि वे भी तो नर ही थे। वास्तव में वे नर ही थे। लेकिन जरा अब विचार करके देखिए, जितनी नदियाँ हैं, सभी नदियों में जल है और गंगाजी में भी जल है, तो क्या हम गंगाजी की तुलना किसी नदी से कर सकते हैं? जितने पक्षी हैं, सभी आकाश में उड़ते हैं; गरुड़ भी आकाश में उड़ता है, क्या गरुड़ की तुलना हम इन पक्षियों से कर सकते हैं? दुनिया में कागों की कमी नहीं है, काग भी पक्षी ही है; लेकिन कागभुशुण्डि भी तो पक्षी ही थे, जिनके यहाँ भगवान शंकर जाकर सत्संग करते थे। क्या उन कागभुशुण्डि से इन कागों की तुलना की जा सकती है? जितनी गौएँ हैं, सब दूध देती हैं; कामधेनु भी दूध देती है, तो क्या कामधेनु की तुलना सामान्य गायों से की जा सकती है? जितने वृक्ष हैं, सभी वृक्ष फल देते हैं और कल्पवृक्ष भी फल देता है, तो क्या कल्पवृक्ष से अन्य वृक्ष की तुलना की जा सकती है? अर्थात् नहीं की जा सकती है। उसी तरह गुरुदेव नररूप में थे, पर क्या वे सामान्य नर थे? कदापि नहीं। उन्होंने हमलोगों को संतमत की सीख दी। भगवान श्रीराम ने ही नहीं कहा कि संत को मुझसे विशेष मानो, बल्कि इस संदर्भ में संत पलटू साहबजी महाराज का विचार भी पठनीय है-
सबसे बड़े हैं संत दूसरा नाम है।
तीजे दस अवतार तिन्हें परनाम है।
ब्रह्मा विष्णु महेश सकल अवतार है।
अरे हाँ रे पलटू सबके ऊपर संत मुकुट सरदार है।
किसी ने लगे हाथ उनसे पूछ दिया कि भगवान राम त्रेतायुग में हुए थे और आप कलियुग में हुए हैं। भगवान श्रीराम ने कहा-संत सबसे बड़े हैं और आप भी ऐसा ही कहते हैं। भगवान श्रीराम और आप दोनों ही अयोध्या में अवतरित हुए हैं। कहीं उनकी हाँ में हाँ मिलाने के लिए तो आपने ऐसा नहीं कह दिया? संत पलटू दासजी महाराज ने उत्तर दिया-यह तो सत्य तथ्य है। केवल मैं नहीं कह रहा हूँ, सभी संत कह रहे हैं। संतों ने जो कुछ कहा, वह अँधेरे में टटोलकर नहीं कहा है। ज्ञान-ध्यान के प्रकाश में देखकर कहा है। किस प्रकार? वह भी सुनिए-
बड़ा होय तेहि पूजिये, संतन किया बिचार ।।
संतन किया बिचार, ज्ञान का दीपक लीन्हा ।
देवता तैंतिस कोट, नजर में सबको चीन्हा ।।
सबका खंडन किया, खोजि के तीनि निकारा ।
तीनों में दुइ सही, मुत्तिफ़ का एकै द्वारा ।।
हरि को लिया निकारि, बहुरि तिन मंत्र बिचारा ।
हरि हैं गुन के बीच, संत हैं गुन से न्यारा ।।
पलटू प्रथमै संत जन, दूजे हैं करतार ।
बड़ा होय तेहि पूजिये, संतन किया बिचार ।।
संतों के ज्ञान के प्रकाश में तैंतीस करोड़ देवता को देखा। उन तैंतीस करोड़ देवताओं में उन्होंने-ब्रह्मा, विष्णु और महेश को खोजकर तीन निकाला। अब ये तीनों पर नजर डालते हैं। तो देखते हैं कि इन तीनों में द्वैत भाव है। मुक्ति का रास्ता एक ही है। जिस हरि ने, जिस राम ने संत की महिमा गायी है, उसके संबंध में ये कह रहे हैं-‘हरि को लिया निकारि।’ अर्थात् तीनों में से चुनकर एक हरि को निकाला। जब इसपर विचार करने लगे, तो क्या देखा? हरि त्रयगुण यानी-रज, सत् और तम के अंदर हैं। रज=उत्पन्न करना, सत्त्व=पालन करना और तम= संहार करना अर्थात् ये जन्म लेते हैं, कुछ दिन ठहरते हैं और कारण का निवारण कर चले जाते हैं। यानी हरि आवागमन के चक्र में हैं। लेकिन संत आवागमन से मुक्त होते हैं। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं-
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।।7।।
हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं अपने को प्रकट करता हूँ।
परित्रणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ।।8।।
क्योंकि साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए और दूषित कर्म करनेवालों का नाश करने के लिए तथा धर्म की स्थापना करने के लिए युग-युग में प्रकट होता हूँ। कोई जिज्ञासा कर सकते हैं कि सत्य युग में ही मच्छ, कच्छ, वराह, नृसिंह आदि कई अवतार हो गये, फिर भी भगवान के ‘युगे-युगे’ कहने का क्या अर्थ है? यहाँ युगे-युगे का अर्थ है- समय-समय पर। इसका स्पष्टीकरण गो0 तुलसीदासजी महाराज ने इस प्रकार किया है-
जब जब होइ धरम कै हानी।
बाढ़इ असुर अधम अभिमानी ।।
करइ अनीति जाइ नहिं बरनी।
सीदइ बिप्र धेनु सुर धरनी ।।
तब तब धरि प्रभु विविध सरीरा।
हरहिं कृपा निधि सज्जन पीरा ।।
(रामचरितमानस)
भगवान संसार में आते हैं, तो दुष्टों का संहार करते हैं और सज्जनों का उद्धार करते हैं; लेकिन संत जब संसार में आते हैं, तो वे मार-काट नहीं करते, किसी का संहार नहीं करते, बल्कि दुष्ट की कुवृत्तियों को नष्ट करके उसे शिष्ट बना देते हैं। रावण के संहार के लिए भगवान श्रीराम ने अवतार लिया और कंस के संहार के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने; लेकिन जब भगवान बुद्ध का अवतार हुआ तो उन्होंने अंगुलि- माल जैसे खूँखार लुटेरे की बुराइयों को मिटाकर उसे भिक्षु बना लिया। भगवान महावीर के शिष्य ने अर्जुन नाम के दुर्जन को ज्ञान देकर भक्त बना लिया। अगर आप सत्ययुग की ही बात लेना चाहें, तो उसी युग में एक रत्नाकर नाम के बहुत बड़ा दुर्दान्त डाकू को नारद मुनि ने संत बना दिया। भगवान कभी-कभी आते हैं और संत बराबर आते रहते हैं। संत और भगवंत में यही अंतर है। संत अपने ज्ञान का प्रकाश फैलाकर जाते हैं। उनके ज्ञान को ग्रहण कर, आचरण कर मानव परम प्रभु के परम धाम में चले जाते हैं। उसी परम धाम में जाने के लिए हमारे गुरुदेव ने हमलोगों को शिक्षा-दीक्षा देकर संतमत-रूपी इस फुलवाड़ी का निर्माण किया।
मुझे 1939 ई0 में उनके संपर्क में आने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। तब से मैं बराबर उनके पास आता-जाता रहा। 1946 ई0 से मैं स्थायी रूप से उनकी सेवा में रहने लगा। तब से 8 जून, 1986 ई0 तक (जबतक उनका पार्थिव शरीर रहा) मैं अनवरत रूप से उनके साथ रहा। मैंने देखा है कि उन्होंने किसी तरह से संतमत के प्रचार-प्रसार में खून-पसीना एक किया है। उस समय उनके साथ में केवल एक रसोइया और मैं रहता था। उन दिनों सड़कें नहीं थीं, बैलगाड़ी की लीक थी। बैलगाड़ी पर आगे गुरुदेव बैठते थे, उनकी पीछे उनकी गठरी रहती थी और गठरी के पीछे मैं बैठता था। जाते-जाते जहाँ नदी मिलती थी और स्नान का समय होता था, तो हमलोग नदी में स्नान करते थे। स्नान के बाद सब बैठकर ध्यान करते। ध्यान के बाद नदी के किनारे ही पत्तल में दही-चूड़ा (बिहारी रेडीमेड भोजन) परोसकर भेाजन करने बैठ जाते। उसी समय यदि हवा चल पड़ी, तो बालू उड़कर चीनी बन जाता था। जिस नदी में स्नान करते थे, उसी नदी का पानी भी पीते थे।
नेपाल राज्य के देहातों में पहले लोग खाने की बात तो दूर रही, कपड़ा पहनना तक नहीं जानते थे। वहाँ की महिलाएँ एक साढ़े तीन हाथ का कपड़ा छाती पर बाँध लेती थी। उसकी चौड़ाई घुटने से चार अंगुल नीचे तक होती थी, यही उनका वस्त्र था। पुरुष लोग लज्जा निवारण के लिए विष्टी (लंगोटी) पहनते थे। उस समय नेपाली पहाड़ी नदी में, सावन-भादो के समय बहुत-सी मछलियाँ आती थीं। वे लोग उन्हीं मछलियों को पकड़कर खाते थे। बची हुई मछलियों को सुखाकर और ऊखल में कूटकर गोलियाँ बनाकर रख लेते थे। वैशाख-जेठ में जब नदियाँ सूख जातीं, तो मछली नहीं मिलती थी, उस समय वे उन गोलियों को पकाकर खाते थे। वहाँ जाकर गुरु महाराज ने उनलोगों को खाना-पहनना, पढ़ना-लिखना सिखलाया। अपने शिष्यों की मदद से सत्संगी घर की महिलाओं को वहाँ ले जाकर वहाँ की महिलाओं को साड़ी पहनना सिखलाया। वहाँ के लोगों को शिक्षा भी दी और दीक्षा भी दी। गुरुदेव ने मांस-मछली, अंडा, शराब; सब कुछ छुड़वा दिया और उपदेश दिया कि हिन्दू, मुसलमान, जैन, बौद्ध सिक्ख, ईसाई पीछे बनना, पहले तुम मानव बनना सीखो। विविध धर्मों में से यदि किसी धर्म को तुमने स्वीकार कर लिया है और तुममें मानवता नहीं है-मानवता के अनुकूल चलते नहीं हो, तो तुम इस धर्म को लज्जित करते हो। इसलिए पहले मानव बनो, फिर किसी धर्म को स्वीकार करना।
कोई सज्जन कह सकते हैं-क्या हम मानव नहीं हैं? जरा हम सोच-विचारकर देखें, बिना मानवता के मानव कैसे! लूट-पाट, मार-काट, अत्याचार, अनाचार, दुराचार, व्यभिचार, बलात्कार, झूठ, चोरी, नशा, हिंसा प्रभृति दुष्कर्मों को करना, क्या यही मानवता है? जब हम कुकर्मों को करते हैं, तो हममें मानवता कहाँ है। जब हम काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, चिढ़, द्वेष आदि मनोविकारों से बचकर दया, शील, संतोष, क्षमा, करुणा, नम्रता, उदारता आदि सात्त्विक गुणों को धारण करेंगे, तब हममें मानवता आएगी।
एक साधु बाबा थे। वे दिन के समय मशाल लेकर बाजार में घूम रहे थे। कभी-कभी किसी दुकान में भी चले जाते थे। किसी ने पूछा-‘बाबा! दिन का समय है और आप मशाल जलाकर बाजार में क्यों घूमते हैं, क्या खोजते हैं? साधु बाबा ने उत्तर दिया-‘मैं आदमी की खोज कर रहा हूँ।’ उस व्यक्ति ने पूछा, ‘लाखों आदमी इस बाजार में हैं और आपको एक भी आदमी नहीं दीखता?’ साधु बाबा ने उसके हाथों में मशाल देते हुए कहा, ‘इस मशाल से देखो।’ जब वह उस मशाल से देखने लगा, तो देखता है कि कोई भेड़िया है, तो कोई बाघ, कोई गधा है, तो कोई बैल आदि है। आदमी का नामानिशान नहीं है।
आज भाई-भाई में मेल नहीं है। पिता-पुत्र में मेल नहीं है। पति-पत्नी में वैमनस्य है। एक दूसरे पर विश्वास नहीं है। एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को, एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को दमन करके उनके धन को हड़पना चाहता है। आज हम आधिभौतिक विज्ञान के चमत्कार से चकाचौंध हो रहे हैं। आकाश में पक्षी की तरह उड़ना सीख गये हैं। समुद्र की ऊपरी सतह और भीतरी सतह पर मछली की तरह चलना सीख गये हैं। लेकिन अभी तक हमें मानव की तरह पृथ्वी पर चलना नहीं सीखे हैं। मनुष्य में मनुष्यता कैसे आवे, इसी ज्ञान को बताने के लिए हमारे गुरु महाराज का अवतरण हुआ था।
मननशील प्राणी को मनुष्य कहते हैं। हमलोग दिन-रात मनन करते हैं; लेकिन क्या मनन करते हैं। हम मनन करते हैं-यह हमारी पत्नी है, ये हमारे पति हैं, यह हमारा पुत्र है, यह पुत्री है, ये हमारे पिता हैं, ताऊ हैं, भाई हैं, कुटुम्ब है, परिवार है, दुकान है, मकान है आदि। इस सबको तो हम पहचानते हैं; लेकिन यह नहीं जानते कि हम कौन हैं। एक शायर ने बड़ा अच्छा कहा है-
“ इबादत है किसी नाशाद को फिर शाद कर देना ।
इबादत है किसी बरबाद को फिर आबाद कर देना ।।
यही सीखा है सागर हमने मुर्शद के कदम छूकर ।
खुदा से हो अगर मिलना पता खुद का लगा लेना ।।”
जबतक खुद का पता नहीं मिलेगा, तबतक खुदा का पता नहीं मिलेगा। संत कहते हैं-तुमने कभी खुद का पता लगाया कि तुम कौन हो? क्या तुम शरीर हो? तुम शरीर नहीं हों, यह शरीर तुम्हारा है; लेकिन आजतक शरीर को ही पहचान रहे हो। शारीरिक सुख के लिए जो नहीं करने का वह भी कर रहे हो। एक-न-एक दिन यह शरीर अवश्य छूटेगा, पर तुम तब भी रहोगे भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में बतलाया है-
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही ।।22।।
जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रें को छोड़कर दूसरे नये वस्त्रें को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नये शरीरों को प्राप्त होता है। जैसे व्यक्ति के जीवनकाल में शरीर वही रहता है, सिर्फ कपड़े बदलते हैं। उसी प्रकार जीव (चेतन आत्मा) वही रहता है, शरीररूपी कपड़े छूटते हैं।
नैनं छिन्दन्ति शस्त्रणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ।।23।।
इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, आग नहीं जला सकती, जल गीला नहीं कर सकता और वायु सुखा नहीं सकती। गोस्वामीजी ने लिखा है-
ईस्वर अंस जीव अबिनासी।
चेतन अमल सहज सुखरासी।।
यह जीवन ईश्वर का अंश है, चेतन, मल-रहित और सुख की राशि है। जिस तरह निरंतर बहती हुई नदियाँ अपने नामरूप को त्यागकर समुद्र में जाकर विलीन हो जाती हैं, फिर उसकी संज्ञा नदी की नहीं रहकर समुद्र हो जाती है, उसी तरह यह जीव इस नाम-रूपात्मक संसार में आ गया है। ईश्वरवाची नाम और रूप का अवलंब लेकर नाम रूप से परे हो जाएगा। जीवात्मा परमात्मा को प्राप्त कर परमात्मा ही हो जाएगा। इस साधना की युक्ति किसी सच्चे सद्गुरु से सीखनी चाहिए।
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवः सदाशिवः।
न गुरोरधिकः कश्चिन्त्रिषु लोकेषु विद्यते।। 56।।
दिव्यज्ञानोपदेष्टारं देशिकं परमेश्वरम्।
पूजयेत्परया भक्त्या तस्य ज्ञानफलं भवेत्।। 57।।
यथा गुरुस्तथैवेशो यथैवेशस्तथा गुरुः।
पूजनीयो महाभक्त्या न भेदो विद्यतेऽनयोः।। 58।।
भगवान शंकर ब्रह्मा से कहते हैं-गुरु ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश हैं। तीनों लोकों में गुरु से बढ़कर और कोई नहीं है। ब्रह्मा सृष्टि करते हैं, विष्णु पालन करते हैं और शिव संहार करते हैं। अर्थात् जो गुरु होते हैं, वे अपने शिष्य के अंदर ज्ञान उत्पन्न करते हैं। इसलिए वे ब्रह्मा कहलाते हैं। गुरु जो ज्ञान देते हैं, उसका वे पोषण करते हैं, इसलिए विष्णु कहलाते हैं और शिष्य के अंदर जो दुर्गुण रहता है, उसका वे विनाश करते हैं, इसलिए वे शंकर कहलाते हैं। किन्तु पूरे गुरु ब्रह्मा, विष्णु और महेश से भी बड़े होते हैं।
इसलिए जो संत सद्गुरु हैं, हम उनकी शरण में जाएँ। उनका जो उपदेश हो, आदेश हो, उसके परिवेश में अपने को रखें तो एक-न-एक दिन हमारा भवक्लेश निःशेष होगा। इसमें किसी तरह का संदेह नहीं है। इसके लिए घर-वार, परिवार, रोजगार छोड़ने की आवश्यकता नहीं है। जिस घर-वार, परिवार में आप हैं, पवित्र रोजगार करते हुए भगवद्भजन भी कीजिए। जीवन को पवित्र बनाये रखिए। ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए, जे पीर पराई जाने रे।’ परोपकार के लिए, दूसरे की भलाई के लिए कुछ-न-कुछ अवश्य कीजिए। सत्संग कीजिए, सत्संग से ही सुमति होती है और शुभगति होती है।
इस पावन अवसर पर आपलोग जो यत्र-तत्र से यहाँ एकत्र हुए हैं, आपकी श्रद्धा-भक्ति देखकर मैं बहुत प्रसन्न हूँ, सबको धन्यवाद देता हूँ। आयोजन को सफल बनाने में अखिल भारतीय संतमत-सत्संग महासभा के अधिकारियों के सहित अन्य जिन सज्जनों ने अपना सहयोग प्रदान किया है, सबको मैं धन्यवाद देता हूँ और अंत में सबके लिए मंगलकामना करता हूँ।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन महर्षि मेँहीँ 118वीं जयंती के अवसर पर दिनांक-25-5-2002, स्थान: महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर सत्संग में हुआ था।
(शान्ति-संदेश, सितम्बर 2002 ई0)
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अभी आपलोगों ने रामचरितमानस का पाठ सुना है, जिसमें बतलाया गया है सुख की प्राप्ति कैसे होगी। परमात्मा ने चार खानियों में 84 लाख प्रकार की योनियों का सृजन किया। इन 84 लाख प्रकार की योनियों में मानव शरीर को सर्वश्रेष्ठ बतलाया गया है। सभी प्राणी सुख चाहते हैं, मानव भी सुख चाहता है। सुख क्यों चाहते हैं, प्रश्न चिह्न लगता है। कोई शीतलता क्यों चाहता है, इसलिए कि वह उष्णता, गर्मी महसूस करता है। कोई पानी पीना क्यों चाहता है, इसलिए कि उसे प्यास लगी है। कोई भोजन करना क्यों चाहता है, इसलिए कि उसे भूख लगी है। चाहने का कोई कारण होता है। जितने प्राणी हैं, सब-के-सब सुख चाहते हैं। क्यों चाहते हैं? इसलिए कि उनके जितने जन्म हुए, सभी जीवन में उन्होंने दुःख पाया है। दुःख पाने का मूल कारण शरीर ही है। अगर शरीर नहीं हो तो कोई दुःख न हो, इसलिए संतों ने बतलाया कि जीवन में सुख और दुःख दोनों आते हैं, पर यदि तराजू के दोनों पलड़ों में एक तरफ सुख और दूसरी तरफ दुःख रख दें, तो दुःख का पलड़ा ही भारी होगा। संत कबीर साहब ने कहा है-
हम चाले थे सुख को, बाटहि मिलिया दुख ।
जाओ सुख घर आपने, हम जाने और दुख ।।
बड़े-बड़े राजे-महाराजे भी धरती पर आए, पर सबने दुःख का अनुभव किया। राजा से रंक और कीड़े से हाथी तक संसार में जो आए, जितने आए, सबके सब रोये और दुःखी हुए।
पाँचो भाई पांडव राजपुत्र थे; लेकिन उन्हें दर-दर का भिखारी बनना पड़ा, जंगल का खाक छाननी पड़ी, दूसरे राजा की पराधीनता स्वीकार करनी पड़ी। जिस राजा युधिष्ठिर के यहाँ हजारो नौकर चाकर थे, उन्हें राजा विराट के यहाँ नौकरी करनी पड़ी। जिस भीम की भुजाओं में दस हजार हाथी का बल था, उसने रसोइये का काम किया। जिस अर्जुन के सारथी भगवान श्रीकृष्ण स्वयं बने थे, वे दूसरे के यहाँ बृहण्णला नर्तक बनकर रहे। जिस द्रौपदी के आगे-पीछे दासियाँ आदेश पाने के लिए खड़ी रहती थीं, उन्हें दासी का काम करना पड़ा। द्रौपदी के पाँचो पति बड़े-बड़े महारथी थे, फिर भी कौरवों की भरी सभा में उनकी साड़ी खींची गयी। भगवान श्रीकृष्ण ने उनकी प्रतिष्ठा की रक्षा की। यह इतिहास बतलाता है कि जीवन दुःखों से भरा है।
आज तो हम चाहते हैं कि भगवान के दर्शन हो जाए और यह कि उनके दर्शन से हमारा दुःख दूर हो जाएगा। लेकिन जिनको मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के पिताश्री कहलाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, उनके जीवन को देखिए कि उनको कितना सुख मिला! कहाँ तो पहले जीवन में पुत्रहीनता की ग्लानि थी, बुढ़ापे में पुत्र हुआ भी तो पुत्र से जो सुख-भोग मिलना चाहिए, नहीं मिल सका। वे भगवान श्रीराम को युवराज पद पर प्रतिष्ठित करना चाहते थे, पर उनको जंगल भेजना पड़ा। परिणामस्वरूप पुत्रवियोग का इतना असह्य दुःख हुआ कि वे उसे सहन नहीं कर सके और-
राम राम कहि राम कहि, राम राम कहि राम ।
तनु परिहरि रघुवर विरह, राव गये सुरधाम ।।
पुत्र के वियोग में उन्होंने रोते हुए शरीर छोड़ दिया। ये तो भगवान के पिता की बात हुई। अब हम स्वयं भगवान की ओर देखें। उन्होंने नर-शरीर धारण करके नर-लीला की। भले ही वे सुख-दुःख से परे हैं; लेकिन लोक-दृष्टि में उनको भी दुःख भोगना पड़ा। जब सीताहरण हुआ, तो विकल होकर वन-वन उन्हें खोजते रहे। साधारण जन की पत्नी का अपहरण हो जाए या कहीं खो जाए, तो वह किसी व्यक्ति से पूछेगा कि हमारी पत्नी इस तरह की थी, लंबी थी या नाटी थी, गोरी थी या काली थी, पतली थी या मोटी। हुलिया बतला कर वह पूछेगा कि क्या इस तरह की नारी को आपने देखा है? लेकिन भगवान राम मनुष्य को कौन कहे, चिड़ियों से पूछते हैं, जानवरों और भौंरों से पूछते हैं। स्त्री के विरह में मानो वे पागल-से हो गये थे।
हे खग मृग हे मधुकर श्रेणी।
तुम देखी सीता मृग नयनी।।
इतना ही नहीं जब लक्ष्मणजी को वाण लगता है और वे मूर्च्छित होकर गिर जाते हैं। भगवान राम रोते हैं, बिलखते हैं और कहते हैं-
जौं जनितउँ वन बन्धु बिछोहू।
पिता वचन मनितउँ नहिं ओहू।।
भगवान बुद्ध के समय की बात है। एक धनी और सम्भ्रान्त परिवार की लड़की थी, जिसका नाम पटाचारा था। संयोगवश एक गरीब लकड़हारे के साथ उसका प्रेम हो गया। दोनों अपने-अपने घर से भाग गये और अन्यत्र जाकर विवाह किये तथा अपना जीवन-यापन लकड़ी काटकर करने लगे। समय पाकर वह गर्भवती हुई, तो उसने अपने पति से कहा-‘मैं यहाँ रहूँगी, तो मेरी देखभाल, सेवा-सुश्रूषा नहीं हो पाएगी; इसलिए मैं नैहर जाना चाहती हूँ।’ पति ने कहा-‘नहीं-नहीं, तुम यहीं रहो। मैं तुम्हारी सारी व्यवस्था कर दूँगा।’ लेकिन बेचारा गरीब था, क्या कर पाता! समय आने पर पुत्र हुआ, पर उसकी ठीक तरह से देख-रेख नहीं हुई। समय बीतता गया। फिर दूसरी सन्तान होने का अवसर आया। फिर वह पति से बोली-‘पिछली बार बहुत कष्ट हुआ था। इस बार मुझे नैहर जाने दीजिए।’ पति ने उत्तर दिया-‘पिछली बार तो मैं व्यवस्था नहीं कर पाया था, पर इस बार तुम्हें किसी प्रकार की तकलीफ नहीं होगी। मैं अच्छी व्यवस्था करूँगा।’ बेचारी को पति की बात मानकर रह जाना पड़ा। समय पाकर फिर पुत्र हुआ। लकड़हारा जंगल लकड़ी काटने गया, वहाँ उसे साँप ने डँस लिया। बेचारी प्रतीक्षा कर रही है कि पतिदेव अब आ रहे हैं-अब आ रहे हैं, पर वह जीवित रहे तब तो आए। जब घंटों बीत गए, तब वह येन-केन प्रकारेण पति को ढूँढ़ने के लिए जंगल जाती है। वहाँ पहुँचकर देखती है कि पति तो मरा पड़ा है। वह बेचारी छाती पीटकर रोती है, बिलखती है। क्या करे, कोई उपाय नहीं है। जंगल से आती है और दोनों बच्चों को लेकर चलती है मायके के लिए। शरीर दुर्बल था। प्रसवोपरान्त की वेदना मिटी नहीं थी। रास्ते में एक नदी मिल जाती है। दोनों बच्चों को एक साथ लेकर नदी पार नहीं कर पाती, इसलिए एक बच्चे को इस पार छोड़कर दूसरे को उस पार ले जाती है। उस बच्चे को उस पार में रखकर फिर पहले बच्चे को ले जाने के लिए इस पार आती है। बच्चा देखता है कि माँ आ रही है, तो वह घिसककर आगे बढ़ने लगता है। घिसकते-घिसकते नदी में गिर जाता है। बच्चा नदी में बह जाता है और माँ कुछ नहीं कर पाती है। फिर छाती पीटकर रोने लगती है; परन्तु कुछ भी चारा नहीं, न कोई सहारा। अब वह दूसरे बच्चे के पास लौटना चाहती है, अभी वह आधी नदी में ही थी कि उस नवजात शिशु को एक चील झपट्टा मारकर ले उड़ता है। बेचारी दुःख से विह्वल हो पागल-सी हो गई। कहने लगी-‘पति को साँप ने काट लिया, एक बच्चा नदी में बह गया, दूसरे को चील खा गया।’ इस प्रकार बिलखती हुई जा रही थी। नदी पार कर कुछ आगे पहुँची, तो उसके नैहर के एक सज्जन से उसकी भेंट हुई। उसने उससे अपने माता-पिता का समाचार पूछा। उस सज्जन ने कहा-‘क्या बतलाऊँ, रात में छत गिर गई, जिससे तुम्हारे माता-पिता के साथ परिवार के सभी लोग दबकर मर गए। देखती नहीं, श्मशानघाट से धूआँ उठ रहा है।’ यह सुनकर बेचारी पागल हो गई। न शरीर की सुधि रही, न वस्त्र की। इधर-उधर भटकने लगी। उसी अवस्था में एक दिन वह भगवान् बुद्ध के पास गई, पर भिक्षुओं ने उसको उस अवस्था में देखकर रोक दिया। भगवान् ने कहा-‘उसे आने दो।’ वह आकर भगवान् के चरणों में गिर गई। एक भिक्षुणी ने अपने वस्त्र से उसके शरीर को ढक दिया। वह बड़बड़ाने लगी-‘पति को साँप ने डस लिया, एक बच्चा नदी में बह गया, दूसरे को चील उठाकर ले गया और माँ-बाप छत के नीचे दबकर मर गए।’
भगवान् ने उसको सान्त्वना दिया। उनकी कृपा से उनको अपने शरीर की सुधि हो गई। वह दीक्षित होकर भिक्षुणियों के साथ रहने लगी। साधना करने लगी। एक दिन वह बाल्टी में जल भरकर लोटे से जल निकालकर हाथ-पैर धो रही थी। एक लोटा का जल बहकर जितनी दूर गया, दूसरे लोटे का जल उससे अधिक दूर गया। इस प्रकार कई लोटे के जल को बहते देखकर उसको ज्ञान हुआ कि जिस लोटे में जितना जल रहता है, वह उतनी दूर जाता है। इस प्रकार जिसको जितने दिनों की आयु रहती है, वह उतने दिनों तक संसार में रहता है। मेरे पुत्रें और पितृ परिवारवालों की आयु जितने दिनों की थी, वे उतने दिन संसार में रहे, उसके लिए चिन्ता करना व्यर्थ है। व्यर्थ की चिन्ता से हानि होगी, लाभ नहीं; ऐसा सोच कर वह मनोयोग से अन्तःसाधना करने लगी और एक अच्छी भिक्षुणी हो गई। कितना गिनाया जाए। भगवान श्रीकृष्ण के सामने ही एक दिन में उनके संपूर्ण यदुवंशियों का विनाश हो गया। जिनके वंश का विनाश उनके सामने हो जाए, क्या उसको सुख होगा? इसलिए संत कबीर साहब ने कहा-
तन धर सुखिया काहु न देखा,
जो देखा सो दुखिया हो।
उदय अस्त की बात कहत हों,
सबका किया विवेका हो।
उदय से अस्त तक जितने जो कोई हुए, सबको एक दिन जाना पड़ा। इस संसार का नाम ही है मर्त्य लोक। यहाँ जो आयेंगे, वे अवश्यमेव दुःख उठायेंगे और मरेंगे। संत कबीर साहब जैसे स्पष्टवादी संत ने यहाँ तक कह दिया-
साँच कहूँ तो कोइ न माने, झूठ कहा न जाई हो।
ब्रह्मा विष्णु महेसुर दुखिया, जिन यह राह चलाई हो ।।
जबकि ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर जैसे महान देव इस संसार में दुखिया हो तो फिर इतर लोगों की क्या गिनती है। प्रश्नोदय होता है-तब सुख कैसे मिलता है? संत कबीर साहब उत्तर देते हैं-‘संत सुखी मन जीती हो।’ जिन्होंने अपने मन पर विजय प्राप्त कर लिया है, ऐसे संत ही सुख हो सकते हैं, अन्य कोई सुखी नहीं हो सकते। शरीर या संसार में आना ही सब दुखों का कारण है। ‘पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम्’ होता रहता है। यह जो क्रम चला आ रहा है, इसका निरोध कैसे हो? योगशिखोपनिषद् कहता है-
देहावसान समये चित्ते यद्यद्विभावयेत् ।
तत्तदेव भवेज्जीव इत्येवजन्मकारणम् ।।
अर्थात् मृत्यु के समय में जीव मन में जो भावना करता है, उसी भावना के अनुकूल उसका पुनर्जन्म होता है। एक पौराणिक कथा है। उसमें बतलाया गया है कि जड़भरतजी जंगल में तपस्या करते थे। वहाँ उन्होंने एक हिरणी के बच्चे का पालन-पोषण किया। कुछ दिनों के बाद में वह बच्चा जंगल में भाग गया। मरने के समय में जड़भरतजी को उसी बच्चे की याद आयी और फलस्वरूप उनको हिरण की योनि में जाना पड़ा। लेकिन उन्हें पूर्वजन्म का ज्ञान था, इसलिए कुछ समय के बाद फिर उनको मनुष्य-शरीर मिला, तो विचार किया कि मैं संसार में आसक्ति नहीं रखूँगा और उन्होंने वैसा ही किया।
जिज्ञासा होती है, मरने के समय हमें क्या याद रहना चाहिए, जिससे हमारा आगे का जन्म सुखमय हो, जिससे कि हम पुनः इस दुःखमय संसार में नहीं आवें? भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है-
“ प्रयाणकाले मनसाचलेन
भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव ।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक्
स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ।।10।।”
इस संसार से चलने के समय अचल मन से भक्ति योगयुक्त होकर जो अपने प्राण को भ्रुवों के मध्य में रखकर शरीर त्याग देता है, वह दिव्य परम पुरुष को प्राप्त करता है। अतएव इसकी सही क्रिया को जानकर हम साधना करें, तो फिर हमारा पुनर्जन्म नहीं होगा। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के छठे अध्याय में बतलाया है कि अगर तुम्हारी साधना पूरी नहीं हुई, तो शरीर छूटने के बाद तुम विशाल स्वर्ग सुख भोगोगे और फिर इस संसार में किसी पवित्र श्रीमान् के घर में अथवा किसी योगी कुल में जन्म लोगे। जैसे गुरु नानकदेवजी महाराज महायोगी थे। उनके कुल में बाबा श्रीचन्द का जन्म हुआ, वे भी महायोगी थे। उनके एक शिष्य बैलगाड़ी लेकर लकड़ी लाने जंगल गये। लकड़ियाँ चुनकर गाड़ी पर बोझ रहे थे कि जंगल में एक सिंह ने गर्जन किया। डर के मारे बैल भाग गया। श्रीचन्द बाबा के शिष्य ने सोचा कि लकड़ी कैसे जाएगी? जिस सिंह ने गर्जन किया था, उसी को कान पकड़कर वे ले आये और बैलगाड़ी में बैल के बदले उसी को जोड़ दिया। सिंह से कहा, चलो पहुँचाओ। बैल की जगह विशाल सिंह गाड़ी खींचते हुआ आया, जहाँ बाबा श्रीचन्द की धुनी जल रही थी। उसके बाद सिंह को छोड़ दिया कि जाओ तुम अपना घर और बैल को खोजकर ले आए।
श्रीचन्द बाबा बहुत बड़े योगी थे, उन्हीं के नाम पर उदासी मत चला हुआ है। भक्ति करोगे, तो ऐसे ही बड़े योगी या पवित्र श्रीमान् घर में जन्म लोगे और पूर्वजन्म के संस्कार से प्रेरित होकर साधन करने लग जाओगे। करते-करते किसी जन्म में पूर्णता को प्राप्त करोगे। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है-जो शान्ति मुझमें विराजती है, वही शान्ति तुममें विराजने लगेगी। यह दृढ़ निश्चय जान लो कि बाहर संसार में शान्ति कहीं नहीं मिलेगी। शान्ति जब कभी मिलेगी, तो अपने अंदर में मिलेगी और अंतस्साधना से मिलेगी।
वास्तविक बात तो यह है कि मानव जैसा जैसा चाहता है, वैसा-वैसा होता है नहीं। जैसा होता है, वैसा उसके मन को भाता है नहीं। जो उसके मन को भाता है, सुहाता है, वह टिकता है नहीं। जो टिकनेवाली चीज है, स्थिर है, उसमें मन लगाता है नहीं, तो शान्ति कहाँ से मिलेगी, सुख कहाँ से मिलेगा? शान्ति और सुख तो तभी मिलेगा, जब विषयों से मन हटाकर निर्विषय की ओर ले जाएँगे। विषय दुःखदायी है और निर्विषय सुखदायी है। हम विषय से निर्विषय की ओर कैसे जायेंगे? यह ध्यान से होगा-‘ध्यानं निर्विषयं मनः।’इसलिए हम ध्यान की क्रिया को जानें। ध्यान में स्थूल ध्यान होता है, सूक्ष्म ध्यान होता है, सूक्ष्मतर ध्यान होता है और सूक्ष्मतम ध्यान होता है। इन प्रक्रियाओं को जानकर हम साधना करें। साधना करते-करते क्रम-क्रम से बढ़ते-बढ़ते एक दिन हम पूर्णता को प्राप्त करेंगे। जैसे बूँद-बूँद गिरते-गिरते पानी से घड़ा भर जाता है, एक-एक अक्षर पढ़ते-पढ़ते लोग विद्वान् होते हैं; उसी तरह थोड़ी-थोड़ी साधना करते-करते एक दिन साधना में निष्णात होते हैं। भक्ति करते-करते भक्ति में पूर्णता प्राप्त करते हैं। आवागमन का चक्र छूटता है। दैहिक, दैविक, भौतिक; इन त्रितापों से मानव जो संतप्त होता रहता है, उससे सदा के लिए मुक्त हो जाता है। फिर कभी उसे दुःख का मुख नहीं देखना पड़ता; क्योंकि वह संसार में लौटकर आता नहीं।
न तद्भासयते सूर्यो न शशांको न पावकः ।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ।।
भगवान ने कहा, वहाँ जो कोई पहुँच जाता है, फिर वह संसार में नहीं आता है। जो संसार में नहीं आवेगा, वह दुःख का मुख क्यों देखेगा। इसलिए ईश्वर-भक्ति की सही साधना जानकर करनी चाहिए।
महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का यह प्रवचन साप्ताहिक सत्संग के अवसर पर दिनांक-26-1-2003, स्थान: महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में हुआ था। (शान्ति-संदेश, मार्च 2003)
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माननीय बिहार सरकार, नगर-विकास मंत्री महोदय अश्विनी कुमार चौबेजी, समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द!
संसार में असंख्य प्राणी जन्म लेते और मरते हैं; परन्तु हम सब लोगों की जयन्ती नहीं मनाते। जयन्ती महापुरुषों की मनायी जाती है। आज वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को जिनकी जयन्ती मनाने के लिए हमलोग यत्र-तत्र से एकत्र हुए हैं, वे कौन थे? हमारे गुरुदेव हमलोगों के जैसे साधारण मानव नहीं थे, वे महामानव थे। नररूप में वे हरि थे। हरि ही नहीं, हरि से भी विशेष थे-संत। स्वयं हरि (श्रीराम) ने शबरीजी को नवधा भक्ति का उपदेश देते हुए कहा था-
सातवँ सम मोहि मय जग देखा।
मोते अधिक संत करि लेखा।।
अपने को विशेष संत को ही बतलाते हैं। संतवाणी पढ़ने पर भी यही बात सामने आती है कि सबसे बड़े संत ही हैं। संत पलटूदासजी अयोध्या में हुए, उन्होंने कहा-
सबसे बड़े हैं संत, दूसरा नाम है।
तीजै दस अवतार उन्हें परनाम है।
ब्रह्मा विष्णु महेश सकल अवतार है।
अरे हाँ रे पलटू सबके ऊपर संत मुकुट सरदार है।।
किसी ने जिज्ञासा की कि आपने यह बात कैसी कही? अंधेरे में टटोलकर कही या इसका कुछ आधार भी है? उसका वे उत्तर देते हैं-
बड़ा होय तेहि पूजिये, संतन किया बिचार ।।
संतन किया बिचार, ज्ञान का दीपक लीन्हा ।
देवता तैंतिस कोटि, नजर में सबको चीन्हा ।।
सबका खंडन किया, खोजि के तीनि निकारा ।
तीनों में दुइ सही, मुत्तिफ़ का एकै द्वारा ।।
हरि को लिया निकारि, बहुरि तिन मंत्र बिचारा ।
हरि हैं गुन के बीच, संत हैं गुन से न्यारा ।।
पलटू प्रथमै संत जन, दूजे हैं करतार ।
बड़ा होय तेहि पूजिये, संतन किया बिचार ।।
हमारे गुरुदेव संत ही नहीं, संत सद्गुरु थे। संत सद्शिक्षा देते हैं और जो संत सद्गुरु होते हैं, वे सद्शिक्षा के साथ-साथ प्रभु-प्राप्ति की दीक्षा भी बतलाते हैं।
आज हमारे गुरुदेव का पार्थिव पिंड नहीं है, वे स्वदेश चले गये और विदेश वासियों के लिए संदेश के रूप में कुछ उपदेश दे गये हैं। उन्होंने ज्ञान- योग-युक्त ईश्वर-भक्ति की युक्ति दी है। उन्होंने बतलाया कि सबका ईश्वर एक है और ईश्वर को पाने का रास्ता भी एक ही है। जिनको संत और संतवाणी का संग नहीं हो पाया है, वे कहते हैं-जैसे दिल्ली जाने के लिए, चारो ओर से रास्ता है, उसी भाँति से ईश्वर के पास जाने के अनेक रास्ते हैं। लेकिन नहीं, ईश्वर के पास जाने का एक ही मार्ग है और वह है अंतरमार्ग। मानवकृत मार्ग परिवर्तनशील होता है, पर ईश्वरकृत मार्ग अपरिवर्तनशील होता है। दिल्ली तक जाने का मार्ग मानवकृत है, लेकिन परमात्मा तक जाने के लिए ईश्वरकृत मार्ग है। परमात्मा ने आँख से देखने का, कान से सुनने का, नासिका से गंध ग्रहण करने का, मुँह से भोजन करने का, नीचे की दो इन्द्रियों से मल-मूत्र विसर्जन करने का एक-एक मार्ग बनाया, यह मार्ग अटल है।
रूप को देखने के लिए आँख के अतिरिक्त और इन्द्रियाँ काम नहीं कर सकतीं। भोजन ग्रहण करने के लिए एक मार्ग मुँह है, मुँह से ही भोजन कर सकते हैं। सुनने, गंध और मल-मूत्र विसर्जन के लिए एक-एक मार्ग नियुक्त है। उसी तरह परमात्मा के पास जाने का एक ही मार्ग नियुक्त है। कुरान शरीफ के सूरे फातिहा में लिखा है-‘ऐ कयामत के दिन का मालिक! मुझे सीधा रास्ता दिखला।’ वह ‘सीधा रास्ता’ कौन-सा है? ईश्वर के पास जाने का सीधा रास्ता कहाँ से आरंभ होता है और कहाँ पर अंत होता है, यह जानना आवश्यक है। वेद कहता है-
वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।
तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यो पंथाः विद्यतेऽयनाय ।।
(यजुर्वेद, अ0 31, मंत्र 18, खंड 12)
‘नान्यो पंथाः’, न अन्यः पंथाः-और कोई दूसरा रास्ता नहीं। उस ईश्वर को पाने के लिए एक ही रास्ता है। संत तुलसी साहब कहते हैं-
क्यों भटकता फिर रहा तू, ऐ तलाशे यार में ।
रास्ता शहरग में है, दिलवर पै जाने के लिए ।।
परमात्मा को पाने का रास्ता सुषुम्ना से आरंभ होता है, यही सीधा रास्ता है। वे कहते हैं-इधर- उधर क्यों घूमते हो, वह तुम्हारे अंदर है। गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-
काहे रे वन खोजन जाई।
सरब निवासी सदा अलेपा, तोही संग समाई ।।
ं संत कबीर साहब की वाणी में है-
कस्तूरी कुंडल बसै, मृग ढूढै वन माहिं ।
ऐसे घट में पीव है, दुनिया जानै नाहिं ।।
समझै तो घर में रहै, परदा पलक लगाय ।
तेरा साईं तुझ में, अनत कहीं मत जाय ।।
गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज अपना अनुभव कहते हैं-
एहि में मैं हरि ज्ञान गँवायो।
परिहरि हृदयकमल रघुनाथहिं,
बाहर फिर विकल भय धायो।।
ज्यों कुरंग निज अंग रुचिर मद,
अति मतिहीन मरम नहिं पायो।
खोज गिरि तरु लता भूमि बिल,
परम सुगंध कहाँ तें आयो।।
कस्तूरी मृग की नाभि में रहती है, लेकिन वह जहाँ-तहाँ ढूँढ़ता है कि सुगन्धि आई कहाँ से? गिरि, तरु, लता, भूमि, बिल आदि में खोजने से उसे सुगंधि कहीं नहीं मिलेगी। उसी तरह सर्वव्यापी परमात्मा को खोजने के लिए अंदर चलो, तब वे मिलेंगे अन्यथा जीवनभर बाहर में भटकते रह जाओगे।
एक नवाब था। एक दिन उसने अपने काजी से पूछा, ‘खुदा कहाँ रहते हैं, कैसे मिलते हैं, क्या करते हैं और किधर देखते हैं?’ काजी ने उत्तर दिया, ‘मैंने तो केवल न्याय की पुस्तकें पढ़ी हैं। इन प्रश्नों के उत्तर मैं कैसे दूँ?’ नवाब ने कहा, ‘तुमको एक सप्ताह का समय दिया जाता है। इसके अंदर उत्तर नहीं दोगे, तो दंडित होओगे।’ बेचारे चिंतित हुए कि अब क्या करें, किनसे पूछें? परेशान होकर बिछावन पर आकर लेट गये। उनका एक नौकर था, जिनका नाम था ‘पाजी’। पाजी ने काजी से पूछा, ‘आप चिंतित क्यों हैं?’ काजी बोला, ‘कारण जानकर क्या करोगे? मेरी समस्या का समाधान कर सकते हो?’ पाजी ने उत्तर दिया, ‘हाँ, समाधान कर सकता हूँ।’ नवाब के दिये हुए प्रश्नों को काजी ने पाजी के सामने रखा। पाजी ने कहा, ‘इसका उत्तर तो सरल है।’ आप नवाब के नाम से एक खत लिख दीजिए कि मैं जाने में असमर्थ हूँ। मेरा नौकर पाजी आपके पास जा रहा है, यह आपको उत्तर देगा।’ काजी ने पत्र लिख दिया, जिसे लेकर पाजी नवाब के पास गया। नवाब ने पत्र पढ़कर पूछा, ‘तुम मेरे प्रश्नों का उत्तर दोगे?’ पाजी ने कहा, ‘हाँ, मैं उत्तर दे दूँगा।’ दरबार लगा हुआ था। नवाब ने कहा, ‘उत्तर देना शुरू करो।’ पाजी ने कहा, ‘नवाब साहब! आप भी विचित्र आदमी हैं। जो प्रश्न पूछता है और जो उत्तर देता है, दोनों के बैठने के स्थान में अंतर होना चाहिए। मैं उत्तर दूँगा, इसलिए हमको ऊपर बैठाइए।’ नवाब ने सोचा, ‘थोड़ी देर में इसकी जान जाएगी ही, थोड़ी देर के लिए अपनी ही गद्दी पर बैठा देता हूँ। जहाँ पर काजी बैैठते थे, वहाँ नवाब साहब स्वयं बैठ गये। पाजी ने निवेदन किया, ‘हुजूर! आपने प्रश्न तो काजी से किया था, उन्हें भी बुला लीजिए, तो अच्छा होगा।’ काजी को बुला लिया गया। काजी की जगह पर नवाब बैठा था। काजी नीचे पाजी की जगह पर बैठ गया। अब पाजी बोला, ‘नवाब साहब! एक धेनू गाय मँगाइए। उसके साथ बछड़ा और दूहनेवाला गोपाल भी हो।’ नवाब के आदेश से गाय, बछड़ा और दूहनेवाला उपस्थित हो गया। पाजी ने कहा, ‘कहिए, आपका प्रश्न किया है?’ नवाब ने कहा, ‘खुदा कहाँ रहते हैं, कैसे मिलते हैं, क्या करते हैं और किधर देखते हैं?’ पाजी ने कहा, ‘एक मोमबत्ती मँगाकर जलाइए।’ मोमबत्ती जलाई गयी। पाजी ने पूछा, ‘नवाब साहब! इसका प्रकाश किधर जाता है?’ नवाब, ‘इसका प्रकाश चारो तरफ जाता है।’ पाजी, ‘इसी प्रकार खुदा चारो तरफ देखते हैं। अब पाजी ने गोपाल से गाय दूहने कहा। गाय दूहने के बाद दूध अपने पास मँगा लिया। नवाब ने कहा, ‘दूध तुम अपने पास मँगा रहे हो, गाय मँगायी गयी थी तुम्हारे लिये? मैं जो पूछता हूँ उसका जवाब दो।’ पाजी ने कहा, ‘वही जवाब तो मैं दे रहा हूँ। देखिए, गाय का दूध मिलता है गाय के थन से। गाय का थन तो छोटा है; लेकिन इससे दस किलो दूध कैसे निकला? तो क्या दस किलो दूध उसी थन में था? नहीं, दूध गाय के संपूर्ण शरीर में था और जब दूहा गया, तो उसके थन से ही दूध निकला। उसी तरह खुदा सब जगह हैं; लेकिन खुदा जब भी मिलेंगे, तो अपने अंदर में ही मिलेंगे।’ नवाब ने पूछा,‘अच्छा, बतलाओ, वे क्या करते हैं?’ पाजी ने कहा, ‘नवाब साहब! क्या बतलाऊँ, खुदा क्या करते हैं, यह भी पूछने की बात है! आप स्वयं अपनी आँखों से देख रहे हैं, जो पाजी था, उसको नवाब बना दिया; जो नवाब था, उसको पाजी बना दिया; जो काजी था, उसको पाजी बना दिया। खुदा क्या नहीं कर सकते?
कहानी कहने का तात्पर्य यह है कि परमात्मा सबके अंदर हैं, सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान हैं। हमलोग शास्त्र में पढ़ते हैं-‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’- हे प्रभु! हमको अंधकार से प्रकाश में ले चल। ‘असतो मा सद्गमय’-असत् से सत् में ले चल। ‘मृत्योमा अमृतगमय’-मृत्यु के मुख से निकालकर अमृतत्व लाभ करा। इन शब्दों का मिलान करके देखिए, कितना सजा हुआ है। एक ओर तमस् (अंधकार) है, दूसरी ओर प्रकाश है। शास्त्र कहता है-जबतक अंध- कार में रहोगे, तबतक असत् में रहोगे और तबतक मृत्यु के मुख में रहोगे। जब तुम अंधकार से प्रकाश में जाओगे, तो असत् से सत् में जाओगे और मृत्यु के मुख से छूटकर अमृतत्व लाभ करोगे। लोग कहते हैं-‘हम तो प्रकाश में ही हैं, अंधकार में कहाँ हैं? लेकिन विचार कर देखिए कि आपका शरीर प्रकाश में है या आप प्रकाश में हैं? आप शरीर के भीतर हैं, बाहर नहीं हैं। बाहर की चीजों को आँखें खोलकर देखते हैं, भीतर की चीजों को देखने के लिए क्रिया उलट दीजिए अर्थात् आँखें बंद करके देखिए। जब आँखें बंद करके देखते हैं, तो अंधकार मालूम पड़ता है। इससे पता चलता है कि हम अंधकार में बैठे हुए हैं। अंधकार में कुछ सूझता नहीं है। इस कारण भूल-भरम होता रहता है। एक संत हुए राधास्वामी साहब, उन्होंने कहा-
इस नगरी में तिमिर समाना, भूल भरम हर बार ।
खोज करो अंतर उजियारी, छोड़ चलो नव द्वार ।।
जबतक नव द्वार में रहेंगे, तबतक अंधकार में रहेंगे। जबतक हम अंधकार में रहेंगे, तबतक ‘भूल भरम हर बार’ होता रहेगा। जब नव द्वार से दसवें द्वार में जायेंगे, तब अंधकार से प्रकाश में जायेंगे। अनुचित कर्म के लिए मन में सोचते हैं कि ऐसा काम नहीं करना चाहिए, लेकिन मौका पाकर वह काम कर लेते हैं, क्यों? इसलिए कि हम अंधकार में हैं अर्थात् अज्ञानता में हैं। अंधकार से प्रकाश में कैसे जाएँगे? श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय 8/9 में है-
कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।।
अंधकार से परे प्रकाश है। अंधकार से प्रकाश में जाओ। हमलोग जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति; इन तीन अवस्थाओं में प्रतिदिन जाते-आते रहते हैं। जिस समय जाग्रत में रहते हैं, उस समय स्वप्न और सुषुप्ति का ज्ञान नहीं रहता है। जब स्वप्न में जाते हैं, जो जाग्रत, सुषुप्ति का ज्ञान नहीं रहता है। जब सुषुप्ति में जाते हैं, तो जाग्रत और स्वप्न का ज्ञान नहीं रहता अर्थात् जिस अवस्था में रहते हैं, उसी अवस्था का ज्ञान रहता है। इसलिए अज्ञान की अवस्था से ज्ञान की अवस्था में अपने को ले चलो। आँखें बंद करने पर जो अंधकार मालूम पड़ता है, उसी अंधकार में प्रकाश तक जाने का रास्ता है। वह रास्ता कौन बतावेगा? तो संत तुलसी साहब कहते हैं-
मुर्शिदे कामिल से मिल सिद्क और सबूरी से तकी ।
जो तुझे देगा फहम शहरग के पाने के लिए ।।
जो पहुँचे हुए संत-महात्मा हैं, उनके पास जाओ। वे शहरग अर्थात् सुषुम्ना का मार्ग बतलाएँगे। उसी को छठा चक्र और आज्ञाचक्र भी कहते हैं। उसका नाम ही आज्ञाचक्र है। जो उस चक्र में पहुँचते हैं, वहाँ उसको प्रभु की आज्ञा मिल जाती है कि अब हमारी ओर आ जाओ। जबतक हम आज्ञाचक्र में नहीं जाते, तबतक आने की आज्ञा नहीं होती। जब सुरत दसवें द्वार में जाएगी, तब आज्ञा मिलेगी। संत राधा स्वामी साहब कहते हैं-
सहज कँवल चढ़ त्रिकुटी धाओ,
भँवर गुफा सतलोक निहार।
अलख अगम के पार सिधारो,
राधास्वामी चरण सम्हार।।
गुरु नानकदेवजी कहते हैं-
एक द्रिसटि करि समसरि जाणै, जोगी कहिअै सोई।
केवल जोगी का वेश बना लेने से कोई योगी नहीं होता। जो अपनी दृष्टि को एक कर पाता है, वही असली योगी है। बाइबिल में लिखा है-‘यदि तेरी आँख एक हो, तो तेरा सारा शरीर उजियाला होगा और अगर तेरी आँख बुरी है, तो देखो तुम्हारे अंदर अंधकार का कितना बड़ा साम्राज्य है।’ अंध- कार के साम्राज्य को जो पार करेंगे, उसी को प्रकाश मिलेगा। दृष्टियोग की साधना से अंतःप्रकाश मिलता है और जिसको अंतःप्रकाश मिल जाता है, उसे नादानुभूति भी होती है। हमारे गुरुदेव कहते हैं-
नाद सों नादों में चलि धरु, प्रणव सतध्वनि सार रे ।
एक ओ3म् सतनाम ध्वनि धरि, मेँहीँ’ हो भव पार रे ।।
जो अंतःप्रकाश को पाता है, उसे अंतर्नाद सुनाई देता है। वह अंतर्नाद परम प्रभु परमात्मा तक पहुँचा देता है; क्योंकि नाद में अपनी ओर आकर्षण करने का गुण होता है। अँधेरी रात हो, आप एक जगह खड़े होकर तू-तू की आवाज दीजिए, कुत्ता आपकी आवाज सुनकर आपके पास आ जाएगा। जो परमात्मा की ओर से ॐ, स्फोट, उद्गीथ, प्रणव ध्वनि की आवाज आ रही है, उस आवाज को आप सुनेंगे, तो आप किधर जायेंगे? परमात्मा की आवाज सुनकर परमात्मा के पास जायेंगे। इसके लिए घर-वार, परिवार, रोजगार छोड़ने की जरूरत नहीं है। घर-वार, परिवार, रोजगार में रहकर भी इस साधना को कर सकते हैं। यह सरल और सुगम साधना है। जैसे कोई रोगी डॉक्टर के पास जाता है, तो डॉक्टर साहब रोग के अनुसार दवाई लिख देते हैं और परहेज भी बतला देते हैं, उसी तरह प्रभु को पाने का रास्ता तो मिल गया, इसके लिए संयम भी आवश्यक है। गुरु महाराज संयम बतलाते हैं-झूठ मत बोलो, चोरी नहीं करो, किसी नशीली चीज का सेवन नहीं करो, हिंसा नहीं करो तथा मांस-मछली आदि का सेवन नहीं करो, परस्त्री-परपुरुष-गमन नहीं करो। इन पंच पापों से बचते रहो, तब क्या होगा? गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-
सूचै भाँड़ै साँचु समावै बिरले सूचाचारी ।
तंतै कउ परम तंतु मिलाइआ नानक सरणि तुमारी ।।
पवित्र बर्तन में सत्य अँटता है। जब हृदय पवित्र होगा, तब परम प्रभु परमात्मा की प्राप्ति होगी। वेद कहता है कि संसार में सभी मेल से रहो, प्रेम से बातचीत करो। यहाँ जात-पात की कोई बात नहीं है। जाति पाँति पूछै नहिं कोई।
हरि को भजै सो हरि का होई।।
‘हिन्दू मुस्लिम सिक्ख ईसाई। जैन बौद्ध सब भाई भाई।।’ पर मुखापेक्षी नहीं बनो। अपने जीवन-यापन के लिए कुछ-न-कुछ पवित्र कमाई अवश्य करो। यह संतमत का थोड़ा सार आपलोगों के सामने कहा। आपलोग दूर-दूर से कष्ट झेलकर यहाँ आए हुए हैं। मैं सबको बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूँ और सबकी मंगलकामना करता हूँ।
यह प्रवचन महर्षि मेँहीँ-जयन्ती के अवसर पर दिनांक-12-5-2006, स्थान: महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में हुआ था।
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ध्यान में सफलता के लिए एक आसन से देर तक बैठने का अभ्यास आवश्यक है और आसन की दृढ़ता के लिए आहार की दृढ़ता चाहिए। संत सूरदासजी ने कहा है-
आसन दृढ़ आहार दृढ़, भजन नेम दृढ़ होय ।
तौ प्राणी पावै कछुक, नहिं तो रहै विषय रस मोय ।।
जबतक हमारा आहार दृढ़ नहीं होगा, तबतक आसन दृढ़ नहीं हो सकता। भगवान श्री कृष्ण का महावाक्य श्री मद्भगवद्गीता में है-राजस, तामस और सात्त्विक; तीन प्रकार के भोजन होते हैं। साधक के लिए राजस और तामस भोजन त्याज्य हैं। सात्त्विक भोजन ही उचित है, लेकिन उसकी भी मात्र संतुलित होनी चाहिए। गीता में भगवान श्रीकृष्ण का वचन है-
नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः ।
न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ।।
हे अर्जुन! यह योग न तो बहुत खानेवाले का, न बिल्कुल न खानेवाले का, न शयन करने के स्वाभाववाले का और न सदा जागनेवाले का ही सिद्ध होता है।
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्तस्वप्नावबोधास्य योगो भवति दुःखहा ।।द्ब/१७।।
दुःखों का नाश करनेवाला योग तो यथायोग्य आहार-विहार करनेवाले का, कर्मों में यथायोग्य चेष्टा करनेवाले का और यथायोग्य सोने तथा जागनेवाले का ही सिद्ध होता है।
आयुः सत्त्वबलारोग्य सुखप्रीतिविवर्धानाः ।
रस्याःस्निग्धााःस्थिराहृद्याआहाराः सात्त्विकप्रियाः।।१७/८।।
आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ानेवाले, रसयुक्त, चिकने और स्थिर रहनेवाले तथा स्वभाव से ही मन को प्रिय-ऐसे आहार सात्त्विक पुरुष को प्रिय होते हैं।
कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः ।
आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदा: ।।१७/९।।
कड़वे, खट्टे, लवणयुक्त, बहुत गरम, तीखे, रूखे, दाहकारक और दुःख, चिन्ता तथा रागों को उत्पन्न करनेवाले आहार राजस पुरुष को प्रिय होते हैं।
यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत् ।
उच्छिष्टमपि चामेधयं भोजनं तामसप्रियम ।।१७/१॰।।
जो भोजन अधपका, रसरहित, दुर्गन्धयुक्त, बासी और उच्छिष्ट है तथा जो अपवित्र भी है, वह भोजन तामस पुरुष को प्रिय होता है।
अर्थात् साधक का आहार-विहार, शयन- जागरण प्रभृति दैनिक कार्य संतुलित होना चाहिए। गोस्वामीजी के शब्दों में-
षट विकार जित अनघ अकामा ।
अचल अकिंचन सुचि सुखधामा ।।
अमित बोधा अनीह मितभोगी ।
सत्य सार कवि कोविद जोगी ।।
(रामचरितमानस)
साधक को मितभोगी होना चाहिए। महायोगी जालंधरनाथजी महाराज ने कहा है-
थोड़ो खाय तो कलपे झलपै, घणो खाइ लौ रोगी ।
दुहू पखा की संधि विचारै, ते को विरला जोगी ।।
न तो ठूँसकर खाओ, ने भूखा ही रहो अर्थात् मध्यमार्गी बनो। संत कबीर साहब कहते हैं-
माँगि न खाय न भूखा सोवै, घर अंगना फि़रि आवै ।
गुरु गोरखनाथजी का वचन है-
खाये भी मरिए अणखाये भी मरिए ।
गौरख कहै पूता संजमि ही तरिए ।।
तथा-
धाये न खाइबा, भूखे न मरिबा ।
अहिनिसि लेवा ब्रह्म अगिनि का भेवं ।।
मात्र से अधिक खाओ मत और भूखे मरो मत। तब ‘बह्म अगिनि का भेव’ अर्थात् अन्तर्ज्योति साधना की क्रिया करोगे, तो सफलता मिलेगी। ग्यारहवीं शताब्दी में एक बड़े अच्छे फकीर हुए अलगजाली। उन्होंने भोजन के विषय में बड़ी अच्छी-अच्छी बातें कही हैं-‘साधना-काल में बेईमानी की कमाई पर मत रहो। बेईमान की कमाई खाकर पूजा करना पानी पर मकान उठाने की तरह बेकार है।’
रोज कुछ मिलाकर सवा सेर खाना काफी है। हजरत उमर रोज सिर्फ सात कौर भोजन लेते थे, जिससे पूजा में विघ्न न हो। दिन-रात में सिर्फ एक ही बार खाओ। रात में खाली पेट रहना अच्छा है। मिठाइयाँ, पकवान नहीं खाना चाहिए।
आदमी की दुनिया उसका पेट है। जिस हद तक वह खाने की इच्छा को नियंत्रित रखता है, उस हद तक वह आत्म-नियंत्रण के फलस्वरूप अध्यात्म में तरक्की करेगा। सिर्फ एक दाल या सब्जी लो, विभिन्न प्रकार के व्यंजन मत लो।
पैगम्बर की हिदायत है-‘सदा उपवास मत करो या निद्रा को पूरी तरह मत त्यागो, संयम रखो और बीच के रास्ते पर चलो-अर्थात् न कम, न बेशी; जरूरत से अधिक खाकर अपनी पाचन-क्रिया खराब नहीं करो और न अनेक बार उपवास ही करो।’
खाने में अपने गुरु की नकल मत करो। गुरुजी अधिक खाते हैं, तो तुम भी अधिक मत खाने लगो। बात है कि गुरुजी के लिए उपवास जरूरी नहीं है; क्योंकि उन्होंने अपने पर काबू कर रखा है।
कुछ दिन तक हमारे गुरुदेव (महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज) अपने पिता के घर भोजन करने जाते और सत्संग-मंदिर में ध्यान-भजन करते। एक बार मुरादाबाद जाने पर बाबा देवी साहब ने उनसे पूछने की कृपा की-‘कैसे जीवन बिताते हो?’ गुरु महाराज ने उत्तर दिया-‘पिताजी के यहाँ भोजन करता हूँ।’ बाबा साहब ने पूछा-‘पिताजी का भोजन करते हो, तो उनका क्या काम कर देते हो?’ गुरु महाराज ने विनम्र स्वर में निवेदन किया-‘कोई काम नहीं करता हूँ।’ इस पर बाबा साहब ने कहा-‘बिना काम किए उनका भोजन करते हो, तो तुम्हारा खून खराब हो जाएगा।’ इस कारण परम पूज्य गुरुदेव ने अपने पिताजी के घर में भोजन करना छोड़कर कुछ वर्षों तक अध्यापन-कार्य कर जीवन-यापन किया।
बाबा देवी साहब के कथनानुसार बिना काम किए पिता की कमाई खानेवाले का खून खराब हो जाता है। तब जो दूसरों की कमाई खाकर भजन में उन्नति करना चाहें, तो उसमें उनको कहाँ तक सफलता मिल पाएगी, सोचने की बात है, वे स्वयं सोचें। ऐसे व्यक्ति का उद्धार होना और भविष्य में मनुष्य जन्म पाना कठिन है। शास्त्रें में यहाँ तक कहा गया है कि ‘इस जन्म में किसी से लिया कर्ज, न चुकाने पर उसे अगले जन्म में जानवर बनकर उसकी सेवा के रूप में चुकाना पड़ता है।’ (कल्याण, मई 2003)
इसलिए हमलोगों के धर्मशास्त्र में आया है-हितभुक, मितभुक और ऋतभुक। हमारे सामने जो भोज्य पदार्थ आए, उसे हम देखें कि वह हमारे लाभ के लिए है या हानि के लिए। कैसा भोजन है-रजोगुणी, तमोगुणी या सतोगुणी? जब हम देखें कि यह सतोगुणी है, तब भोजन करने से हमारी भलाई होगी, लेकिन सतोगुणी भोजन होने पर उसकी मात्र अधिक नहीं होनी चाहिए अर्थात् होना चाहिए-मितभुक। कबीर साहब ने कहा है-
मन भावै सो खावता, इन्द्री केरे स्वाद ।
नाक तलक पूरण करै, कौन कहै परसाद ।।
अधिक खाएँगे, तो भजन में देर तक नहीं बैठ सकेंगे। जिस प्रकार का अन्न हम खाएँगे, उसी प्रकार का प्रभाव हमारे मन पर पड़ेगा, इसलिए कहा गया है- जैसा खाय अन्न, वैसा होय मन ।
तथा-
जैसा अन्न जल खाइये, वैसा ही मन होय ।
जैसा पानी पीजिये, वैसी वाणी होय ।।
(संत कबीर साहब)
अतएव हितभुक के साथ अवश्य ही मितभुक भी होना चाहिए और मितभुक के साथ ऋतभुक होना आवश्यक है। ऋत् कहते हैं-सत्य को। इसका तात्पर्य सच्ची कमाई का भोजन होना चाहिए। इसी दृष्टि को अपनाकर संत सूरदासजी ने कहा है-‘आसन दृढ़, आहार दृढ़।’ साथ ही भोजन के समय में भी नियमितता होनी चाहिए। इस प्रकार यदि हितभुक, मितभुक और ऋतभुक; इन तीनों का सही संतुलन रहेगा, तो सूरदासजी कहते हैं, ‘तौ प्राणी पावै कछुक।’ तब प्राणी यानी साधक कुछ पाएगा। अन्यथा यदि इन तीनों में ढीला-ढाला रहेगा, तो-‘रहै विषय रस मोय।’ यानी डुबकी लगाते रहेंगे विषयों में, कभी उबार नहीं होगा।
साधक को स्वावलंबी होना चाहिए। अपने पसीने की कमाई से उसे अपना निर्वाह करना चाहिए। थोड़ी-सी वस्तुओं को पाकर ही अपने को संतुष्ट रखने की आदत लगाना, उसके लिए परमोचित्त है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, चिढ़, द्वेष आदि मनोविकारों से बचते रहना और दया, शील, संतोष, क्षमा, नम्रता आदि मन के उत्तम और सात्त्विक गुणों को धारण करते रहना, साधक के पक्ष में अत्यन्त हितकर है। मांस और मछली का खाना तथा मादक द्रव्यों का सेवन मन में विशेष चंचलता और मूढ़ता उत्पन्न करते हैं। साधकों को इनसे अवश्य बचना चाहिए। (सत्संग-योग, चतुर्थ भाग)
आज पाश्चात्य वैज्ञानिकों से भी यह बात छिपी नहीं है कि मत्स्य-मांस भोजन मानव-प्रकृति के अनुकूल नहीं है। उन्होंने विज्ञान के आधार पर यह सिद्ध कर दिया है कि मत्स्य-मांस का आहार मनुष्य-प्रकृति के बिल्कुल प्रतिकूल है। उन्होंने मांसाहारी और शाकाहारी प्राणियों की बनावट में भिन्नता बताते हुए बताया है कि मांसाहारी जीव के दाँत और नख नुकीले होते हैं; जैसे-व्याघ्र, कुत्ता, गीदड़ आदि। और शाकाहारी जीवों के दाँत चिपटे होते हैं। मांसाहारी प्राणी के शरीर से पसीना नहीं निकलता और न वह मुँह सटाकर पानी ही पीता है। प्रमाणस्वरूप व्याघ्र, कुत्ता आदि हिंस्त्र जन्तुओं के शरीर से पसीना नहीं निकलता है और वह जीभ से चाट-चाटकर पानी पीता है। मनुष्य और गाय-बैल आदि के शरीर से पसीना निकलता है और ये पानी में मुँह सटाकर पीते हैं। शाकाहारी प्राणी उन्मीलित नेत्र से जन्म लेते हैं अर्थात् जन्मकाल से ही उनकी आँखें खुली होती हैं, किन्तु मांसाहारी प्राणी का जन्म निमीलित चक्षु से होता है यानी जन्मकाल में आँखें बन्द रहती हैं, कुछ दिनों के बाद आँखें खुलती हैं। साथ ही, इन दोनों प्रकार के प्राणियों की आँतों की रचना भी भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है। यानी शाकाहारी प्राणी के शरीर की लम्बाई से चार गुणा उसकी आँत होती है, जबकि मांसाहारी प्राणी की आँत उसके शरीर की लम्बाई के बराबर होती है। इन दृष्टियों से भी मत्स्य-मांस-भक्षण मानव-प्रकृति के सर्वथा विरुद्ध है और साधक के लिए तो इस प्रकार के तामस भोजन हलाहल (विष) से भी कहीं बढ़कर हैं; क्योंकि ये आहार ब्रह्मचर्य-पालन में बाधक हैं और मन को चंचल करनेवाले हैं।
ब्रिटेन के उच्चकोटि के डॉक्टरों एवं वहाँ के हेल्थ मिनिस्टर मिसेज क्यूरी ने घोषणा की है कि अण्डे के पीले भाग (ल्वसा) में सालमोनेला (ैंसउवदमससं) नामक छूत-रोग के विषैले कीटाणु पाए जा रहे हैं, जिस कारण इंग्लैंड में प्रति सप्ताह 3000 व्यक्ति इस छूत रोग से पीड़ित हो रहे हैं। उन्हें उल्टी-दस्त, टायफायड बुखार व आँत में सूजन आदि शिकायतें हो रही हैं और लोग मर भी रहे हैं। इस चेतावनी से वहाँ बड़ी संख्या में लोगों ने अण्डा या अण्डे से बने पदार्थों को खाना छोड़ दिया है। अण्डों की बिक्री 7 प्रतिशत कम हो गई है।
अमेरिका के डॉक्टर माइकल एस0 ब्राउन व डॉक्टर जोसेफ एल0 गोल्डस्टीन को हृदय रोग की खोज पर 2,25,000 डॉलर का नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ। दोनों डॉक्टरों ने अपनी खोज के बाद घोषणा की कि अण्डे और मांस का सेवन खतरनाक है, इसमें कॉलेस्ट्रॉल की मात्र बहुत अधिक पाई जाती है, जिससे हार्ट अटैक, जोड़ों में दर्द, पित्ताशय व मूत्रशय में पथरी, चर्म रोग आदि रोग उत्पन्न होते हैं, अमेरिका में 40 प्रतिशत लोग शाकाहारी हो गए हैं और यह संख्या बढ़ रही है।
आधुनिक खोजों के अनुसार मांस-मछली और अण्डे में डायटरी फाइबर (भोजन तन्तु) बिल्कुल नहीं पाई जाती है। इस कारण ये कब्ज पैदा करके पेट में सड़ांध, आँत में कैंसर, बवासीर, गुर्दे खराब, पित्ताशय में पथरी, अलसर आदि रोग पैदा करते हैं।
हाफकिन्स इंस्टीच्यूट ऑफ बॉम्बे के अनुसार, छोटे बच्चों को अण्डा या अण्डे से बने पदार्थ खिलाने से निम्नलिखित रोगों के उत्पन्न होने का खतरा है-कफ, खाँसी, नजला, जुकाम, दमा, स्मरण शक्ति कमजोर, शारीरिक शक्ति का क्षय, पीलिया, वात, पथरी, हाई बी0 पी0, आँतों में मवाद, एलर्जी आदि। (शान्ति-संदेश, जुलाई 2003)
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श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार योगशिक्षा सर्वप्रथम भगवान् श्रीकृष्ण ने सूर्य को ही दी थी। भारतीय धर्मग्रंथों में तो सूर्य की महिमा गायी ही गयी है, आजकल के वैज्ञानिक भी इसको पृथ्वी पर जीवन-संचालन में महत्त्वपूर्ण कारक मानते हैं। इन्हीं कारणों से हमारे देश में प्राचीन काल से सूर्योपासना चली आ रही है। भारत ही नहीं विश्व के अधिकांश सभ्य प्राचीन जातियों में सूर्य की उपासना प्रचलित है। आर्यों के अतिरिक्त आसीरिया के असुर शम्श (सूर्य) की पूजा करते थे। इरान की ‘मग’ जाति में प्राचीनकाल से सूर्य की पूजा विधि प्रचलित थी। आज भी हमारे यहाँ राजपूतों में ‘मग’ जाति के ब्राह्मण मिलते हैं। अमेरिका के मेक्सिको प्रदेश में बसनेवाली प्राचीन सभ्य जनता के बहुत-से सूर्य मंदिर थे। यूनान का सम्राट सिकन्दर सूर्य उपासक था। मिश्र की नीलघाटी सभ्यता में सूर्यपूजा का प्रमुख स्थान था। फिनीशियन, फैल्डियन आदि लोग प्राचीनकाल से सूर्योपासक रहे हैं। सूर्यपूजा का प्रसार प्राचीनकाल में एशिया माइनर से रोम तक था।
सौर सम्प्रदाय के अनुयायी ललाट पर लाल चन्दन से सूर्य की आकृति बनाते हैं और लाल फूलों की माला धारण करते हैं। आर्य जातियों के तो सूर्य प्रधान देवता थे। भारतीय और पारसीक दोनों शाखाओं के आर्यों के बीच सूर्य को प्रमुख स्थान प्राप्त था। वेदों में पहले प्रधान देवता सूर्य, अग्नि और इन्द्र थे। सूर्य आकाश के देवता थे। इनका रथ सात घोड़ों का कहा गया है। आगे चलकर सूर्य और सविता एक माने गए और सूर्य की गणना द्वादश आदित्यों में हुई। ये आदित्य वर्ष के बारह महीने के अनुसार सूर्य के ही रूप थे।
भारत में अनेक राजा-महाराजा सूर्योपासक रहे हैं; जैसे-कुषाण सम्राट, गुप्त सम्राट, हर्ष आदि। ग्यारहवीं सदी में बना विशाल कोणार्क मंदिर सूर्योपासना का ही प्रतीक है। अकबर ने आदेश प्रसारित किया था कि प्रातः, मध्याह्न, सायं और अर्द्धरात्रि-चार बार सूर्य की पूजा होनी चाहिए। वे स्वयं सूर्याभिमुख होकर उनके सहस्त्र नाम का पाठ एवं पूजन करते थे।
सूर्य-पूजा
वराहपुराण में आया है-
‘सृष्टयर्थं भगवान् विष्णुः सविता स तु कीर्तितः।’
अर्थात् भगवान् श्रीकृष्ण के अनुसार विष्णु ही सविता कहे जाते हैं। विष्णु और सविता-ये दोनों पर्यायवाचिक शब्द हैं।
सूर्योपनिषद् (1/4) के अनुसार सूर्य से ही सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति होती है, पालन होता है और उन्हीं में विलय होता है। श्रीमद्भागवत में वर्णन आया है कि सूर्य के द्वारा ही दिशा, आकाश, द्युर्लोक, भूलोक, स्वर्ग-मोक्ष के प्रदेश, नरक और रसातल तथा अन्य समस्त स्थानों का विभाग होता है। सूर्य ही देवता, तिर्यक, मनुष्य, सरीसृप और लता-वृक्षादि समस्त जीव समूहों की आत्मा एवं नेत्रेन्द्रिय के अधिष्ठाता हैं। ऋग्वेद कहता है कि सूर्य ही अपने तेज से सबको प्रकाशित करता है। यजुर्वेद में कहा गया है कि ये ही सम्पूर्ण भुवन को उज्जीवित करते हैं। अथर्ववेद में प्रतिपादित है कि सूर्य हृदय की दुर्बलता-हृद्रोग और कास रोग को प्रशमित करते हैं। सूर्य की किरणें पृथ्वी के गीले पदार्थों को सोख लेती हैं और खारे समुद्र-जल को स्वयं पीकर पीने योग्य बना देती हैं। लिंग पुराण के 22 वें अध्याय में सूर्योपासना का वर्णन करते हुए कहा गया है-
‘स्नानयागादिकर्माणि कृत्वा वै भास्करस्य च ।
शिवस्नानं ततः कुर्याद् भस्मस्नानं शिवार्चनम् ।।’
लिंग पुराण में अनेक तरह के मंत्रेच्चारण और अनेक धार्मिक अनुष्ठानों (क्रियाओं) का विधान बताया गया है और अन्त मेंं बताया गया है कि जो एक बार भी देवदेव भगवान् सूर्य का पूजन कर लेता है, वह परमगति को प्राप्त हो जाता है। सब पापों से छूट जाता है। समस्त ऐश्वर्यों से युक्त हो जाता है। तेज में अप्रतिम हो जाता है।
शास्त्रें में चार वैदिक मंत्रें से सूर्यनारायण की उपासना बतलायी गई है। इसकी विधि इस प्रकार है-दाहिने पैर की एड़ी उठाकर सूर्याभिमुख भक्तिभाव से पूर्ण होकर आप्लावित हृदय से मंत्रें का पहले विनियोग करना और तब आगे नीचे झुके हाथ पसारकर खडे़-खड़े अर्थ पर ध्यान रखते हुए निम्न प्रतीकात्मक चार मंत्रें से सूर्योपस्थान करना-1- ॐ उद्वयन्तमसस्परि, 2- ॐ उदुत्यंजातवेदसम्, 3- ॐ चित्रन्देवानाम्, 4- ॐ तच्चक्षुर्दवहिताम्।
उत्तर भारत में प्रचलित षष्ठी व्रत या छठ पूजा में भी सूर्यनारायण की ही पूजा की जाती है।
सूर्य में कोई तिथि नहीं होती, तिथियाँ चन्द्र में होती हैं। जब षष्ठी का चन्द्र रहता है, तब शाम के समय पहला अर्घ्य दिया जाता है, जिसे पहली पूजा कहते हैं। इसमें सूर्यास्त के बाद चन्द्र-दर्शन करते हैं। दूसरे दिन जब सूर्योदय होता है, फिर अर्घ्य दिया जाता है। इसे दूसरी पूजा कहते हैं।
आध्यात्मिक पक्ष
संत जन बतलाते हैं कि छठ पूजा या षष्ठी व्रत जो बाहर में लोग करते हैं, वह सांकेतिक है। वास्तविक छठ पूजा तो अपने अंदर की जाती है, जिससे मानव का परम कल्याण होता है। एक बंगाली महात्मा योगी पंचानन भट्टाचार्य ने कहा है-
‘मूलाधाराबधि पंच चक्र भेदी,
आज्ञाचक्रे यदि थाक निरबधि ।
देखिबे से निधि जाबे भवव्याधि,
भासिबे आनन्द सागरे ।।’
शरीर के अंदर मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणि- पूरक, अनाहत और विशुद्ध; इन पाँच चक्रों का भेदन करके जब आज्ञाचक्र में जाओगे, तो वह खजाना मिलेगा कि तुम्हारे सारे दुःख-दर्द समाप्त हो जाएँगे और तुम आनंद के सागर में गोता लगाओगे। वहाँ कैसा आनन्द मिलेगा? तो वे कहते हैं-
‘आनन्दे आनन्द बाढ़े प्रतिखन ।
दशेन्द्रिय थाके शून्ये ते बन्धन ।। रिपुचय पराजय सकलि आनंदमय ।
अनुभव मात्र रय आर सब पाय लय ।
जेमन जीवने जीवन थाके ना ।।’
तुम्हारे षट् रिपु-काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य; ये सब हार जाएँगे, दसो इन्द्रियाँ थक जाएँगी और उत्तरोत्तर आनन्द बढ़ता ही जाएगा। वास्तविक छठ पूजा आज्ञाचक्र, जिसे छठाचक्र भी कहते हैं, उसमें प्रवेश करने के बाद ही आरंभ होती है। साधक अंतस्साधना के द्वारा जैसे ही आज्ञाचक्र से सहस्त्रदल कमल में पहुँचता है, उसे चन्द्र-दर्शन होता है। यहाँ षष्ठी व्रत का पहला अर्घ्य पूरा होता है। वहाँ से साधक जब आगे बढ़ता है तो वह त्रिकुटी में पहुँचता है। यहाँ उसे सूर्य-दर्शन होता है। महर्षि मेँहीँ-पदावली में आया है-
त्रिकुटी सूरज ब्रह्म दरस कर, सुरत शब्द रल री ।
साधक त्रिकुटी में पहुँचकर सूर्य-दर्शन करता है और उसकी सुरत उसमें लीन हो जाती है। यहाँ सप्तमी का अर्घ्य भी पूरा हो जाता है।
हमलोग नित्य गायत्री मंत्र का पाठ करते हैं-
‘ ओऽम् भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो
देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ।’
यह सविता क्या है? सविता के अनेक अर्थों में एक अर्थ सूर्य भी होता है। यह सूर्य बाह्याकाश का नहीं, अन्तराकाश का है। बाह्याकाश के इस सूर्य को सभी जानते हैं। इसमें आप कितना प्रकाश देखते हैं! जबकि यह जड़ सूर्य है और आपके अन्दर में चैतन्य सूर्य है, उसका प्रकाश कितना और कैसा होगा? सन्त पलटू साहब कहते हैं-
‘आफताब तसद्दुक लाख है जी ।’
आफताब कहते हैं सूर्य को। लाखों सूर्यों के समान वह प्रकाशमान है, यह तो समझने के लिए उपमा दी गई है। वास्तव में उस अलौकिक तेज का वर्णन नहीं हो सकता। सन्तमत के लोग प्रतिदिन सन्त तुलसी साहब की आरती का पाठ करते हैं-
‘कोट भान छवि तेज उजाली।’
अर्थात् करोड़ों सूर्यों के समान उसका प्रकाश है। हमारे गुरुदेव क्या कहते हैं, उनकी स्वानुभूति सुनिए-
‘जा सम्मुख या सूर्य अमित अन्धार है,
ऐसो सूर्य महान चन्द हद पार है ।’
वे कहते हैं कि आपके अन्दर में जो सूर्य है, उस सूर्य का जो प्रकाश है, उस प्रकाश के सामने इस स्थूलाकाश के सूर्य का प्रकाश अन्धकारवत् है अर्थात् उस प्रकाश के सामने यह प्रकाश घोर अन्धकारमय मालूम होता है। आपके अन्दर में जो सूर्य प्रतिष्ठित है, वह कहाँ है? उत्तर है-‘चन्द हद पार है।’ साधना काल मेंं साधक को सहस्त्रदल कमल में चन्द्र-दर्शन होता है, और आगे बढ़ने पर त्रिकुटी मेंं सूर्य-दर्शन होता है।
एक ब्राह्मण देवता थे। वे अन्तस्साधना करते थे। अन्य ब्राह्मण जिस तरह बाह्य पूजा, अर्चना, वन्दना, तर्पण, होम आदि करते थे, उस तरह वे नहीं करते थे। उनकी धर्मपत्नी जब आस-पड़ोस में घूमने- फिरने अथवा किसी कार्य-विशेष से कहीं जाती, तो उनसे महिलाएँ कहतीं-‘अरी ! तुम तो ब्राह्मणी हो; लेकिन तुम्हारा विवाह शूद्र से हो गया है। तुम्हारे पति तो कभी ‘संध्या-वंदन, पूजा-पाठ आदि कुछ करते ही नहीं हैं।’ ब्राह्मणी घर लौटकर आती और पतिदेव से सारी बातें कहतीं। उनके पतिदेव सुनते और मुस्कुराकर रह जाते, कुछ बोलते नहीं। इसी तरह कितने दिन बीत गए। उपालम्भ सुनते-सुनते बेचारी ब्राह्मणी तंग आ गयी। पुनः एक दिन एक पड़ोसिन महिला ने उन्हें बहुत तरह से बहुत कुछ कह दिया। उस दिन वह बहुत दुःखी होकर, रो-रोकर अपने पतिदेव से कहने लगी-‘पतिदेव! मैं पड़ोसिनों का ताना सुनते-सुनते तंग आ गयी हूँ। आप भी और ब्राह्मणों की तरह संध्या-वन्दन क्यों नहीं करते? ब्राह्मणोचित कर्म तो आपको करना ही चाहिए। मैं बराबर आपसे कहती हूँ; किन्तु आप मेरी बातों पर कुछ भी ध्यान नहीं देते।’ इस पर वे ब्राह्मण देवता बोले-‘देवि! तुम नहीं जानती हो और वे देवियाँ भी नहीं जानतीं, जो तुमको उपालम्भ देती रहती हैं। अरी, सुनो-
‘हृदाकाशे चिदादित्यः सदा भासति भासति ।
नास्तमेति न चोदेति कथं संध्यामुपास्महे ।।
(मैत्रेय्युपनिषद्)
अर्थ-हृदय-आकाश में चैतन्यरूप सूर्य बराबर उगा रहता है, न कभी अस्त होता है और न कभी उदय लेता है; संध्या कैसे करूँ?’
संध्या किसको कहते हैं? जब रात्रि का अन्त होता है और दिन का प्रारंभ होता है, तो उन दोनों की संधि-बेला को संध्या कहते हैं। इसी तरह जब दिन का अन्त होता है और रात्रि का प्रारंभ होता है; उसको भी संध्या कहते हैं तथा एक मध्याह्नकाल को संध्या कहते हैं। ये ही त्रिकाल संध्याएँ हैं।
बाहर के सूर्य का उदय और अस्त होना होता है; किन्तु हमारे अन्दर में चैतन्य रूप सूर्य है, जो बराबर उगा ही रहता है। वह न तो कभी उगता है और न कभी डूबता है। रामचरितमानस-सहित उपनिषद्, गीता एवं संतवाणी का जब हम अवलोकन करते हैं, तो उनमें विविध ज्योतियों-प्रकाशों के सहित दिव्य मार्त्तण्ड के वर्णन भी हम पाते हैं। यथा-मण्डल ब्राह्मणोपनिषद् ब्राह्मण 2 में है-
‘आदौतारकवद्दृश्यते ततो वज्रदर्पणम् तत् उपरि पूर्णचन्द्रमण्डलम्। ततो नवरत्न प्रभामण्डलम् ततो मध्याह्नार्क मण्डलम्। ततो वह्निशिखा मण्डलम् क्रमाद्दृश्यते। तदा पश्चिमाभिमुख प्रकाशः स्फटिक धूम्र विन्दुनाद कला नक्षत्र खद्योत दीप नेत्र स्वर्ण नवरत्नादि प्रभा दृश्यन्ते।’
अर्थात् आरंभ में तारा-सा दीखता है। तब हीरा के ऐना की तरह दीखता है। उसके बाद पूर्ण चन्द्रमण्डल दिखलाई देता है। उसके बाद नौ रत्नों का प्रभामण्डल दिखाई देता है। उसके बाद दोपहर का सूर्य मण्डल दिखाई देता है। उसके बाद अग्नि शिखामण्डल दिखाई देता है। ये सब क्रम से दिखाई देते हैं। तब पश्चिम की ओर प्रकाश दिखाई देता है। स्फटिक, धूम्र, विन्दु, नाद, कला, तारा, जुगनू, दीपक, नेत्र, सोना और नवरत्न आदि की प्रभा दिखाई देती है। योगशिखोपनिषद् का निम्नलिखित श्लोक उपर्युक्त (मंडल ब्राह्मणोपनिषद् के) ऋषि वाक्यों को भली भाँति परिपुष्ट करता है। इसमें बतलाया गया है कि योगयुक्त योगी को ध्यानयोगाभ्यास करते समय क्या-क्या अनुभूतियाँ होती हैं?
दीप ज्वालेन्दु खद्योत विद्युन्नक्षत्र भास्वराः ।
दृश्यन्ते सूक्ष्म रूपेण श्रद्धायुक्तः योगिनः ।।
अर्थात् योगयुक्त योगी को सूक्ष्म रूप से दीप, ज्वाला, चन्द्रमा, जुगनू, बिजली, तारा तथा सूर्य देखने में आते हैं।
आदि संत भगवान् बुद्ध कहते हैं-हंसादिच्च पथेयन्ति-----। अर्थात् हंस (पवित्र आत्मा) सूर्य के रास्ते में चलते हैं। संत कबीर साहब अपनी साधनानुभूति बतलाते हुए कहते हैं-
‘यहि घट चन्दा यहि घट सूर ।
यहि घट बाजै अनहद तूर ।।’
पुनश्च, ‘कबीर कमल प्रकाशिया, उगा निर्मल सूर ।
रैन अँधेरी मिट गई, बाजै अनहद तूर ।।’
जब हम गुरु नानकदेवजी से जिज्ञासा करते हैं कि ऋषियों और सन्तों की उपर्युक्त वाणियों के संबंध मेंं आपकी क्या धारणा है? तो वे अपनी साधनानुभूति की जो कुछ कहते हैं, उपनिषद् एवं सन्तवाणी से तारतम्य करने पर शब्दशः मिली-जुली प्रतीत होती है। वे स्पष्ट शब्दों में गुरु की दुहाई देते हुए कहते हैं-
निशि दामिनि जिउ चमकि चन्दाइणु देखै ।
अहि निसि जोति निरंतरि पेखै ।।
आनंदस्वरूप अनूप सरूपा गुरु पूरै देखाइआ ।।
सतिगुर मिलहु आपे प्रभु तारे ।
शशि धरि सूर दीपक गैणारै ।।’
‘अन्तरि जोति भई गुरु साखी चीने राम करंमा ।
नानक हउमै मारि पतीणे तारा चड़िया लंमा ।।’
महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज की वाणी में भी अन्तस्साधना के प्रसंग में चन्द्र और सूर्य की चर्चा देखने को मिलती है। जैसे-
‘छट-छट छट-छट बिजली छटकै
भोर का तार दिखाता है ।
चन्दा उगत उदय हो रविहू
धूर शब्द मिल जाता है ।।’
ग ग ग
त्रिकुटी सूरज ब्रह्म दरस कर सुरत शब्द रल री ।
घटवा घोर रे अंधारी स्त्रुति आँधरी भई ।।
(महर्षि मेँहीँ-पदावली)
मात्र वैदिक साहित्यों में ही नहीं, कुरानशरीफ (पारा 7, सूरा 6, अल अन-आम) में भी चन्द्र-दर्शन और सूर्य-दर्शन का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। जब हम रामचरितमानस का अध्ययन करते हैं, तो उसमें कई स्थानों पर सूर्य की चर्चा पाते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी ने विशेषकर उत्तरकाण्ड में आंतरिक सूर्य का बड़ा अच्छा वर्णन किया है। वे लिखते हैं-
‘जब ते राम प्रताप खगेसा ।
उदित भयउ अति प्रबल दिनेसा ।।
पूरि प्रकास रहेउ तिहूँ लोका ।
बहुतेन्ह सुख बहुतेन्ह मन सोका ।।’
जबसे राम प्रताप रूप अत्यन्त प्रबल सूर्य (हृदय में) उदित हुआ, तबसे तीनों लोकों में भरपूर प्रकाश हो रहा है; लेकिन उस प्रकाश से कुछ लोगों को सुख होता है, तो कुछ लोगों को दुःख भी होता है। अब गोस्वामीजी विभाजन करते हैं कि दुःख किसे होता है और सुख किसे होता है।
‘जिन्हहिं शोक ते कहऊँ बखानी ।
प्रथम अविद्या निसा नसानी ।।’
पहले वे बतलाते हैं कि दुःख किसको हुआ। जब बाहर में सूर्य उदय होता है, तो रात समाप्त हो जाती है, बाहर का अंधकार नष्ट हो जाता है। उसी तरह जिसके अंदर में सूर्य उदय हो जाता है, उसके अंदर की अज्ञानता-रूपी रात समाप्त हो जाती है।
‘अघ उलूक जहँ-तहाँ लुकाने ।
काम क्रोध कैरव सकुचाने ।’
जब अँधेरी रात रहती है, उल्लू जहाँ-तहाँ घूमता और चें-चें आवाज करता रहता है; लेकिन दिन होते ही वह छिप जाता है, नजर नहीं आता। उसी तरह अंतर में सूर्य उदय होने पर पापरूपी उल्लू भागकर छिप जाता है। हमारी एक स्थिति ऐसी होती है कि मन में पाप-वृत्ति उठती है और हम पाप में प्रवृत्त हो जाते हैं। दूसरी स्थिति ऐसी होती है कि मन में पाप-वृत्ति तो उठती है, पर हम उसे दबा देते हैं कि हमें ऐसा नहीं करना चाहिए। तीसरी स्थिति में जब अंदर में सूर्य का दर्शन हो जाता है, तो पाप-वृत्ति उठती ही नहीं है। ऐसे व्यक्ति ‘अघ उलूक’ अर्थात् झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार से वर्जित हो जाते हैं। ‘काम क्रोध कैरव सकुचाने।’ कैरव कहते हैं कुमुदिनी फूल को। वह चन्द्रमा को देखकर खिलता है और सूर्योदय होने पर मुरझा जाता है। गोस्वामीजी कहते हैं कि अन्दर में जब सूर्योदय होता है, तो काम-क्रोध रूप कुमुदिनी फूल मुरझा जाता है, सिकुड़ जाता है। जैसे बाहर में प्रकाश होने पर बाहर के कीड़े-मकोड़े उसमें गिर-गिरकर मरते हैं, उसी प्रकार जब अंदर मेंं सूर्य का प्रकाश फैलता है, तो हमारे अंदर के पाप रूपी कीड़े-काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि उसमें जलकर समाप्त हो जाते हैं।
‘विविध कर्म गुन काल सुभाऊ ।
ये चकोर सुख लहहिँ न काऊ ।।’
चकोर पक्षी को चन्द्रमा प्रिय होता है, वह रात में एकटक चन्द्रमा को निहारता रहता है, उसे सूर्य नहीं भाता। उसी तरह हमारे विविध कर्म, गुण और स्वभाव को आंतरिक सूर्य के उदय होने पर सुख नहीं मिलता अर्थात् इसकी प्रबलता नहीं रहती।
‘मत्सर मान मोह मद चोरा ।
इन्ह कर हुनर न कबनिहु ओरा ।।’
जो चोर होते हैं, वे रात में अपनी कलाबाजी दिखाते हैं और सुबह होने से पहले भाग जाते हैं। उसी तरह अन्तःप्रकाश होने पर मत्सर (ईर्ष्या), मान (प्रतिष्ठा का विचार), मोह (अज्ञानता), मद (अहंकार) रूपी चोर की कलाबाजी नहीं चलती है। अब अन्तर में सूर्य उदय होने पर किसे सुख होता है, वह देखिए-
‘धरम तड़ाग ज्ञान विज्ञाना ।
ये पंकज विकसे बिधि नाना ।।’
बाहर में सूर्योदय होता है, तो बाहर में कमल खिलते हैं और जब अन्दर में सूर्योदय होता है, तो धर्म रूपी तालाब में ज्ञान और विज्ञान रूपी आंतरिक कमल खिलते हैं। सबमें ईश्वर है-यह है ज्ञान और सब ईश्वर में है-यह है विज्ञान। आंतरिक सूर्य-दर्शन से साधक ज्ञान-विज्ञान की खान हो जाता है।
‘सुख संतोष विराग विवेका ।
विगत सोक ये कोक अनेका ।।’
कोक कहते हैं-चकवा पक्षी को। चकवा- चकवी को रात प्रिय नहीं होती, दिन प्रिय होता है। रात के समय दोनों अलग रहते हैं, मिल नहीं पाते। पर जब दिन होता है, तो दोनों आकर मिल जाते हैं। उसी तरह जब अन्तःप्रकाश होता है तो सुख, संतोष, विराग और विवेक रूपी चकवा पक्षी शोक-रहित हो जाते हैं अर्थात् ऐसे साधक को सार-असार का ज्ञान हो जाता है, उसे विषय की चाहना समाप्त हो जाती है, सांसारिक पदार्थों से विराग हो जाता है और वह आत्म-सुख प्राप्त करता है।
यह प्रताप रवि जाके, उर जब करइ प्रकास ।
पछिले बाढ़हिं प्रथम जे, कहे ते पावहिं नास ।।
रामप्रताप रूपी सूर्य जब जिसके हृदय में प्रकाश करता है, तब उसके हृदय में ‘पछिले बाढ़हिँ’-जो बाद में कहे गए हैं अर्थात् ज्ञान, विज्ञान, सुख, संतोष, विराग, विवेक आदि बढ़ जाते हैं और जो पहले कहे गए हैं अर्थात् अज्ञान, पाप, काम, क्रोध, मोह, मद आदि सभी विनाश को प्राप्त होते हैं।
प्रतिवर्ष शत-शत प्राणी सहस्त्रों मुद्रा व्यय करके अनेक कष्टों को झेलते हुए दार्जिलिंग जाते हैं और वहाँ वात्यशून्यावस्थित दिनकर को देख अपने को धन्य समझते हुए, प्रसन्नता से फूले नहीं समाते हैं, तब उस अन्तस्थ सूर्य-दर्शन की तो बात ही क्या? जिन्होंने अपने अन्दर उसे देख पाया, अपनी स्थिति वहाँ कर पायी और जो बारम्बार उसमें निमग्न होता रहता है, उस भगवद्भक्त के भाग्य को देखकर देवता भी लज्जित होते हैं। फिर उस साधक की प्रसन्नता और उसके आनन्दातिरेक का वर्णन कौन कर सकता है? वेद, उपनिषद् एवं सन्त वाणियों में प्रयुक्त प्रकाशों के वर्णन को पढ़कर साधक के मन में एक कौतूहल-सा होता है-एक उत्सुकता होती है-काश, एक बार देख पाता वह प्रकाशपुंज! वह ब्रह्मतेज!! वह स्वर्णिम सूर्य!!!
भक्तियोग के सच्चे साधकों को अपने हृदय में यह तब दरसता है, जब वे रामचरितमानस में वर्णित नवधा भक्ति की छठी भक्ति का साधन पूर्णरूप से कर लेते हैं। इसी सूर्य को रामचरितमानस के बालकाण्ड में ‘कृसानु भानु हिमकर’ कहा गया है और उत्तरकाण्ड में ‘रामप्रताप प्रबल दिनेश’ कहा गया है। उसमें यह भी लिखा है कि अज्ञान, पाप, काम और क्रोधादि ताप मनुष्य के हृदय को दग्ध करते हैं; परन्तु साधना में लवलीन भक्त अपने हृदय में त्रिकुटी महल पर चढ़कर ऊपर कथित सूर्य के दर्शन पाते हैं और इससे, ऊपर वर्णित विकारों का ताप उनके हृदय से दूर हो जाता है। जिस तरह बाहर के प्रकाश में बाहर के कीड़े-मकोड़े आ-आकर गिरते और जल-भूनकर समाप्त होते हैं, उसी तरह हमारे अन्दर के प्रकाश में आन्तरिक कीड़े-काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य आदि जल-भूनकर समाप्त होते हैं; सारे विकार विनष्ट हो जाते हैं। हृदय शीतल एवं शान्त हो जाता है और उसमें ज्ञान, विज्ञान, सुख, संतोष, विराग और विवेक बढ़ जाते हैं।
‘रामप्रताप प्रबल दिनेश’ के प्रसंग को पढ़कर यह समझ लेना बड़ी भूल होगी कि यह सूर्य त्रेतायुग में मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् राम के अवधेश रहने के समय में उदित था, अब अस्त हो गया है। वास्तव में यह सर्वदा सबके हृदयरूप आकाश में (बाहरी आकाश में नहीं) उदित है; पर उल्लू पक्षीरूप अनधिकारी को अपने अन्तर में नहीं दरसता है।
‘घूघर अन्धे भेष टेक अभिमान में ।
सुझै न सबमें ब्रह्म धुन्ध अज्ञान में ।।
घूघर नेतर खुलै सुनो सोई साध है ।
देखै तन बिच भान सो ब्रह्म अगाध है ।।’
‘ज्यों दुपहैर गगन रवि छाई ।
तासे उजास भया घट माहीं ।।’
-तुलसी साहब
‘यह प्रताप रवि जाके, उर जब करै प्रकास ।’ का अर्थ यह नहीं होता है कि किसी एक ही युग वा युग-भाग में यह सूर्य उगा था; परन्तु यह अर्थ होता है कि यह सूर्य जब जिसके हृदय में प्रकाश करे। (अर्थात् योगी भक्त इसके दर्शन का साधन जब करेगा, तब वह अपने अन्तर में इसका दर्शन पाएगा।) इसलिए जो कोई ध्यान करते हैं, तो ध्यान करने से अन्तःप्रकाश मिलता है, उस प्रकाश को पाकर उनका मन उज्ज्वल-पवित्र हो जाता है। जो अन्धकार में रहते हैं, तो अन्धकार का रूप है काला, इसलिए उनके कारनामें काले हों, इसमें आश्चर्य की कौन-सी बात है! अन्तस्साधना-द्वारा अन्तःप्रकाश पानेवाले का मन पवित्र हो जाता है। वह अपवित्र कर्म कैसे करेगा ? अतः उससे ऐसे कर्म ही नहीं होंगे, जिनसे वह नरक भोगेगा। ध्यान-योग से ही पापों का नाश होता है और कोई दूसरा उपाय नहीं है। इसीलिए सामवेद कहता है-‘भिद्यते ध्यानयोगेन नान्यो भेदः कदाचन ।’ ऐसा उपाय, ऐसा यत्न अथवा ऐसी विधि हमको मिलनी चाहिए कि हम अन्धकार से प्रकाश मेंं जा सकें। हम पाठ करते हैं-
‘तमसो मा ज्योतिर्गमय ।
असतो मा सद्गमय । मृत्योर्मा अमृतगमय ।’ केवल पाठ करते रहने से हम न तो अन्धकार से प्रकाश में जा सकते, न असत्य से सत्य में जा सकते और न मृत्यु के मुख से छूटकर अमृतत्व का लाभ कर सकते हैं।
उपर्युक्त महावाक्यों में अन्योन्याश्रित संबंध है। एक तरफ तम है और दूसरी तरफ प्रकाश है। एक तरफ असत्य है, तो दूसरी तरफ सत्य है। एक तरफ मृत्यु है, तो दूसरी तरफ अमृत है। मतलब यह कि जबतक हम तम में रहेंगे, तबतक असत्य में रहेंगे और मृत्यु के मुख में जाएँगे और जब हम प्रकाश में जाएँगे, तो सत्य में रहेंगे और अमृतत्व की ओर जाएँगे।
अन्धकार से प्रकाश में हम चले जाएँगे, ज्योति को प्राप्त कर लेंगे, तो असत्य से सत्य में चले जाएँगे और अमृतत्व को प्राप्त कर लेंगे। इसीलिए ऐसी क्रिया-विशेष चाहिए, जिससे हम अन्धकार से प्रकाश में जा सकें। यही सूर्योपासना का मौलिक स्वरूप और उद्देश्य है। त
(शान्ति-संदेश, नवम्बर 2003)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
साधारणतया लोग दैहिक, दैविक और भौतिक-इन त्रितापों को जानते हैं, जिसका संबंध शरीर से है। देह में उत्पन्न रोग दैहिक, अकस्मात् कुछ हो जाए, जैसे दुर्घटना वगैरह-यह दैविक और एक जीव से दूसरे जीव को कष्ट हो जाए, यह भौतिक दुःख है। इन त्रितापों से लोग संतप्त होते ही रहते हैं। इनको आधि कहते हैं। जैसे शरीर में रोग होते हैं, वैसे ही मन में भी रोग होते हैं। मानसिक रोग को व्याधि कहते हैं। शारीरिक रोग को तो कोई पसंद नहीं करते हैं; लेकिन मानसिक रोग को लोग पसंद करते हैं। बल्कि इतना पसंद करते हैं कि उनको छोड़ना नहीं चाहते। उनके बारे में समझते ही नहीं कि ये रोग हैं, जैसे काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि।
सामान्यतया काम शब्द का अर्थ लोग कामदेव से लेते हैं; परन्तु संतों ने स्थान-भेद के अनुसार विविध तरहों से इसकी अभिव्यंजना की है। एक ओर काम को चार फल-अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष के अंदर रखा गया है। दूसरी ओर यह भी कहा गया है कि इस काम ने किसको बदनाम नहीं किया है।
महाराज दशरथ जिन्हें भगवान श्रीराम के पिता होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, ऐसे को भी काम ने बदनाम करके छोड़ा। जब कैकेयी कोप भवन में चली गई, तो दशरथ की क्या स्थिति हुई, इसका चित्रण गो0 तुलसीदासजी ने इन शब्दों में किया है-
सुरपति बसइ बाँहबल जाके ।
नरपति सकल रहहिं रुख ताके ।।
सो सुनि तिय रिस गयउ सुखाई ।
देखहु काम प्रताप बड़ाई ।।
देवराज इन्द्र जिनके बाहुबल पर बसते थे, संसार के सारे-के-सारे राजा हाथ जोड़कर जिनके सामने खड़े रहते थे कि राजेन्द्र का क्या आदेश हो जाए, ठिकाना नहीं; ऐसे सुरपति और नरपति पर अधि-कार रखनेवाले राजा दशरथ ने जब सुना कि पत्नी कोप भवन में चली गयी है, तो वे भय से सूख गये।
कोपभवन सुनि सकुचेउ राऊ ।
भयबस अगहुड़ परइ न काऊ ।।
डर के मारे उनके पैर आगे नहीं बढ़ रहे थे। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं कि यह काम का प्रताप और महिमा है। एक साधु बाबा जंगल में रहते थे। समय पर एक पहाड़ के समीप जाते थे, चट्टान की दरार में अपना मुँह लगाकर हवा खींचते थे और हवा पीकर रहते थे। वे वहीं रहकर जप-तप करते थे। एक बार उस प्रदेश का राजा उनके स्थान पर गया। साधु बाबा ने सोचा कि हमको राजा से क्या लेना-देना। कुछ आदर-सत्कार नहीं किया। राजा तो राजस प्रधान होते ही हैं, तामस में आ गया। उसके मन में हुआ कि मैं इनके आश्रम में आया और इन्होंने मेरी पूछ तक नहीं की, जबकि मेरे राज्य में बसते हैं। फिर भी राजा ने कहा-‘महाराज! आप घर-बार छोड़कर जंगल में वास करते हैं और इतने बड़े त्यागी हैं, तपस्वी हैं कि जंगल में भी कंद, मूल, फल नहीं लेते और हवा पीकर रहते हैं। आप अगर हमारे घर पधारिये, तो मेरा बड़ा अहोभाग्य होगा।’ साधु बाबा ने कहा-‘जब सब कुछ छोड़ ही दिया है, तो तुम्हारे यहाँ जाकर क्या करूँगा, नहीं जाऊँगा।’
राजा अंदर-ही-अंदर क्रोधित होकर चले गये। उसने एक वेश्या को बुलाकर कहा कि यदि तुम किसी तरह उस बाबाजी को यहाँ महल में ले आओ, तो जो इनाम माँगोगी, वह दूँगा। वेश्या जंगल में चली गयी। बाबाजी की दिनचर्या देखने लगी कि किस समय पूजा करने के लिए बैठते हैं, किस समय घूमते हैं, किस समय चट्टान पर मुँह लगाकर हवा लेते हैं। वेश्या ने वहाँ चट्टान पर थोड़ा शहद लगा दिया। बाबाजी मुँह से हवा जो खींचने लग गये, तो पहले तो सूखी हवा आती थी; किन्तु आज हवा में मिठास थी। इसलिए जितनी हवा लेते थे, उससे अधिक हवा लेने लग गये। फिर दूसरे दिन वेश्या ने छिपकर थोड़ा मोटा शहद लगा दिया। जब बाबाजी ने जोर से हवा खींचा, तो हवा के साथ उधर से शहद चूकर आने लगा। मीठा लगा तो शहद चाट भी लिया। कुछ स्वाद लगा। दूसरे दिन और शहद डाल दी, तो उसको भी उन्होंने चाट लिया। अब धीरे-धीरे आदत लग गयी। होते-होते एक दिन वहाँ हलवा बनाकर चिपका दिया। बाबा हलवा भी चाट गये। अब रोज हलवा चिपकाने लगी। वह जो हवा पीकर रहते थे, हलवा खाने लग गये, तो अब शरीर में कुछ बल भी आने लग गया। एक दिन वह सामने आ गयी, तो बातचीत भी हुई। फिर बात और भी बढ़ी और बात बढ़ते-बढ़ते यहाँ तक बात बढ़ी कि प्रेम हुआ और बाल-बच्चे तक हो गये।
एक दिन वेश्या ने कहा-‘बाबा! जंगल में हमलोगों का गुजर तो होगा नहीं, बच्चे का परवरिश कैसे करेंगे? राजा बड़े दानी हैं। हमलोगों को देखेंगे, तो वे जरूर इतना धन देंगे, जिससे हमारा गुजर हो जाएगा।’ दो बच्चे थे। जो छोटा बच्चा था, उसको कंधे पर लिया और जो चलनेवाला था, उसको हाथ में पकड़ लिया। राजा के दरबार में गये। वेश्या जाकर नमस्कार करती है। राजा ने कहा कि माँगो, क्या वरदान माँगती है?’ फिर साधु बाबा से कहा कि बाबा! आपको मैंने निमंत्रण दिया था राजभवन आने के लिए; लेकिन उस दिन तो नहीं आये। आपकी बड़ी कृपा हुई कि दर्शन देने के लिए आ गये।’ संत कबीर साहब ने कहा-
काम कथा सुनिये नहीं, सुनिके उपजै काम ।
कहै कबीर विचार के, बिसर जाय सतनाम ।।
जहाँ काम तहँ नाम नहीं, जहाँ नाम नहिं काम ।
दोनों कबहूँ ना मिलै, रबि रजनी इक ठाम ।।
शरीर युवा हो, स्वस्थ हो और कुछ श्री की भी प्राप्ति हो जाय, तो जहाँ कंचन है, वहाँ काम आना ही है। अपने ही मत के एक सत्संगी थे। उसके पास बहुत पैसे थे। लोगों को कर्ज देने का काम करते थे। वे गुरु महाराज के पास आते-जाते थे। एक दिन गुरु महाराज बोले कि तुम्हारे पास पैसा भी है, लहना-तगादा भी करते हो। ये माया-मोह तुमको नीचे खींचेगा। इसलिए बैठकर ध्यान-भजन करो। उसने बात नहीं मानी। पत्नी मर गयी। लहना-तगादा में रुपये-पैसे बढ़ने लगे, तो बढ़ते-बढ़ते धन अधिक हो गये। अब उस धन को भोगेगा कौन? इसलिए पुनः शादी कर ली और फिर उनके बाल-बच्चे हो गये। ये तो देखी हुई बात हैं। उसके बच्चे अभी भी आश्रम आते हैं। तो यह है काम की महिमा।
काम क्रोध मद लोभ की,जब लग घट में खान ।
कहाँ मूरख कहाँ पंडिता, दोनों एक समान ।।
जब विकार ग्रसित करता है, तब मूर्ख और पंडित में कोई अंतर नहीं रह जाता। दोनों का व्यवहार एक जैसा हो जाता है। गोस्वामीजी कहते हैं-
काम बात कफ लोभ अपारा।
क्रोध पित नित छाती जारा ।।
प्रीति करहिं जौं तीनिउ भाई।
उपजइ सन्निपात दुखदाई ।।
शरीर में कफ, पित और वात; ये तीनों संतुलित अवस्था में रहने से कोई रोग नहीं होता। इन तीनों में जब विषमता होती है, न्यूनाधिकता होती है, तो रोग उत्पन्न होते हैं। जैसे साम्यावस्थाधारिणी मूल प्रकृति में रज, सत और तम; तीनों सम अवस्था में रहते हैं, तो सृष्टि नहीं होती है। गोस्वामीजी कहते हैं कि काम वातरोग के समान है। वातरोग बहुत तरह के होते हैं, जिनमें एक होता है गठिया। वह केवल गाँठ (जोड़ों) को पकड़ता है और चलने नहीं देता है। जो व्यक्ति कामासक्त है, समझिये कि उसे आध्यात्मिक गठिया रोग हुआ है। वह रोग उसको पकड़कर रखेगा। वस्तुतः संत कबीर की दृष्टि में तो-
काम काम सब कोइ कहै, काम न चीन्है कोय ।
जेती मन की कल्पना, काम कहावै सोय ।।
हमारी जितनी इच्छाएँ हैं, सब काम ही काम हैं। गोस्वामीजी बतलाते हैं या यों समझ लीजिए कि काकभुशुण्डि गरुड़जी से कह रहे हैं-‘कफ लोभ अपारा’। लोभ कफ के समान है। कफ बढ़ते-बढ़ते जब कंठ को धर लेता है, तो लोग कहते हैं कि अब तो कंठ बंद हुआ, अब ये चलेंगे। उसी तरह लोभ जब बढ़ता है और बढ़ते-बढ़ते कंठ तक आ जाता है, तो उसका अध्यात्म-ज्ञान जाना ही है।
मक्खी बैठी शहद पर, पंख गयी लिपटाय ।
हाथ मलै और सिर धुनै, लालच बड़ी बलाय ।।
गृहस्थ बेचारे लालच में रहते हैं; क्योंकि उनको बच्चे को लिखाना-पढ़ाना, विवाह कराना, घर-द्वार बनाना; ये सब करना पड़ता है। लेकिन साधु-महात्मा भी अगर ध्यान-भजन छोड़कर हाय पैसा, हाय पैसा करने लगे, तो उसको भी एक दिन यम कंठ धरेगा। पर यह बहुत दुःख की बात है। ध्यान-भजन की कोई कीमत नहीं; लेकिन पैसे की कीमत देते हैं, तो क्या होगा? गृहस्थ करते हैं अपने बच्चे के लिए और साधु करते हैं अपने चेले के लिए; दोनों में क्या अंतर रहा? ‘जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई’। आज इतना हुआ और कल इतना होगा, इसी में लगा रहता है। गृहस्थ कमाता है, तो अपने बाल-बच्चे का भरण- पोषण करता है और कुछ शुभ कर्मों में भी खर्च करता है, कुछ साधु-महात्माओं को भी देता है। पर साधु-बाबाजी जमा ही करता जाय, कुछ खर्च न करे, तो पाप घेरेगा ही।
‘क्रोध पित नित छाती जारा।’ क्रोध है पितरोग। क्रोध व्यक्ति को अबोध कर देता है और प्रतिशोध की भावना उत्पन्न करता है। क्रोध एक प्रकार का नशा है। जैसे कोई नशा पान कर लेता है, तो उसे कोई सुध-बुध नहीं रहती है, स्व-पर का ज्ञान रहता नहीं है, उसी तरह जब क्रोध का नशा चढ़ता है, तो लोग स्व-पर का ज्ञान भूल जाते हैं। क्रोध के कारण स्वजन भी परजन हो जाता है, मित्र भी शत्रु हो जाता है। नशे में आदमी क्या बोलेगा, क्या करेगा, ठिकाना नहीं है; उसी तरह आदमी जब क्रोध में आ जाता है, तो वह क्या करेगा, क्या बोलेगा, कोई ठिकाना नहीं।
एक शराबी नशा में मस्त होकर बाजार से लौट रहा था। लड़खड़ाते हुए वह नाले में गिर गया। एक कुत्ता उसके मुँह को सूँघने लगा। अब वह बड़बड़ाता हुआ कहता है कि नगरपालिका का चेयरमैन कैसा है, दिनभर तो नाले को सड़क के किनारे रखता है, पर जब मेरे चलने का समय होता है, तब नाले को सड़क के बीच लाकर रख देता है। शराब के नशे में मस्तिष्क बिगड़ जाता है। अंग्रेजों का जमाना था। बनमनखी (पूर्णियाँ) में वैसा ही एक शराबी था। उसके सामने एक अंग्रेज की कोठी थी। वह नील का व्यापार करता था। जब शराबी नशा में मस्त हो जाता, तब कहता था-वह नील कोठीवाला जो साहब है, उसको बुलाओ। पूछो कि अपनी कोठी का कितना दाम लेगा। उस अंग्रेज का जो नौकर था, उसको अच्छा नहीं लगता था। उसने मालिक से कहा कि साहब! वह तो ऐसा-ऐसा बोलता है।
अंग्रेज ने कहा कि उसे पकड़कर लाओ मेरे सामने। उसे लाया गया। वह पीकर मस्त था। साहब ने पूछा-‘तुम मेरी कोठी मोल लोगे?’ उसने कहा, ‘हाँ लेंगे।’ पुनः शराबी बोला-‘कितना दाम लेगा?’ अंग्रेज ने कुछ बता दिया कि इतना दाम लेंगे, तुम्हारे पास है? उसने कहा, ‘हाँ है; लेकिन आज नहीं, कल लूँगा।’ जब नशा उतर गया, तो दूसरे दिन सिपाही उसे पकड़कर अंग्रेज के पास ले गया। अंग्रेज पूछता है-‘तुमने तो कहा था कि कल आठ बजे दाम देंगे और कोठी खरीदेंगे। दाम लाओ।’ बोला-‘हुजूर की कोठी को कौन मोल लेनेवाला है। मोल लेनेवाला जो था, वह तो रात को ही चला गया।’ गोस्वामीजी कहते हैं कि कफ, पित, और वात; जब ये तीनों रोग मिल जाते हैं, तो सन्निपात की बीमारी हो जाती है, जिससे बचना कठिन हो जाता है। उसी तरह काम, क्रोध और लोभ; जिसके पास ये तीनों हैं, तो आध्यात्मिक जगत् से वे गये गुजरे हैं-
विषय मनोरथ दुर्गम नाना।
ते सब सूल नाम को जाना ।।
इस तरह विविध रोगों का वर्णन करते हुए गोस्वामीजी ने यहाँ तक कह दिया कि ये षट् विकार रोग सबको हैं; लेकिन विरले आदमी इस रोग को समझ पाते हैं।
मानस रोग कछुक मैं गाये।
हैं सबके लख बिरलन्हि पाये ।।
लोग शारीरिक रोग को तो दुःख मानते हैं; लेकिन काम, क्रोध या लोभ में फँसे हुए हैं, पर इनमें दुःख कहाँ मानते हैं। इसमें तो सुख मानते हैं। जैसे जलती हुई आग में घी डालते जाइए, ज्वाला और बढ़ती जाएगी। उसी तरह ‘बुझै न काम अगिनि तुलसी कहुँ विषय भोग बहु घी ते।’ भोग करते जाइए, पर तृष्णा की आग खत्म होने को नहीं है। लोग काम की निंदा करते हैं। क्रोध की उतनी निंदा नहीं करते हैं। कामना की पूर्ति होती है, मनोनुकूलता होती है, तो क्रोध नहीं होता है। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है-‘कामात्क्रोधोऽभिजायते।’ काम की पूर्ति नहीं होती है, तो क्रोध उत्पन्न होता है। इसलिए काम से क्रोध का स्थान बहुत ऊँचा है। बालपन में काम की उत्पत्ति नहीं होती है। युवावस्था में इसकी प्रबलता होती है और जैसे उम्र बढ़ती है, इसमें क्षीणता आती जाती है। बुढ़ापे में मन वही है, पर इन्द्रिय काम नहीं करती है। इसलिए वह काम का उपभोग कर नहीं सकता है। लेकिन आप देखेंगे कि क्रोध बचपन से ही शुरू हो जाता है। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जाती है, उसकी मात्र भी बढ़ती जाती है। बुढ़ापे में तो और बढ़ जाती है। बच्चे को भूख लगती है, माँ आकर दूध पिलाती है। कभी माँ को देर हो जाए, तो बच्चा दूध नहीं पीता है, रूठ जाता है, क्रोध शुरू हो जाता है। क्रोध बचपन, जवानी के साथ बुढ़ापे में भी होता है; लेकिन काम की प्रबलता जवानी में रहती है, बचपन और बुढ़ापे में नहीं। दूसरी बात यह है कि नारी पुरुष पर काम-मोहित होती है और पुरुष नारी पर। पर नारी नारी पर और पुरुष पुरुष पर काम-मोहित नहीं होता। लेकिन क्रोध नारी नारी पर भी करती है और पुरुष पुरुष पर भी करता है। पुरुष नारी पर भी करता है और नारी पुरुष पर भी करती है।
मोह न नारि नारि के रूपा।
पन्नगारि यह नीति अनूपा ।।
यदि लोगों के बीच बैठे हैं और काम भावना जागृत हो गई, तो लोगों को देखकर उस भाव को दबा देते हैं। लेकिन हजारों आदमी रहे और क्रोध उत्पन्न हो जाए, तो मन माननेवाला नहीं है। सबके सामने क्रोध प्रकट हो जाएगा। क्रोध तो अपने परिवार में भी होता है, लेकिन अपने परिवार में कोई कामातुर नहीं हो सकता। गोस्वामीजी कहते हैं कि ये जो काम, क्रोध, मद, लोभ आदि मानसिक रोग हैं, लोग इसे रोग मानते ही नहीं हैं। विरले ही लोग जानते हैं कि ये रोग हैं और जब जानेंगे, तब न इलाज करवायेंगे। जब समझ रहा है कि भोग को भोग रहे हैं, तो क्यों इलाज कराएगा?
जाने ते छीजहिं कछु पापी ।
नास न पावहिं जन परितापी ।।
जान लिया कि यह रोग है, तो विवेक से कुछ रुकावट आती है; लेकिन नाश नहीं होता, व्यक्ति को परिताप देते रहता है। नाश कब होगा? गो0 तुलसीदासजी कहते हैं-
सदगुरु वैद्य वचन विस्वासा ।
संयम यह न विषय कै आसा ।।
मन के इन रोगों की औषधि देनेवाले वैद्य सद्गुरु हैं। वे जो कहते हैं, उनके वचन पर विश्वास कीजिए और संयम भी कीजिए। दवाई दीजिए, संयम नहीं कीजिए, तो रोग छूटेगा? हमारे गुरुदेव कहा करते थे-
औषधि करै और पथ रहै, ताका वेदन जाय।
जो औषधि करते हैं और संयम से रहते हैं, उनका रोग नष्ट हो जाता है। सद्गुरु के पास जाएँगे, तो वे कौन-सी जड़ी-दवाई देंगे?
रघुपति भगति संजीवन मूरी ।
अनूपान स्त्रद्धा मति पूरी ।।
पहले जो वैद्य लोग दवाई देते थे, उसके साथ वे अनुपान बतलाते थे। जैसे तुलसी रस, शहद आदि। सद्गुरु बतलाते हैं कि श्रद्धा विश्वास दृढ़ होना चाहिए, यही अनुपान है।
एहि बिधि भलेहि रोग नसाई।
नाहिं त जतन कोटि नहिं जाई ।।
सद्गुरु की शरण जाएँ, उनकी बतायी हुई युक्ति से साधना करें, विषयों से अपने मन को मोड़कर रखें, नित्य नियमित रूप से साधना करेंगे, तो कल्याण होगा। (यह प्रवचन महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में दिनांक 12-9-2004 ई0 को साप्ताहिक सत्संग के सुअवसर पर हुआ था। (शांति-सन्देश,अक्टूबर 2015 ई0)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
यहाँ जितने हम सब उपस्थित हैं, एक-एक शरीर में हैं। हमलोगों के शरीर भिन्न-भिन्न हैं; लेकिन कहा जाएगा कि जितने हम सब हैं, सबका मनुष्य-शरीर है। शरीर है एक; लेकिन इसमें अवयव हैं अनेक। सिर है, आँख है, कान है, नाक है, मुँह है, हाथ है, पैर है, अंग-प्रत्यंग अनेक हैं। ये सब मिलाकर शरीर है। जितनी हमारी इन्द्रियाँ हैं, सबके भिन्न-भिन्न काम हैं। आँख से देखते हैं, कान से सुनते हैं, नासिका से गंध-साँस लेते हैं, मुँह से बोलते-भोजन करते हैं, हाथ से काम करते हैं, पैर से चलते हैं। शरीर एक है और अनेक इन्द्रियाँ अनेक काम करती हैं। सबका बँटवारा है। उसी तरह से इस संसार में कोई ब्राह्मण है, कोई क्षत्रिय है, कोई वैश्य है, कोई शूद्र है; कोई हिन्दू है, कोई मुसलमान है, कोई जैन है, कोई बौद्ध हैं, कोई सिक्ख हैं आदि विभिन्न हैं। विभिन्न तरह के भी सब मानव-ही-मानव हैं। ‘मानव मात्र जगते’ हमलोग एक हैं।
हमलोगों के अलग-अलग इन्द्रिय के अलग-अलग काम हैं। हमारे दो हाथ हैं। जब हम शौच जाते हैं, बायें हाथ से धोते हैं। बायाँ हाथ के बाद दायाँ हाथ खाने का काम करता है। क्या हम बायें हाथ से घृणा करते हैं। उसी तरह से कोई पूजा-पाठ करते हैं, कोई खेती करते हैं, कोई नौकरी करते हैं, कोई रोजगार करते हैं, जीवन-यापन के लिए विभिन्न तरह के काम करते हैं। अगर कोई पखाना भी साफ करता है, तो वह छोटा कैसे हो जाएगा। आज अमेरिका कितना समृद्ध देश है। वहाँ क्या है, वहाँ छोटे-बड़े का कोई ताल्लुक नहीं है। मेहतर आता है कार से। साफ करके जिस घर में वह आया सफाई करने के लिए उस घर में टेबुल-कुर्सी लगी हुई है, उसी कुर्सी पर जाकर वह बैठता है और गृहपति के साथ बैठकर चाय-पानी करता है। उसी तरह जितनी जातियाँ हैं, ये कहने के लिए भिन्न-भिन्न हैं; लेकिन हम सब मानव हैं, कोई किसी से घृणा क्यों करे। संतमत बतलाता है-
‘जात पात पूछै नहिं कोई,
हरि को भजै सो हरि का होई।।’
‘वैष्णव जन तो तेने कहिये,
जे पीड़ पराई जाणे रे ।
परदुःखे उपकार करे तोये,
मन अभिमान न आणे रे ।।’
कोई छोटा नहीं, कोई बड़ा नहीं, सबके काम अपने-अपने, भिन्न-भिन्न हैं। एक बाबू के यहाँ एक मेहतरानी आई, साफ करने के लिए। साफ करके जा रही थी। बाबू ने मेहतरानी को बुलाया। बाबू पूछते हैं-‘इतना पखाना साफ करती हो तुम, तुमको दुर्गन्धि नहीं लगती है?’ वह कहती है-‘बाबू! अपने बाल-बच्चे के पखाना साफ करने में किसी को दुर्गन्धि लगती है!’ कितना विशाल हृदय है, बाल-बच्चे का पखाना समझती है।
एक पंडित थे, आचारी, स्वपाकी। अपने से बनाकर खाते थे। दूसरे का बना हुआ नहीं खाते थे। जिस किसी के यहाँ जाते थे, चौका लगा देते थे, ठीक कर देते थे। ये चौका पर बैठ जाते थे। अपने से रसोई बनाते थे और जो चौका लगा रहता था, जितने काम होते थे, सब दायें हाथ से करते थे। बायाँ हाथ चौका से बाहर रखता था। गृहपति ने देखा तो उसने पूछा- “ पंडितजी! देखते हैं बायाँ हाथ चौका से बाहर किये हुए हैं, सो क्या बात है?”
पंडितजी बोले- “ तू क्या जानेगा, मूर्ख है तू। अरे! यह बायाँ हाथ कहाँ-कहाँ जाता है, तुमको मालूम नहीं है! कितना अपवित्र है।” गृहपति ने कहा कि पंडितजी! जहाँ-जहाँ यह बायाँ हाथ जाता है, वह तो चौके पर है। कबीर साहब ने कहा-
आचारी बहु जग मिले, विचारि मिला न कोय ।
कोटि आचारी राह वारिये, एके विचारि जो होय ।।
विचारवान आदमी चाहिए। संत क्या कहते हैं-
साहिब के दरबार में, केवल भत्तिफ़ पियार ।।
केवल भत्तिफ़ पियार, साहिब भत्तफ़ी में राजी ।
तजा सकल पकवान, लिया दासीसुत भाजी ।।
जप तप नेम आचार, करे बहुतेरा कोई ।
खाये शबरी के बेर, मुए सब रिषि मुनि रोई ।।
राजा युधिष्ठिर यज्ञ बटोरा जोड़ा सकल समाजा ।
मरदा सबका मान, श्वपच बिन घंट न बाजा ।।
पलटू ऊँची जाति कौ, जनि कोइ करै हंकार ।
साहिब के दरबार में, केवल भत्तिफ़ पियार ।।
गीता में भगवान ने कहा है-‘चातुर्मय मया सृष्टिः गुरु एव विहाय च।’ साहब के दरबार में परमात्मा के दरबार में बस भक्ति की ही कीमत है। आप कोई भी जाति के हों-ब्राह्मण हों, क्षत्रिय हों, वैश्य हों, शूद्र हों, हिन्दू हों, मुसलमान हों, जैन हों, बौद्ध हों, सिक्ख-ईसाई कोई भी हों; लेकिन यदि भक्ति नहीं है तो कुछ भी नहीं है। अगर भक्ति है जिस जाति में, वही सबसे बड़ा। भगवान जंगल गये थे। उसी जंगल में मातंग ऋषि रहते थे। उनका शरीर छूट गया था। शबरी रहती थी। वहाँ के जो उच्चवर्ग के लोग सब थे, आश्रम से हटा दिये थे बेचारी शबरी को। अलग में जाकर रहती थी। भगवान गये तो शबरी के यहाँ गये और शबरी का पूजन ग्रहण किये। उसमें जाति-पाँति की बात सुनी थी, लेकिन फिर भी जाकर ‘खाये शबरी के बेर’। वहाँ जाकर जल से कुल्ला किये, शबरी के लाये जो फल थे, उन्होंने खाए। शबरी का सम्मान रखा भगवान ने।
जो मुनि लोग थे, उनके आश्रम पर भी गये। उनसे पूछा कि कहिये, आपलोगों को कोई तकलीफ तो नहीं है! कहा-कोई तकलीफ तो नहीं है; लेकिन हमलोगों को पानी बहुत दूर से लाना पड़ता है। भगवान ने कहा-आपका सरोवर तो नजदीक में ही है। वे लोग बोले-इसका पानी सड़ गया है। भगवान बोले-कब से सड़ गया है? उनलोगों ने कहा-थोड़े दिनों से। भगवान ने कहा-उसके सड़ने का कारण क्या हो गया था? वे बोले-जब शबरी को आश्रम से हटा दिया। शबरी पानी लाने के लिए तालाब पर जाती थी, उससे कहा कि तालाब तुमसे छूत जाएगा। बस क्या हुआ, उस दिन से पानी ही सड़ गया। तब बेचारी शबरी पानी जहाँ से लाती थी, वहीं से ये लोग भी लाते थे। तो कहा कि आप इतने बड़े-बड़े महात्मा लोग हैं, पानी सड़ गया तो क्या हो गया, आपलोग चरण दीजिए ना, पानी शुद्ध हो जाएगा। बोला- महाराज! हमलोगों के चरण से हो, तो पानी कब शुद्ध हो गया होता। आप ही चरण रख दीजिए, पानी शुद्ध हो जाएगा।
भगवान बोले-आप महात्मा हैं, इतना तप करते हैं आप, मुझसे क्या होगा। बोला-आप दीजिए न! भगवान ने चरण रखा, पानी जैसे का तैसे रहा। देखा, मैंने कहा था न कि मुझसे कुछ नहीं होगा। कहा-जैसे हो साफ कर दीजिए आप। बोला-शबरी को लाइए यहाँ। अब जिसको तिरस्कार करके हटाया गया था, उसको लाया जाता है। शबरी आती है। भगवान कहते हैं-थोड़ा पैर रख दो इस पानी में। जल में जैसे पैर रखती है शबरी, जल स्वच्छ हो जाता है।
शबरी को पति ने भी छोड़ दिया था कुरूपा के कारण, पर भक्ति करके इतनी बड़ी हो गई कि भगवान भी आदर देने लग गए। पलटूदासजी कहते हैं-‘खाये शबरी के बेर मुए सब ऋषि मुनि रोई।’
राजा युधिष्ठिर यज्ञ, बटोरा जोड़ा सकल समाजा ।
मरदा सबका मान, श्वपच बिन घंट न बाजा ।।
राजा युधिष्ठिर ने बहुत बड़ा यज्ञ किया था और एक घंटा उसमें टाँग दिया था कि जब यज्ञ पूरा होगा, तो तीन बार घंटा बजेगा; लेकिन यज्ञ पूरा हो गया, घंटा एक बार भी नहीं बजा। युधिष्ठिर महाराज भगवान श्रीकृष्ण से बोले-यज्ञ तो पूरा हो गया, लेकिन घंटा अभी तक बजा नहीं। कहा-हाँ-हाँ, भोजन तो आपने बहुतों को कराया है, लेकिन संत का भोजन नहीं हुआ। बोला-संत कहाँ है, किनसे हम प्रार्थना करें? कहा-काशी में है श्वपच भगत, उसको लाइए। लाने हेतु गये भीम। भीम तो अपने बल के घमंड में थे। बोला-हम क्षत्रिय हैं, देवपुत्र हैं, राजा हैं और डोम के यहाँ भेजे हैं बुलाने के लिए। वह समझ गये। पूछा-कहाँ आये हो भीम! भीम ने कहा- आपको बुलाने के लिए। आप हमारे यज्ञ में चलिए। इनके मन में हुआ, अगर बाबाजी नहीं जाएँगे, तो भर पाँजा पकड़कर कहेंगे, क्या कहते हैं चलिए।
श्वपच ने कहा-अभी तो हम पूजा में बैठे हैं, हमारी सिमरनी वहीं दीवार में लटकी हुई है। जरा, दे दो सिमरनी। जहाँ सिमरनी लटकी हुई थी, वहाँ पर गये। इनके मन में हुआ, डोम की माला है, उसको हाथ से कैसे छुएँ? तो एक अंगुली लगाते हैं, सिमरनी टस-से-मस नहीं होती है। दो अंगुली, तीन अंगुली, चार अंगुली, पाँचों अंगुली से खींचना चाहा है, सिमरनी टस-से-मस नहीं होती है। भले अपनी माला अपने से लेगा। बाबाजी अपने से उठे, तब माला लिये। जो बल का घमंड था, सो समाप्त हो गया।
जब पूजा समाप्त हुई, तब कहते हैं चलिए। वह कहता है-हम जाकर क्या करेंगे तुम्हारे यहाँ! राजा के यहाँ का भोजन हम नहीं करते हैं। राजा के यहाँ तरह-तरह के अन्न आते हैं। जहाँ बात होती है तरह-तरह की, वहाँ हम भोजन नहीं करते हैं। इनके मन में आग-बबूला हो गया कि डोम जाति, सबका छुआ खानेवाला और कहते हैं कि राजा के यहाँ नहीं खाते हैं। आ गया वापस और कहा-वह नहीं आता है। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा-युधिष्ठिर! आपके जितने भाई हैं, सभी घमंडी हैं, सभी ऐश्वर्य में एकदम माते हुए हैं। आप स्वयं जाइए। महाराज युधिष्ठिर स्वयं जाते हैं। विनयशील होकर प्रणाम करते हैं और कहते हैं-चलिए, हमारे यहाँ निमंत्रण है भोजन के लिए। राजा के यहाँ हम नहीं खाते हैं। राजा का अन्न अपवित्र रहता है। युधिष्ठिर महाराज ने हाथ जोड़कर कहा-महाराज! राजा का अन्न तो अपवित्र होता है, लेकिन आप भोजन नहीं कीजिएगा, तो पवित्र कैसे होगा! चलिए, आप भोजन कीजिए और पवित्र कीजिए। उनको लेकर आए।
इधर द्रौपदी के मन में था कि इतने लोग भोजन किये, तो घंटा बजा नहीं। ये कितने बड़े महात्मा हैं, जो आकर खाएँगे, तब घंटा बजेगा और हमारा यज्ञ पूरा होगा। खुशी से कितनी चीजें बनायीं अपने हाथ से। कितनी बनवायीं। बहुत तरह-तरह के व्यंजन, बहुत तरह की चीजें, मिठाइयाँ। साधु बाबा को बिठाया जाए भोजन के लिए। जब श्वपचजी महाराज बैठे भोजन के लिए, तो जितना था साग- सब्जी-सबको मिलाकर एक कर दिया और एक कौर मुँह में दिया। जैसे एक कौर मुँह में दिया, वैसे एक बार घंटा बज गया।
अब द्रौपदी के मन में हुआ, आखिर जाति का डोम, क्या बूझेगा, किसका क्या स्वाद होता है? इतनी मेहनत से बनायी थी, सब अलग-अलग खाता, सबका स्वाद देखता कैसा है, नहीं है। ये सब मिला- जुलाकर एक कर दिया। महात्माजी अंतर्यामी थे, पहुँचे हुए संत थे। इसका हाथ बंद हो गया। युधिष्ठिर महाराज बैठे हुए थे। बोले-महाराज! भोजन कीजिए, आपका हाथ क्यों रुक गया? वे बोले-रुक गया इसलिए कि संत का भोजन तो हो गया, अब जो भोजन होगा, वह डोम का होगा। बोले-महाराज! आपको डोम कौन कहता है! आप तो इतने बड़े संत हैं। इन सबके भोजन करने से घंटा नहीं बजा, आपके एक कौर से घंटा बज गया। बोला-देखो, कहते हो तो भोजन कर लूँगा, लेकिन घंटा नहीं बजेगा। संत अंतर्यामी होते हैं। सबके मन की बात जानते हैं। संत पलटू साहब कहते हैं-
मरदा सबका मान, श्वपच बिन घंट न बाजा ।।
पलटू ऊँची जाति कौ, जनि कोइ करै हंकार ।
ऊँची जाति के हैं, मन में यह अहंकार मत लाओ-‘साहिब के दरबार में, केवल भक्ति पियार।’ संत कबीर साहब ने कहा-
मोहे भावे ला भक्ति भीलिनियाँ के।
जोगीजी आए मुनिजी आए, घंटा बजौलन डोमिनियाँ के।
कहते-कहते कह दिया ‘कहे कबीर सुनो भाई साधो, हमहुँ तो हैं जोलहिनियाँ के।’ मीराबाई क्षत्रियानी थी; लेकिन रविदास से उन्होंने भजन-भेद लिया था, जो जाति के चमार थे। ईश्वर के दरबार में भक्ति चाहिए। आप जो कुछ भी हैं, अपने घर में हैं। जो कुछ भी होगा, साथ में जानेवाला नहीं है; लेकिन भक्ति आपके साथ में जाएगी। वही आपको परमात्मा के पास ले जाएगी। यह संतमत बतलाता है। आप क्षत्रिय हों, ब्राह्मण हों, वैश्य हों, शूद्र हों, हिन्दू हों, मुसलमान हों, जैन हों, बौद्ध हों, सिक्ख-ईसाई कोई भी हों-सब ईश्वर की भक्ति कीजिए, अपना कल्याण बनाइए। दूसरे का भी कल्याण होगा।
(स्थान-महर्षि मेँहीँ आश्रम कुप्पाघाट, भागलपुर; दिनांक-11-09-2005 ई0, साप्ताहिक सत्संग के सुअवसर पर हुआ था।)
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‘परात्पर’ शब्द के अनेक अर्थों में परे-से-परे भी एक अर्थ होता है-अपर, पर तथा तदुपरि। ये तीन तत्त्व क्या हैं? श्रीमद्भगवद्गीता के अनुकूल कह सकते हैं-अपरा प्रकृति, परा प्रकृति और परमात्मा। श्रीमद्भगवद्गीता अ0 13/1-2 में क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का वर्णन मिलता है।
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते ।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः ।।1।।
हे अर्जुन! यह शरीर क्षेत्र नाम से कथन किया जाता है, इसको जो जानता है, उसको क्षेत्रज्ञ नाम से, उसके जाननेवाले पुरुष कथन करते हैं।
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत ।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम ।।2।।
हे भारत! सब क्षेत्रें में क्षेत्रज्ञ भी मुझे ही जान; क्योंकि क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान है, वही ज्ञान है, ऐसा मेरा मत है। यथा अ0 15/16-17 में क्षर पुरुष, अक्षर पुरुष और पुरुषोत्तम की विस्तृत व्याख्या है। बतलाया गया है कि क्षर पुरुष नाशवान, अक्षर पुरुष अविनाशी और तदुपरि सर्वश्रेष्ठ पुरुषोत्तम है, यही परमात्मा है।
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश््याक्षर एव च ।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ।।16।।
लोक में ये दो पुरुष क्षर और अक्षर है। सब भूत क्षर और कूटस्थ अक्षर कहा जाता है।
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः ।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ।।17।।
जो तीनों लोकों में प्रवेश करके इस संपूर्ण संसार को धारण कर रहा है, वह अव्यय ईश्वर तथा उत्तम पुरुष है और उसी को परमात्मा नाम से कथन किया गया है। मैत्रयण्युपनिषद् अ0 10 तथा मुण्डकोपनिषद् मुण्डक 3, खण्ड 2, श्लोक 8 में परात्पर पुरुष का प्रयोग परमात्मा के लिए किया गया है; यथा-
यथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रेऽस्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय ।
तथा विद्वान्नामरूपाद्विमुक्तः परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ।।
अर्थात्-जिस प्रकार निरन्तर बहती हुई नदियाँ अपने नाम-रूप को त्यागकर समुद्र में अस्त हो जाती हैं, उसी प्रकार विद्वान नाम-रूप से मुक्त होकर परात्पर दिव्य पुरुष को प्राप्त हो जाता है।
चित्तादिसर्वहीनोऽस्मिपरमोऽस्मि परात्परः।
-मैत्रेय्युपनिषद्, अ0 10
मैं चित्तादि से रहित और परे-से-परे हूँ। संत दादू दयालजी ने तीन शून्यों-‘सुन्नी सुन्न सुन्न के पारा’ कहकर उसी परम प्रभु परमात्मा की ओर इंगित किया है।
संत सुन्दरदासजी ने ब्रह्म के परे परात्पर पुरुष की प्रतिष्ठा की है और उसको परमात्मा कहा गया है। उन्होंने उसकी क्रमबद्धतापूर्वक अच्छी मीमांसा की है। बतलाया है कि पृथ्वी के परे जल, जल के परे अनल, अनल के परे अनिल, अनिल के परे गगन और गगन के परे दशेन्द्रिय (पाँच कर्मेन्द्रियाँ और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ) हैं। इन इन्द्रियगण के परे अंतःकरण, अंतःकरण के परे तीन गुण (सत्, रज, तम), तीनों गुणों के परे अहंकार, अहंकार के परे महतत्त्व, महतत्त्व पर मूलमाया, मूलमाया के परे ब्रह्म (चेतनात्मक परा प्रकृति, अक्षर ब्रह्म) तथा इन सबके परे परात्पर पुरुष परमात्मा हैं। यथा-
भूमि पर अप आपहू के, परे पावक है ।
पावक के परे पुनि, वायुहू बहत है ।।
वायु के परे व्योम, व्योमहू के परे इन्द्री दश ।
इन्द्रिन के परे अन्तःकरण रहत है ।।
अन्तःकरण पर, तीनों गुण अहंकार ।
अहंकार पर, महतत्त्व कूँ लहत है ।।
महतत्त्व पर मूल माया, माया पर ब्रह्म ।
ताहितें परातपर, सुन्दर कहत है ।।
-संत सुन्दर दास
बंग योगी पंचानन भट्टाचार्य ने परमात्मा को गुरु-रूप में अथवा गुरु को परमात्मा के रूप में अपने अर्जित ज्ञान के आधार पर देखा है। उन्होंने कहा-जो माया-रहित, त्रयतापहर्ता, ज्ञान-निधान, विश्वेश, निखिल विश्व के आधार, परात्पर, सर्वव्यापक, सत्य और सनातन है; रे मन! ऐसे गुरु-प्रभु का भजन करो।
भज रे मन गुरु निरंजन संताप हरण ज्ञान निकेतन ।
जिनि विश्भेश्भर निखिल आधार,
परात्पर विभु सत्य सनातन ।।
महर्षि मेँहीँ-पदावली में हम इसका सविस्तार वर्णन पाते हैं। यथा-
सब क्षेत्र क्षर अपरा परा पर औरु अक्षर पार में ।
निर्गुण सगुण के पार में सत् असत् हू के पार में ।।
अर्थात् अपरा प्रकृति, असत्, सगुण, जड़ और अक्षर है। परा प्रकृति सत्, निर्गुण, चेतन और अक्षर है। इन दोनों प्रकृतियों के पार में परमात्मा है। सभी संतों का यही ध्येय रहा है। प्रमाणार्थ कुछ संतों की वाणियाँ उद्धृत हैं। संत कबीर साहब की वाणी में हम कह सकते हैं-
सर्गुण की सेवा करौ, निर्गुण का करु ज्ञान ।
निर्गुण सर्गुण के परे, तहैं हमारा ध्यान ।।
गुरु नानकदेवजी को भी यह स्वीकार है। उनकी वाणी में आया है-
निर्गुण-सर्गुण त्रिहु गुण ते दूरि।
नानक अलिप्तु रहिआ भरपूरि।।
संत गरीब दासजी ने निर्गुण और सगुण को परमात्मा की कला तथा महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज ने अंश कहा है। यथा-
निर्गुण सर्गुण सब कला, बहुरंगी बरियाम ।
पिण्ड ब्रह्मांड पूरण पुरुष, अवगत रमता राम ।।
-संत गरीबदासजी
है निर्गुण सगुण ब्रह्म दोउ अंश जाको ।
समता न पाता कोई भी है वाको ।।
-महर्षि मेँहीँ परमहंस
योगशिखोपनिषद् जो कि कृष्ण यजुर्वेद का अंश है) के अ0 5/56-58 में गुरु को ब्रह्मा, विष्णु और महेश कहकर बताया गया है-
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवः सदाशिवः ।
न गुरोरधिकः कश्चिन्त्रिषु लोकेषु विद्यते ।।56।।
दिव्यज्ञानोपदेष्टारं देशिकं परमेश्वरम् ।
पूजयेत्परया भक्त्या तस्य ज्ञानफलं भवेत् ।।57।।
यथा गुरुस्तथैवेशो यथैवेशस्तथा गुरुः ।
पूजनीयो महाभक्त्या न भेदो विद्यतेऽनयोः ।।58।।
गुरुदेव ही ब्रह्मा, विष्णु और सदाशिव हैं। तीनों लोकों में गुरु से बढ़कर कोई नहीं है। दिव्य ज्ञान के उपदेश देनेवाले उपस्थित प्रत्यक्ष परमेश्वर की भक्ति के साथ उपासना करे, तब वह (शिष्य) ज्ञान का फल प्राप्त करेगा। जैसे गुरु हैं, वैसे ही ईश हैं; जैसे ईश हैं, वैसे ही गुरु हैं; इन दोनों में भेद नहीं है; इस भावना से पूजा करे। संत कबीर साहब कहते हैं-
गुरु साहब तो एक है, दूजा सब आकार ।
आपा मेटै गुरु भजै, तब पावै करतार ।।
तथा-
गुरु साहब करि जानिये, रहिये शब्द समाय ।
मिलै तो दंडवत् बंदगी, पल-पल ध्यान लगाय ।।
गुरु नानकदेवजी ने गुरु को पारब्रह्म कहकर सदा नमस्कार करने का आदेश दिया है-‘गुरु पारब्रह्म सदा नमस्कारउ।’ (राग गोण्ड, महला 5) इतना ही नहीं, कहीं-कहीं संतों की वाणियों में हम गुरु को परमात्मा से भी बढ़कर पाते हैं। यथा-
गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागौं पाय ।
बलिहारी गुरु आपने, जिन गोविन्द दियो बताय ।।
-संत कबीर साहब
गोविन्द के किये जीव, जात है रसातल को ।
गुरु उपदेशै सो तो, छूटै यम फन्द तैं ।।
गोविन्द के किये जीव, वश परे कर्मन के ।
गुरु के निवारे सूँ, फिरत है स्वछंद तैं ।।
गोविन्द के किये जीव, डूबत भवसागर में ।
सुन्दर कहत गुरु, काढ़ै दुख द्वन्द्व तें ।।
औरहू कहाँ लौं कछु, मुख तें कहूँ बनाय ।
गुरु की तो महिमा, अधिक है गोविन्द तें ।।
संत की दृष्टि में परमात्मा के कारण ही जीव रसातल को जाता है। गुरूपदिष्ट ज्ञान को पाकर वह यम-फंद से छूट जाता है। तात्पर्य यह कि परमात्मा ने जीव को कर्म करने की स्वतंत्रता दे दी है-
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ।।47।।
इसलिए जीव स्वच्छन्द होकर निषिद्ध कर्मों को करता है, परिणामस्वरूप वह नरक में पड़कर यम की यातना पाता, कष्टों को सहता और दुर्गति को पाता है; किन्तु पाप कर्मों (झूठ, चोरी, नशा, हिंसा और व्यभिचार) से रहित होकर सदाचार समन्वित होकर भगवद्भजन करके वह यम-पाश को नाश कर आत्मलाभ कर लेता है। परमात्मा के कारण जीव कर्माधीन होता है; किन्तु गुरु-कृपा से वह कर्मबंधन से मुक्त होता है। परमात्मा के कारण जीव भवसागर में गोता लगाता है यानी आवागमन के चक्र में पड़ता है; परन्तु गुरुदेव अपनी अनुकम्पा से उसको द्वन्द्व से रहित कर परमात्म-पद में स्थित करा देता है। इसलिए गुरु की महिमा गोविन्द की महिमा से स्वाभाविक ही विशेष है। गुरु भक्तिन सहजोबाई कहती हैं-‘परमेसुर से गुरु बड़े, गावैं वेद पुरान।’ अपनी वाणी में उन्होंने एक स्थल पर ऐसा भी कहा है-
राम तजूँ पै गुरु न विसारूँ ।
गुरु के सम हरि कूँ न निहारूँ ।।
हरि ने जन्म दियो जग माहीँ ।
गुरु ने आवागमन छुटाहीँ ।।
हरि ने पाँच चोर दिये साथा ।
गुरु ने लई छुटाय अनाथा ।।
हरि ने कुटुँब जाल में गेरी ।
गुरु ने काटी ममता बेरी ।।
हरि ने रोग भोग उरझायौ ।
गुरु जोगी कर सबै छुटायौ ।।
हरि ने कर्म भर्म भरमायौ ।
गुरु ने आतम रूप लखायौ ।।
हरि ने मो सूँ आप छिपायौ ।
गुरु दीपक दे ताहि दिखायौ ।।
फिर हरि बंधमुक्ति गति लाये ।
गुरु ने सबही भर्म मिटाये ।।
चरणदास पर तन मन वारूँ।
गुरु न तजूँ हरि कूँ तजि डारूँ ।।
अर्थात् राम का त्याग किया जा सकता है, गुरु का नहीं। किसी ने जिज्ञासा की-ऐसा क्यों? इसका उत्तर उन्होंने दिया-हरि जीव को आवागमन में डालते हैं, गुरु भवचक्र मिटाते हैं। हरि जागतिक जंजाल में फँसाते हैं, गुरु उससे छुटकारा दिलाते हैं। हरि कर्म-भ्रम के जाल में बाँधते हैं, गुरु उससे मुक्त कराते हैं। हरि ने अपने स्वरूप को गुप्त करके रखा और गुरु ने आत्मदृष्टि देकर प्रगट कर दिखला दिया आदि। महर्षि मेँहीँ-पदावली में है-
नमो-नमो सतगुरु नमो, जा सम कोउ न आन ।
परम पुरुष हू तें अधिक, गावें सन्त सुजान ।।
अर्थात् ऐसे सद्गुरु को मैं बारंबार प्रणाम करता हूँ, जिनके समान दूसरा कोई (हितैषी) नहीं है। उनकी महिमा परमात्मा से भी अधिक है, ऐसा सुन्दर ज्ञान रखनेवाले संतजन गाते हैं। तथा-
अति पावन गुरु मंत्र, मनहि मन जाप जपो ।
उपकारी गुरु रूप, को मानस ध्यान थपो ।।1।।
देवी देव समस्त, पुरण ब्रह्म परम प्रभू ।
गुरु में करैं निवास, कहत हैं सन्त सभू ।।2।।
प्रभुहू से गुरु अधिक, जगत विख्यात अहैं ।
बिनु गुरु प्रभु नहि मिलैं, यदपि घट माँहि रहैं ।।3।।
उर माँहीं प्रभु गुप्त, अँधेरा छाइ रहै ।
गुरु गुर करत प्रकाश, प्रभू को प्रत्यक्ष लहै ।।4।।
हरदम प्रभु रहैं संग, कबहुँ भव दुख न टरै ।
भव दुख गुरु दें टारि, सकल जय जयति करै ।।5।।
तन मन धन को अरपि, गुरू-पद सेव करो ।
‘मेँहीँ’ आज्ञा पालि, दुस्तर भव सुख से तरो ।।6।।
बीसवीं सदी के महान संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज यद्यपि संतों की वाणियों से पूर्ण सहमत हैं, तथापि उनसे जिज्ञासा की जा सकती है कि इस संदर्भ में आपका क्या मत है? समाधान की भाषा में उन्होंने उत्तर दिया-संतों की वाणियाँ ध्रुव, अटल और अकाट्य हैं। परम प्रभु परमात्मा की अपेक्षा गुरु की महिमा अधिक है, यह बात अितशयोक्ति नहीं, संसार में विख्यात है। जब उनसे निवेदन किया गया कि इसका कारण समझाने की कृपा की जाए, तो उनका उत्तर था-देखिए, परम प्रभु परमात्मा हमारे शरीर के अंदर निवास करते हैं, पर गुरु-कृपा के बिना प्रत्यक्ष नहीं होते। हृदय में परमात्मा छिपे हुए हैं, फिर भी उसमें अंधकार छाया हुआ रहता है, गुरु की सद्युक्ति-क्रिया-विशेष प्राप्त कर साधना करने से ही अंतःकरण प्रकाशित होता है और परमात्मा की प्रत्यक्षता होती है और भी देखिए, जब से सृष्टि हुई है और परमात्मा ने जीव का सर्जन किया है, प्रत्येक चर-अचर के अंग-संग वे सतत निवास करते हैं; किन्तु अबतक किसी को भवदुःख आवागमन (जन्म-मरण) का चक्र नहीं मिटा। इस दुस्सह दुःख को संत सद्गुरु दूर कर देते हैं। सभी संतों का कथन है कि सभी देवताओं के साथ पूर्ण ब्रह्म और परम प्रभु परमात्मा इस शरीर में वास करते हैं, इसकी संपुष्टि उपनिषद् भी करती है।
देहस्थाः सर्व्वविद्याश्च देहस्थाः सर्व्वदेवताः।
देहस्थाः सर्व्वतीर्थानि गुरुवाक्येन लभ्यते।। 8।।
-ज्ञानसंकलिनीतंत्र
इस देह में सब विद्या, सब देवता और सब तीर्थ विराजमान हैं। केवल गुरु के उपदेश से ही देहस्थित ये सब विद्या, देवता और तीर्थ जाने जाते हैं।
जिस प्रकार वृक्ष की जड़ से जल डालने से संपूर्ण वृक्ष हरा-भरा, पल्लवित, पुष्पित और फलित होता है, उसी प्रकार एक संत सद्गुरु की पूजा से समस्त देवी, देव और परम प्रभु परमात्मा की पूजा हो जाती है। इससे समस्त देवी-देव प्रसन्न हो जाते हैं, इसलिए अपने तन, मन, वचन और धन को गुरु चरणों में अर्पण कर उनकी सेवा करो। उनके आदेशों का पालन करते हुए गुरु-प्रदत्त पवित्र मंत्र का मानस जप करो और उनके पावन पार्थिव पिण्ड का मानस ध्यान करो, पश्चात् दृष्टि-साधन और नादानुसंधान की साधना करो। इस कठिन संसार-सागर को सुखपूर्वक पार कर जाओगे।
विद्या-वरदा शारदा, चतुर्मुख ब्रह्मा, पंचमुख शिव, षण्मुख कार्तिकेय और सहस्त्रमुख शेष भी जिनकी महिमा गाकर निःशेष नहीं कर सकते, तो उनसे विशेष और कोई क्या कुछ कह सकते हैं।
संत कबीर साहब गुरु गुण-गाथा गाते अघाते नहीं, फिर भी अंत में वे एक ही साखी में सारी बातें कहकर मौन धारण कर लेते हैं, उनकी लेखनी की गति अवरुद्ध हो जाती है।
सब धरती कागज करूँ, लेखनि सब बनराय ।
सात समुँद की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाय ।।
और गुरु नानकदेवजी कहते हैं-
‘गुरु पूरे की बेअंत बड़ाई।’
वास्तविक बात तो यह है कि जो अनंत स्वरूपी सर्वेश्वर का साक्षात् कर अनंतस्वरूप हो जाते हैं, उनकी गुण-गाथा गाकर कोई अंत कैसे कर सकते हैं। अतएव उनकी जितनी महिमा गाई जाए, थोड़ी ही होगी।
गुरु गुण अमित अमित को जाना ।
संक्षेपहिं सब करत बखाना ।।
(शान्ति-सन्देश, जून 2005)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
आज कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की त्रयोदशी है। कोई इसे धनतेरस भी कहते हैं। आगामी कल चतुर्दशी (यमदीरी), फिर परसों अमावस्या। अमावस के दिन वैदिक धर्मावलंबी दीपावली मनाते हैं। विद्वज्जन का कथन है कि बिना कारण के कार्य नहीं होता। दीपावली जो मनाई जाती है, इसका कारण क्या है। यह एक पर्व है, त्योहार है। बड़े उल्लास से मनाया जाता है। इसके तीन कारण बताये गये हैं। इसमें एक पौराणिक दृष्टि है, दूसरी लौकिक दृष्टि और तीसरी आध्यात्मिक दृष्टि है। पौराणिक दृष्टि यह है-एक राजा की सात पुत्रियाँ थीं। राजा अपनी पुत्रियों से एक-एक करके पूछते हैं कि कहो-तुम किसके भाग्य से खाती-पीती हो? लड़कियाँ कहती हैं-पिताजी! आप ही की कृपा से खाते-पीते रहते हैं। उसमें एक छोटी लड़की थी, वह कहती है-पिताजी! कोई किसी के भाग्य से नहीं खाता है, सब अपने-अपने भाग्य की कमाई से खाता है। यह सुनकर राजा के मन में बड़ा दुःख हुआ। सब बेटी तो हमारी प्रशंसा करती हैं और यह कहती है कि हम अपने भाग्य से खाते हैं।
राजा ने सबका विवाह अच्छे-अच्छे घरों में कर दिया, परन्तु जो छोटी बेटी थी, उसका एक लकड़हारे के साथ कर दिया। लकड़हारा उस लड़की को लेकर अपना घर गया। जंगल से लकड़ी काटता था और बेचकर अपना भरण-पोषण करता था। ऐसा ही एक समय आया-कार्तिक तीर्थ तेरस का। रानी के मन में हुआ कि नदी स्नान करें। अपनी सहेलियों के साथ, बहिन के साथ गई नदी में स्नान करने। बहुमूल्य हार उसके गले में थी। गोल करके दाई को दे दिया कि तुम देखना, मैं स्नान करके आती हूँ। दाई ने हार को नीचे में रखकर बैठ गई। जंगल का किनारा था ही, स्नान करने गई वह। एक चील मँडरा रही थी। उस चील की नजर पड़ी उस हार पर। उसके मन में हुआ कि मरा हुआ साँप है, झपट्टा मार करके हार लेकर चील उड़ गई। वह रानी आई। खोजती है अपना हार। लेकिन हार तो चील लेकर चली गई। बहुत कीमती हार थी। हार के नहीं मिलने के कारण बहुत दुःखी हुई बेचारी। आकर राजा से कहा-वह हार लाकर दीजिए, नहीं तो में खाऊँगी नहीं। भूखी मर जाऊँगी। लौट करके उपवास पर गई। उपवास के अनशन में जबतक हार नहीं मिलेगी, तबतक आहार नहीं करेंगे। राजा सोचने लगा कि अब क्या करें। नगर में राजा ने ढिंढोरा पीटवा दिया कि जिसको हार मिले, वह लेकर आए। उसको मुँहमाँगा इनाम दिया जाएगा। चील तो हार लेकर उड़ गई और गाछ की डाल पर बैठकर चोंच मारती है खाने के लिए; लेकिन वह खाने की चीज है नहीं। वह उस हार को छोड़ देती है। वह हार झोंपड़ी पर गिरती है और वहाँ से खिसक करके नीचे आँगन में आ जाता है। लड़की देखती है कि यह तो हमारे माँ की हार है। रख लेती है। राजा ने ढिंढोरा पीटवाया, तो लड़की पहुँचती है अपने पिता के यहाँ और कहती है कि पिताजी! मेरे पास हार है। राजा को खुशी हुई, रानी भी खुश हो गयी। राजा ने कहा-माँग, तू क्या माँगती है। वह बोली-कल अमावस है। सारी रात अँधेरा-ही-अँधेरा रहेगा। आप आज ही ढिंढोरा पिटवा दीजिए। कल मायके राज्य में कोई दीपक न जलाए, आप भी नहीं जलाएँगे। ढिंढोरा पिटवा दिया-कोई दीपक नहीं जलाएगा। इधर यह अपना घर-आँगन लीप-पोतकर चारो ओर दीपक भी जलाई। अब लक्ष्मी आई घूमने के लिए तो कहाँ जाएगी, किसके यहाँ जाएगी! प्रकाश इसी के यहाँ था, तो लक्ष्मीजी उसके के यहाँ चली गई। इस कारण भी लोग लक्ष्मी-पूजन करते हैं। आँगन-साफ करके, लीप करके दीपक जलाते हैं कि लक्ष्मी आएगी। रात को कहा करते हैं-‘घर घर लक्ष्मी घर आवे, दरिद्र से बाहर जावे।’
पौराणिक कथा के आधार पर दीपावली खेलते हैं। लौकिक दृष्टि से यह है बरसात में कीड़े-मकोड़े बहुत हो जाते हैं, घर में जाली लग जाती है। बहुत तरह के कीड़े सब आकर घर में वास करने लगते हैं। घर के बाहर द्वार में कजली पड़ जाती है। देखने में अच्छा नहीं लगता है। एक पर्व के नाम पर घर की भी सफाई हो गई। जो दृष्टियोग की क्रिया करते हैं, जिसके दोनों घाटों को मिलाकर एक करते हैं, तो विन्दु उत्पन्न होता है, दो रेखाओं का मिलन एक विन्दु पर होता है। दृष्टि की दोनों धारें एक विन्दु पर टिकती हैं। विन्दु क्या है? लक्ष्मी का रूप है। उपनिषद् में आया है-
विन्दुनाद महालिंगं विष्णुलक्ष्मीनिकेतनम् ।
देहं विष्ण्वालयं प्रोक्तं सिद्धिदं सर्वदेहिनाम् ।।4।।
अर्थ-विन्दुनाद-रूप जो महालिंग है, वही विष्णु और लक्ष्मी का घर है। इस देह को विष्णु-मंदिर (ठाकुरवाड़ी) कहते हैं। सभी प्राणियों को इसमें सिद्धि मिलती है।
जो विन्दु की उपासना करते हैं, लक्ष्मी उसके घर स्वतः आएगी। बुलावे की जरूरत नहीं है। अगर लक्ष्मी आ जाएगी, तो विष्णु कहाँ रहेगा, फिर उनको भी वहाँ आना है और जो नाद की उपासना करते हैं, नाद की उपासना-विष्णु की उपासना हो गई। तब विष्णु को छोड़कर लक्ष्मी कहाँ जाएगी। लक्ष्मी भी तो वहीं आ जाएगी। इसलिए विन्दु और नाद की उपासना करें, इससे अपने अंदर में ज्योति होती है, प्रकाश होता है। उसके घर में लक्ष्मी की कमी नहीं होती है, धन्य-धान्य से परिपूर्ण हो जाते हैं। इसलिए अपने भीतर के पहले कीड़े-मकोड़े जो हैं-काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य-इन सब विकारों को शमन करो। कैसे होगा? जब दीपक जलेगा, तभी कीड़े मरेंगे। जब अंदर में प्रकाश होगा, तभी यह कीड़े-मकोड़े मरेंगे। विकार जाता रहेगा, लालच जाता रहेगा। इससे दुःखी होंगे, सुखी नहीं होंगे। जितना लालच करोगे, लोभ करोगे कि और हो, और हो, सुख की कामना करोगे, उतना ही दुःखी होओगे। इसलिए इन सबको छोड़ो और भजन करो। भजन करने से ही लक्ष्मी की पूजा होगी, विष्णु भगवान मिलेंगे, यह जीवन कल्याणमय होगा और परलोक भी कल्याणमय होगा। संतमत कहता है कि जो पौराणिक है, इस दृष्टि से दीपावली कीजिए, चाहे लौकिक दृष्टि से दीपावली कीजिए, चाहे आध्यात्मिक दृष्टि से अपने अंदर दीपावली कीजिए; लेकिन दीपावली कीजिए। एक बार भी अपने अंदर प्रकाश हो गया ‘सकल भूलिबे एक सोवाकार’। अगर एक बार अंदर में प्रकाश हो जाए, भविष्य उज्ज्वल हो जाता है। इसलिए दीपावली अपने अंदर कीजिए मन लगाकर। यह लोक-परलोक दोनों कल्याणमय होगा। आज रविवार है, गुरु-कीर्तन कहिए, फिर आरती। (स्थान-महर्षि मेँहीँ आश्रम कुप्पाघाट, भागलपुर; दिनांक-30-10-2005 ई0, साप्ताहिक सत्संग के सुअवसर पर हुआ था।)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
परम श्रद्धेय, परम पूज्य बाबा देवी साहब ने अपने एक शिष्य जिनका नाम धीरजलाल था, के नाम से पत्र लिखा। कुशल-मंगल, आशीर्वाद के बाद उन्होंने लिखा कि संतमत का बहुत छोटा सिद्धांत है और वह है-गुरु, ध्यान और सत्संग। संतमत में गुरु की मान्यता है। गुरु से बढ़कर और किसी की मान्यता नहीं है। सच्छाÐों में कहीं गुरु के समान कहीं राम भगवान में या परमात्मा को कहा गया है। कहीं राम के अतिरिक्त राम कर दासा कहा गया है। कहीं पर परमात्मा के समकक्ष में गुरु को माना गया है। कहीं परमात्मा से भी अधिक गुरु को माना गया है।
परम पुरुषहु ते अधिक गावें संत सुजान ।
-महर्षि मेँहीँ-पदावली
गुरु किसको कहते हैं और शिष्य किसको कहते हैं, इस संबंध में संत कबीर साहब ने कहा है-
गुरु नाम है ज्ञान है, शिष्य सिख ले सोय ।
ज्ञान मरजाद जाने बिना, गुरु अरु शिष्य न कोय ।।
गुरु को ज्ञानवान होना चाहिए, सच्चरित्र होना चाहिए, आचारवान होना चाहिए। परमुखापेक्षी नहीं होना चाहिए, पवित्र जीवन उनका होना चाहिए, आत्मनिष्ठ होना चाहिए। जिस गुरु में आत्मज्ञान नहीं है, वह गुरु नहीं है। जो शिष्य गुरु की आज्ञा का पालन नहीं करता है, वह शिष्य भी नहीं है। धौम्य ऋषि थे। उन्होंने अपने शिष्य उपमन्यु से कहा-जाओ, गायें चराओ। चला गया वह गाय चराने के लिए; लेकिन उसके खाने की व्यवस्था कुछ नहीं, तो बेचारा गाँव में जाकर भिक्षा माँगकर खाता था। गायें चराता था दिनभर, शाम में ले आता था।
कई दिनों के बाद धौम्य ऋषि ने पूछा कि बच्चे! तुम्हारे खाने की व्यवस्था तो कुछ नहीं है, लेकिन फिर भी तुम हृष्ट-पुष्ट हो। क्या खाते हो? उसने कहा कि गाँव जाकर भिक्षा माँग लेता हूँ। धौम्य ऋषि ने कहा कि अरे! जो कुछ तुम माँगता है, वह तो मेरा हिस्सा हुआ। मैं जो दूँगा, वह तुम्हारा हिस्सा होगा। भिक्षा माँगकर मुझे दिया करो। जो भिक्षान्न मिलता था, गुरु को दे दिया जाता था। फिर गुरु कुछ नहीं देते थे। कुछ दिन फिर बीत गये। इसी तरह फिर कुछ दिनों के बाद धौम्य ऋषि ने पूछा कि अरे! भिक्षान्न तो मुझे दे देता है, तुम खाते क्या हो? उसने कहा कि फिर दोबारा माँग लेता हूँ। गुरुजी ने कहा कि यह तो तुम्हारा पाप है। एक बार भिक्षा माँगता है, फिर दूसरी बार भिक्षा जो माँगता है, वही दूसरे दिन की भिक्षा हो जाएगी। ऐसा मत करो। उपमन्यु की दूसरी बार भिक्षा माँगना भी बंद कर दिया। तब क्या करे बेचारा! जो गाय दूध देती थी, उसने दूध को पी लेता था। कुछ दिनों के बाद पूछा गया कि अरे! तुम क्या खाते हो? उसने कहा कि गाय जो दूधारु होती है, उसका दूध पी लेता हूँ। गुरुजी बोले, गाय का दूध उसके बछड़े के लिए है और तुम उसका दूध पी लेता है। बछड़े का हिस्सा तुम पीते हो, यह तो उचित नहीं है। तुमको बछड़े का दूध नहीं लेना चाहिए। अब उसका दूध पीना भी बंद।
कुछ दिनों के बाद पूछा कि अब क्या करते हो, कैसे खाते हो, कैसे रहते हो? उसने कहा-बछड़े जो दूध पीते हैं, उसके मुँह में जो फेन लगा रहता है, वही चाट लेता हूँ। गुरुजी ने कहा, ‘अरे! बछड़े दयालु होते हैं, कोमल हृदय का होता है। वह जो पीता है, तुम उसका मुँह चाटता है। वह अपने पिये हुए दूध का झाग बना देता है तुम्हारे लिए। वह भी तुमको नहीं लेना चाहिए। वह भी बंद हो गया। अब बिना खाये-पिये रहने लगा। जंगल में आक का गाछ होता है। आक के गाछ में दूध होता है। वह उसकी टहनी तोड़कर दूध पीने लगा, लेकिन वह इतना विषैला होता है कि उस बेचारे की दोनों आँखें चली गयीं। सूझने नहीं लगा। गाय चराते-चराते एक दिन कुँआ में गिर गया, लेकिन उसमें पानी नहीं था। सूखा कुँआ था। शाम में गाय सब लौटकर चली आयीं, पर इसका पता नहीं।
धौम्य ऋषि ने अपने शिष्यों से पूछा कि गायें तो चली आयीं, पर उपमन्यु नहीं आया। वह कहाँ है? वह तो आज नहीं आया है। गये खोज करने। कहीं नहीं दिखाई देता है, तो नाम लेकर पुकारने लगा जंगल में। जहाँ पर कुआँ था, वहाँ आदमी गया, तब पता चला कि यहाँ है। कुआँ से निकाला गया, फिर ऋषि ने हृदय से लगाया। ऋषि ने अश्विनीकुमार का आह्वान किया। उसके द्वारा उसको नेत्र प्रदान किया गया और अपने हृदय से लगाकर आत्मज्ञान दे दिया। गुरु की योग्यता यह होती है। गुरु और शिष्य का यह व्यवहार है! कितना भी कष्ट गुरु दें, उसे सहें, शिष्य की योग्यता यह होती है,
जो गुरु झिड़के लाख, तो मुख नहीं मोड़िये ।
गुरु से नेह लगाय, सबन सों तोड़िये ।।
हमलोग अगर गुरु-शिष्य का मान नहीं रखें, व्यवहार नहीं करें, तो दूसरा कौन करेगा! तब सत्संग करने से क्या लाभ होगा। गुरु-सेवा में रहने से लाभ ही क्या हुआ। जो गुरु का आदर्श नहीं दे सकते हैं सत्संगी बनकर, साधु बनकर या गृहस्थ में ही रहकर अनुशासन का पालन नहीं करते हैं, वह शिष्य कैसा! इसलिए गुरु की आज्ञा के अंदर रहना चाहिए। गुरु की जो आज्ञा हो, उसका पालन करना चाहिए। उन्हीं के (धौम्य ऋषि के) दूसरे शिष्य थे आरुणि। उनको बतलाया गया-तुम जाओ, वर्षा हुई है, खेत से पानी बह रहा है। टूटे हुए मेड़ को बाँध देना, फसल बोयेंगे। वह गया। बाँध बाँधा; लेकिन एक जगह पानी का वेग इतना तेज था कि वह मिट्टी काटकर दे और पानी बहाकर ले जाए। बार-बार मिट्टी काटकर दे, पानी बहाकर ले जाए। अब देखा कि कोई उपाय नहीं है। स्वयं सो गया, जहाँ पानी की तेज धारा थी। पानी के धार पर सोने से पानी रुक गया।
शाम हुई। वह नहीं आया। शिष्य को गुरु की चिंता हुई। गया खोजने के लिए। देखता है कि वहाँ सोया हुआ है। बोला-क्यों लेटा हुआ है? बोला-क्या करें, आपने आज्ञा दी थी पानी बहने न पाये। मैं तो मिट्टी काटकर देता था और पानी बहाकर ले जाता था। कितना भी प्रयास किया, लेकिन पानी रुक नहीं सका, तो मैं क्या करता। इसलिए लेट गया। उनको भी उन्होंने उठा लिया। दिल से लगाकर आत्मज्ञान दे दिया। तो गुरु की मर्यादा समझना चाहिए, व्यवहार रखना चाहिए। आदर्श रखना चाहिए, तभी अपना भी कुशल है और दूसरे का भी कुशल है। आज रविवार है, गुरु-कीर्तन कहिए, फिर आरती।
(स्थान-महर्षि मेँहीँ आश्रम कुप्पाघाट, भागलपुर; दिनांक-18-12-2005 ई0, साप्ताहिक सत्संग के सुअवसर पर हुआ था।)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
संत-महात्माओं, राजा-महाराजाओं, महापुरुषों की जयन्ती मनायी जाती है। मैं तो कुछ भी नहीं, एक छोटा-सा साधु हूँ। मेरे नाम जयन्ती, यह शोभनीय नहीं है, फिर भी आपलोगों की श्रद्धा है, भक्ति है, इसलिए आपलोगों को मैं बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूँ। मेरे जीवन का पूर्व भाग अध्ययन और अध्यापन में गया। गुरु महाराज के दर्शन 1939 ई0 में हुए। आता-जाता रहा, दर्शन होते रहे। 1949 से 1986 के 8 जून तक यानी जबतक उनका पार्थिव पिंड रहा, उनकी सेवा में रहा। सेवा में क्या रहा, सेवा तो नाम का था। उनके संग में मैं सेवा करने के लिए सीखा, अब अगले जन्म में उनकी सेवा करूँगा। जैसा कि उन्होंने कहा था कि ‘जहाँ मैं रहूँगा, वहाँ आप रहेंगे।’ जहाँ वे रहेंगे, मेरे शरीर छूटने के बाद जहाँ कहीं भी जन्म होगा, फिर उनकी शरण में उपस्थित हो जाऊँगा और सेवा में संलग्न हो जाऊँगा। उन्होंने जो ज्ञान दिया है, बतलाया है कि ईश्वर-भक्ति में कल्याण है, इसलिए ईश्वर की भक्ति करो। सदाचार का पालन करो और परमुखापेक्षी मत बनो, स्वावलंबी जीवन जियो। परमात्मा की खोज कहीं बाहर करने की आवश्यकता नहीं है। परमात्मा कहो, गॉड कहो, अल्लाह कहो, कहने के लिए जो कुछ भी समझ में आया, कह दो; लेकिन वह एक-ही-एक है। ‘एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति।’ वह एक ही है, विद्वज्जन विविध नामों से अभिहित करते हैं। वह प्रभु-
बेहोशिये इन्सान से यह ख्याल जुदा है ।
जाहिर में है मुहम्मद बातिन में खुदा है ।।
अगर खुद को ढूँढ़ना चाहते हो, अल्लाह को पाना चाहते हो, परमात्मा के दर्शन पाना चाहते हो, तो कुछ करना नहीं है मात्र बहिर्मुख से अंतर्मुख होना है। एक गृहस्थ ने आकर एक संत से कहा कि आप इतने बड़े संत हो गये, कैसे हो गये! हम तो गृहस्थ हैं, कुछ हमको भी बताइए। संतजी ने कहा कि कल 8 बजे दिन में आना। दूसरे दिन वह भक्त 8 बजे पहुँच गया। उन्होंने देखा कि जो संतजी थे, वे स्वयं खेत से बिचड़ा उखाड़ते थे और दूसरे खेत में लगाते थे। भक्त ने कहा-महात्माजी! आपने तो मुझे बुलाया था 8 बजे, कुछ उपदेश देंगे। आप तो स्वयं व्यस्त हैं कार्य में, मुझे क्या ज्ञान देंगे! संतजी बोले कि तुम्हारे लिए यह उपदेश है। देखते हो न, एक खेत का बीज दूसरे खेत में बो देता हूँ। गाछ उखाड़ता हूँ इधर से, उधर लगा देता हूँ। यह मन जो तुम्हारा दुनिया में गड़ा हुआ है, उसको निकालकर परमात्मा में जोड़ो।
निज तन में खोज सज्जन, बाहर न खोजना ।
अपने ही घट में हरि हैं, अपने में खोजना ।।
संत कबीर साहब कहते हैं-
सब घट मेरा साइयाँ, सूनी सेज न कोय ।
बलिहारी वह दास की, जा घट परगट होय ।।
गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-
प्रकृति पार प्रभु सब उर बासी ।
ब्रह्म निरीह बिरज अविनासी ।।
‘सब उर बासी’ सबके हृदय में रहनेवाले को हमलोग खोजें कहाँ, तो गुरुनानकदेवजी महाराज कहते हैं- काहे रे वन खोजन जाई ।
सरब निवासी सदा अलेपा तोही संग समाई ।।
किस तरह?
पुहुप मधि जिउ बासु वसतु है मुकर मािंहं जैसे छाई ।।
तैसे ही हरि बसे निरंतरि घटि ही खोजहु भाई ।।
बाहरि भीतरि एको जानहु इहु गुर गिआन बताई ।।
जन नानक बिनु आपा चीनै मिटै न भ्रम की काई ।।
जितने संत हुए सबने एक स्वर से यही कहा कि प्रभु की खोज अपने अंदर करो। जब वे अपने अंदर में मिल जाएँगे, तब ‘बाहरि भीतरि एको जानहु।’ जबतक अपने अंदर नहीं मिलेंगे, तबतक बाहर दुनिया में कहीं नहीं मिलेंगे। इसलिए अंदर की खोज करो। उसके लिए चाहिए बतलानेवाले, जिन्होंने प्राप्त कर लिया है। वे बतलानेवाले ही संत सद्गुरु होते हैं। गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-
बिनु सतिगुर सेवे जोगु न होई ।
बिनु सतिगुर भेटे मुकति न कोई ।।
बिनु सतिगुर भेटे नामु पाइआ न जाइ ।
बिनु सतिगुर भेटे महा दुखु पाइ ।।
बिनु सतिगुर भेटे महा गरबि गुबारि ।
नानक बिनु गुर मूआ जनमु हारि ।।
जो संत सद्गुरु होंगे, वे बतलाएँगे तुम्हारे अंदर के मार्ग को।
क्यों भटकता फिर रहा तू, ये तलाशे यार में ।
रास्ता शहरग में है, दिलवर पे जाने के लिए ।।
वही शहरग, जिसको सुषुम्ना कहते हैं, जिसको झीनामार्ग कहते हैं, जिसको सूक्ष्ममार्ग कहते हैं। जिसकी चर्चा पूर्व वक्ता ने की थी कि वह हमको मिल जाए, वह तो मिला दिया है, बता दिया है; लेकिन देखने की तो आँख आपको चाहिए। आईने में काजल लगा हुआ हो, तो अपना चेहरा क्या देखेंगे! आईने में जो काजल लगा हुआ है, साफ कर दीजिए, देखने में साफ आ जाएगा।
जो देखा चाहिए तो दर्पण माँजत रहिए ।
जब दर्पण लागि काई तो दरस कहाँ ते पाई ।।
झीना-द्वारा बतला दिया गया है, वह कहाँ पर है; लेकिन खोज करना आपको है, दूसरा कोई खोज नहीं देगा। किसी के बदले परीक्षा देकर उत्तीर्ण हो जाएगा, सो नहीं होगा। किसी के पेट में दर्द है, कोई दूसरा दवा खा लेगा, तो पेट का दर्द छूट जाएगा, सो नहीं होगा। किसी को भूख लगी है, उसके बदले कोई खा ले, सो नहीं होगा। भूख लगी है, तो स्वयं खाना होगा। बीमार है तो दवाई स्वयं खानी पड़ेगी। इसी तरह स्वयं करना पड़ेगा, बिना किये कुछ नहीं होता है। गुरु, संत, महात्मा भी सहायक होते हैं।
जो जेहि पंथ चलइ मन लाई।
तो हरि काहे न होहिं सहाई ।।
उसके सहायक होते हैं, जो उस रास्ते पर चलते हैं। जो अपने को बनाना चाहेंगे, वही बन सकते हैं, उन्हीं को बनाया जा सकता है। जो परवाह नहीं करते, जो लापरवाह है, उसको क्या पता चलेगा। उसको खोजने के लिए, ईश्वर को खोजने के लिए कहीं बाहर जाने की जरूरत नहीं है। वह शहरग अर्थात् सुषुम्ना, जिसको आज्ञाचक्र कहते हैं, वहाँ से ही जाने का रास्ता है।
सुखमन के झीना नाल से, अमृत की धारा बही रही ।
मीन सुरत धार धर, भाठा से सीरा चढ़ी रही ।।
‘भाठा से सीरा’ कुरानशरीफ में लिखा है, लेकिन लिखने की कला इस तरह है, जिसको सब कोई समझ नहीं सकते हैं। इसमें लिखा है कि हजरत मूसा ने अपने सेवक से कहा कि जबतक दो दरिया मिल नहीं जाएगी, मैं सफर करता रहूँगा।’ मूसा सफर करते रहे, जहाँ दो दरिया मिल गई, वहाँ एक मछली निकली और जैसे सुरंग होती है, उसी सुरंग में प्रवेश कर गई। एक कुरानशरीफ में तो ऐसा लिखा है। दूसरे कुरानशरीफ में लिखा है कि मछली को पकाकर खा गए। तीसरे कुरानशरीफ में लिखा है कि अब मछली निकल गई। निकल गई, तो कहाँ गई। दो दरिया मिली कहाँ-यह संकेत है। इसी दो दरिया के लिए कहा गया है-
इडा भगवती गंगा पिंगला यमुना नदी ।
इडा पिंगलयोर्मध्ये सुषुम्ना च सरस्वती ।।11।।
त्रिवेणीसंगमो यत्र तीर्थराजः स उच्यते ।
तत्र स्नानं प्रकुर्वीत सर्व्वपापैः प्रमुच्यते ।।12।।
यही दोनों नदियाँ हैं-गंगा और यमुना।, जिसको इड़ा और पिंगला कहते हैं। वे दो नदियाँ जहाँ मिलती हैं, दृष्टि की दोनों धारें जहाँ मिलती हैं, वहाँ सुरत आगे निकल जाती है। सुरंग मिल जाता है, वही झीनानाल है। उसी नाल से मछली निकलती है, सुरत निकलती है। संत कबीर साहब कहते हैं-
विमल विमल अनहद धुनि बाजै,
सुनत बने जाको ध्यान लगे।
इसलिए उन्होंने कहा है कि सुरत जो है, वह मछली है और जैसे उलटी धारा पर मछली चलती है, उसी तरह से जो धारा परमात्मा से संसार में आई हुई है, उस धारा को सुषुम्ना में, आज्ञाचक्र में पकड़ो, उलटो, बहिर्मुख से अंतर्मुख होओ। जो हमलोग दसेन्द्रिय में बँधे हुए हैं, उसके कार्य-कलापों में लगे हुए हैं, उससे छूटकर हम नौवें द्वार से दसवें द्वार में चले जाएँ। संत राधास्वामी साहब ने कहा-
इस नगरी में तिमिर समाना, भूल भरम हर बार ।
खोज करो अंतर उजियारी, छोड़ चलो नौ द्वार ।।
गुरु नानक साहब ने कहा-
नउ दरि ठाके धावतु रहाए ।
दसवै निज घरि वासा पाए ।
उथै अनहद सबद बजहि दिन राती
गुरमति शबदु सुणावणिआ ।।
नौ दरवाजे से दसवें दरवाजे में ले जाओ। जब दसवें दरवाजे में ले जाओगे, तो ‘उथै अनहद सबद बजहि दिन राती’ वहाँ अनहद ध्वनि होती है, अंतर्नाद होता है, उस नाद को पकड़ो। नाद में यह गुण होता है, वह अपने केन्द्र पर खींचता है। अँधेरी रात हो, हाथोहाथ नहीं सूझता हो, आप तू-तू कीजिए, कुत्ता आपके पास आ जाएगा। क्यों, आपकी आवाज से आपके पास कुत्ता आ गया। उसी तरह परमात्मा से, अल्लाह से आवाज आ रही है, उस आवाजेगैब को जो पकड़ेगा, वह परमात्मा के पास पहुँच जाएगा।
गोश बातिन हो कुशादा जो करै कुछ दिन अमल ।
ला इला अल्लाह हो अकबर पे जाने के लिए ।।
जो सगलेनसीरा करता है, उसका अभ्यास करता है, कुछ दिनों तक उसका अभ्यास करेगा। ‘जो करै कुछ दिन अमल।’ कुछ दिन अगर दृष्टिसाधन की क्रिया करता है, उसको वह शब्द मिल जाता है। ‘ला इला अल्लाह हो अकबर पे जाने के लिए’ परमात्मा के पास जाने का उसको शब्द मिल जाता है। उस शब्द के सहारे परमात्मा तक जाता है, इसके बाद संसार में ढूँढने की जरूरत नहीं है। अपने अंदर में चलिए। अपने अंदर चलने के लिए सदाचार का पालन करना होगा। सदाचार के पालन में झूठ, चोरी, नशा, हिंसा, व्यभिचार-इन पंच पापों से जो अपने को बचाकर रखेंगे, वही उस रास्ते पर चल सकेंगे। जैसे सूते में छोटी-सी गिरह है, तो वह सूई के छेद में नहीं घुस सकती है। उसी तरह छोटा-सा पाप कहिए, कोई छोटे-से-छोटा पाप करनेवाला भी उस संकीर्ण द्वार में, दसवें द्वार में, झीनानाल में नहीं जा सकता है। इसलिए पहले पापों को छोड़ना होगा। पारस स्पर्श करता है लोहे में, तो सोना हो जाता है। गुरु ने एक शिष्य से कहा कि एक डिब्बी में रखा हुआ है ताखे पर, ले आओ, उसमें पारस है। डिब्बी उठाकर लाते हैं। लोहे की डिब्बी थी। शिष्य कहता है कि गुरुदेव! कहा जाता है कि लोहा में स्पर्श होता है पारस का तो वह सोना हो जाता है। इसी डिब्बी में यह पारस है, तो यह सोना कहाँ बना? गुरु ने कहा-डिब्बी को खोलो तो सही। खोला तो देखा कि उसमें कपड़ा लपेटा हुआ था। पुनः कहा-कपड़ा हटा दो, तब सटाओ। कपड़ा हटा दिया गया तो सोना हो गया। उसी तरह से कुछ लपेटे रखेंगे, तो सोना होगा कहाँ से।
झूठ कपट करि माया जोरि, बात करै छल की ।
पाप की पोट धरे सिर ऊपर, किस विधि ह्वै हलकी ।।
जब हम पापों को छोड़ेंगे, निष्पाप होंगे, तब पवित्र होंगे। हमलोग देवघर जाते हैं, मस्जिद जाते हैं, गिरिजा जाते हैं, गुरुद्वारा में जाते हैं-जहाँ जाते हैं, पवित्र हो लेते हैं, तब जाते हैं। जो बाहर का मंदिर बना है, उसमें जाने के लिए बाहर के शरीर को धोते हैं और जो भीतर का घर है, कचड़े-मैले से घुस जाइएगा। उसको धोना होगा। पवित्र करना होगा। जब पवित्र हो जाएगा, भार उतर जाएगा। पवित्र हो जाएँगे, तब आगे बढ़ेंगे। इसलिए पापों को छोड़ना अनिवार्य है। उसी के बल पर गुरु सहायता करनेवाले हैं। वे सहायता करेंगे, वे दयालु होते हैं, परम दयालु होते हैं। अगर एक बाल के बराबर भी हम आगे चलें, तो दस डेग आगे आकर ले जाने के लिए तैयार रहते हैं। समय बहुत हो गया। आपलोग बहुत देर से बैठे हुए हैं। आपलोगों को मैं बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूँ। जो बुजुर्ग हैं, मुझसे बड़े हैं, मैं उनको प्रणाम करता हूँ और जो मध्य के हैं, उनको धन्यवाद देता हूँ और जो मुझसे छोटे हैं, मैं उनको आशीर्वाद देता हूँ।
(स्थान-महर्षि मेँहीँ आश्रम कुप्पाघाट, भागलपुर; दिनांक-20-12-2005 ई0, महर्षि संतसेवी-जयन्ती के सुअवसर पर हुआ था।)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
नववर्ष के शुभारम्भ में सबलोगों के लिए मेरी मंगलकामना है।
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग्भवेत् ।।
सभी सुखी रहें, सभी नीरोग रहें, सभी शुभ-शुभ ही देखें, दुःख किसी को न होवे। ऋषि का प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद है, उसमें एक मंत्र आया है-
संग गच्छध्वं संग वदध्वं संग वो मनांसि जानताम् ।
देवाभागे यथापूर्वे सञ्जनानां उपासते ।।
आपस में सब मेल से रहें, प्रेम से बातचीत करें। उद्वेग करनेवाली बात न बोलें। पूर्व के विद्वज्जन जिस प्रकार का शिष्टाचार करते थे, वैसा करें और भगवद्भजन करें। हमारे प्रातःस्मरणीय परम पूज्य गुरुदेव कहा करते थे कि आध्यात्मिकता को अपनाओ। जहाँ आध्यात्मिकता को अपनाओ। जहाँ आध्यात्मिकता रहेगी, वहाँ सदाचारिता रहेगी। जहाँ सदाचारिता रहेगी, वहाँ की सामाजिक नीति अच्छी होगी और जहाँ की सामाजिक नीति अच्छी होगी, वहाँ की राजनीति बुरी नहीं होगी और शान्ति विराजेगी।
जहाँ आध्यात्मिकता का अभाव है, वहाँ के लोग सदाचारी नहीं बन सकते हैं, वहाँ की सामाजिक नीति अच्छी नहीं हो सकती और वहाँ की राजनीति बुरी नहीं रहेगी, जिससे सदा उथल-पुथल बना रहेगा। क्योंकि आध्यात्मिक और सदाचारिता का संबंध क्यू (फ़) और यू (न्) का है। जहाँ क्यू (फ़) रहता है, वहाँ यू (न्) रहता है। क्यू (फ़) से यू (न्) को कोई हटा नहीं सकता है। उसी तरह जहाँ आध्यात्मिकता है, वहाँ सदाचारिता विराजेगी ही, उसको कोई हटा नहीं सकता है। जबतक सदाचारी नहीं बनेंगे, सत् आचारी=सत्य का व्यवहार नहीं करेंगे, कल्याण नहीं होगा।
संतमत कहता है कि झूठ, चोरी, नशा, हिंसा, व्यभिचार-इन पंच पापों को नहीं करो। एक ईश्वर पर विश्वास करो। ईश्वर अपने अंदर मिलेंगे, इसका दृढ़ निश्चय रखो। सत्संग करो, ध्यान करो, गुरु सेवा करो और अपने जीवन-यापन के लिए कुछ-न-कुछ पवित्र कमाई अवश्य करो।
जहाँ तक बन पड़े, दूसरे की भलाई करो, बुराई सोचो ही मत। जो दूसरे की बुराई सोचते हैं, करते हैं, उनकी स्वतः ही बुराई हो जाती है। संतमत कहता है कि पाँच पापों को नहीं करो। पाँच पापों में अगर पाप-झूठ को सारा विश्व छोड़ दें, तो एक झूठ के छोड़ देने से, सत्य के अपनाने से विश्व में शान्ति विराजेगी। इसलिए हमलोग सत्य को अपनावें, असत्य का त्याग करें। जो उचित हो, वह करें; जो अनुचित हो, उसको छोड़ें। आज रविवार है, गुरु-कीर्तन कहिए, फिर आरती होगी। सभी के लिए मंगलकामना है। (स्थान-महर्षि मेँहीँ आश्रम कुप्पाघाट, भागलपुर; दिनांक-1-1-2006 ई0, साप्ताहिक सत्संग के सुअवसर पर हुआ था।)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
संतमत शान्ति का मत है, यह कल्याण-मार्ग प्रदर्शित करता है। ज्ञान-योग-युक्त ईश्वर की भक्ति बतलाता है। ईश्वर की भक्ति करने के लिए घर-वार, परिवार अथवा रोजगार छोड़ने की आवश्यकता नहीं है। परिवार में रहकर ईश्वर-भजन करना चाहिए। संतमत कहता है-तुम शरीर नहीं हो, शरीरी हो; क्षेत्र नहीं हो क्षेत्रज्ञ हो। शरीर जड़ है, तुम चेतन हो। जड़ और चेतन-इन दोनों का घनिष्ठ संबंध हो गया। कितना भी घनिष्ठ संबंध क्यों न हो, एक-न-एक दिन पृथक् हो जाता है। शरीर रह जाता है, प्राण निकल जाते हैं। इसको चाहे मिट्टी में गाड़ दे या चिता में चढ़ाकर फूँक दे। लेकिन यह शरीर, जिस संसार में रह रहा है, वह संसार कैसा है? संतजन कहते हैं-बड़ा भयंकर है। संत कबीर साहब कहते हैं-
यह जग कोटि काठ की, चहुँ दिसि लागि आगि ।
दुरजन रहे सो जरि मरै, सज्जन पूरे भागि ।।
जब किसी जंगल में आग लग जाती है, तो जितने जीव रहते हैं, सभी मर जाते हैं, लेकिन जो जीव बिल के अंदर रहता है, वह नहीं मरता है। इस संसार में सब कोई काल के गाल में चले जाते हैं, लेकिन जिसको उस बिल का पता है कि किस बिल में रहा जाता है। वह बिल आज्ञाचक्र का दसवाँ द्वार है। जो दसवें द्वार के बिल में प्रवेश कर जाता है, नितप्रति दिन साधना करता है, करते-करते वहाँ चला जाता है, जहाँ काल की दाल भी नहीं गलती। गुरु गोरखनाथजी महाराज कहते हैं-
गोरख कहै सुनहु रे अवधू, जग में ऐसे रहणा ।
आँखे देखिबा, काने सुणिबा, मुखथैं कछू न कहणा ।।
नाथ कहै तुम आपा राखौ, हठ करि वाद न करणा ।
यहु जग है काँटे की बाड़ी, देखि दृष्टि पग धरणा ।।
जंगल है, काँटों का जंगल है, लोग इसी में उलझ-पुलझकर मर जाते हैं। संसार काँटों की बाड़ी है, तो इसको ठीक से देखकर चलिए, नहीं तो चुभेगा। अगर अपने को काँटों से बचाकर चलते हैं, तो सुरक्षित पार कर जाएँगे, नहीं तो काँटा चुभेगा। जैसे कोई चतुर्दिश सेना से घिर जाए, उसी तरह से माया के कटक से घिरे हुए हैं। इससे निकलना है, नहीं तो माया के चपेट में पड़ेंगे, कहाँ जाएँगे, कुछ पता नहीं। संत जन कहते हैं-रहना तो इस संसार में है; लेकिन किस तरह इस संसार में रहो? संसार को छोड़कर कहाँ जाओगे, जहाँ जाओगे, वहाँ संसार ही संसार है।
स्वामी विवेकानंदजी एक बार काशी विश्वनाथजी के दर्शन के लिए गये। दर्शन करके वे मंदिर से बाहर निकले। उन दिनों उसका पहनावा था-एक काफी लंबा कुर्ता पहनते थे। कई जेबें उसमें रहती थीं, उन जेबों में कई प्रकार के कागज रखते थे। जेब भरी हुई रहती थी। काशी में बंदर बहुत हैं, तो बंदर के मन में हुआ कि स्वामीजी की जेब में कुछ खाने की चीज है। बंदरों ने पीछा किया। विवेकानंद जा रहे थे, नजर पड़ी बंदरों पर कि बंदर पीछा क्यों कर रह हैं, तो उन्होंने डेग लंबी कर दी। जैसे डेग लंबी की, तो बंदरों ने भी डेग लंबी और तेजी से चलने लग गए। स्वामी विवेकानंद ने देखा कि ये तो काट खायेंगे मुझको, तो लगे दौड़ने। बंदर भी उनके पीछे-पीछे दौड़ने लगे, तो अगल-बगल के लोगों ने देखा तो कहने लगे कि स्वामीजी! रुक जाइए, नहीं तो बंदर काट खायेंगे। जैसे ही स्वामीजी रुक गये, तो बंदर सब भी रुक गया। स्वामी विवेकानंदजी ने कहा-संसार से भागना चाहोगे, तो संसार काट खाएगा बंदर की तरह। बंदर के बीच में ही तुमको रहना है, उसी तरह संसार के बीच रहो, नहीं तो संसार तुमको काट खाएगा। उनके गुरु श्रीरामकृष्ण परमहंसजी ने कहा-‘हाथ में तेल लगाकर कटहल काटना पड़ता है, नहीं तो उसका दूध लग जाता है। उसी तरह संसार में तो रहो, लेकिन हृदय को भगवद्भक्ति से तर करके रहो तो सांसारिकता तुममें नहीं लगेगी। नहीं तो सांसारिकता की जो मैल है, वह तुमको लग जाएगी। उन्होंने ये भी कहा कि धनियों के घर की नौकरानी की तरह संसार में रहना सीखो। नौकरानी मुँह से तो हमेशा यही कहती है कि ये बाल-बच्चे, घर-वार सब कुछ मेरे हैं; लेकिन उसका मन जानता है कि हमारा यहाँ कुछ भी नहीं है। फिर भी सारी सेवाएँ वह करती है, साथ-ही-साथ डर भी रहता है-मालिक की धमकी का, उसी तरह संसार की सँभाल करते रहो, करो सब कुछ; लेकिन जान रखो कि हमारा कुछ भी नहीं है, सभी मालिक के हैं। उस मालिक का हुक्म होगा, कब चला जाना होगा छोड़कर, कोई ठिकाना नहीं है। गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-
जैसे जल महि कमलु निरालमु मुरगाई नैसाणै ।
सुरति सबदि भवसागरु तरीअै नानक नामु बखाणै ।।
कमल की उत्पत्ति जल से ही होती है, किन्तु जल कितना भी बढ़ जाए, कमल ऊपर ही रहता है, कमल को जल डुबा नहीं सकता। उसी तरह संसार में तुम्हारा जन्म हुआ है, संसार में ही रहना है, लेकिन निर्लिप्त होकर रहना चाहिए। भक्त संसार में रहे कोई हानि की बात नहीं, लेकिन भक्त में सांसारिकता नहीं आनी चाहिए। अगर सांसारिकता आएगी, तो वह उसको डुबा देगी। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा-
तस्मात् सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युद्ध्य च।
महाभारत के मैदान में घमासान युद्ध चल रहा था। उस अवसर पर भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि तुम्हारा जो काम है युद्ध करने का, वह भी करो और मेरा स्मरण भी करते रहो। जो भगवान का स्मरण करते हैं, तो भगवान भी उसकी रक्षा करते हैं। इसलिए भगवान का भी स्मरण करें और संसार के कामों को भी करें। संसार को छोड़कर कहीं नहीं जा सकते; लेकिन जाना है, एक-न-एक दिन संसार से जाना है। जाएगा कौन? शरीर नहीं जाएगा, हम जाएँगे। हम जाएँगे कहाँ, कुछ बना है क्या, कुछ पता है। कहीं हमलोग जाते हैं तो इंतजाम कर लेते हैं, फलाने जगह जाएँगे। ऐसा न ऐसा होगा वहाँ, लेकिन शरीर छूटने पर जहाँ हम जाएँगे? उस जगह का पता है, वहाँ खाने-पीने की क्या व्यवस्था है, कुछ पता है? जैसे भागलपुर से हमको दिल्ली जाना है, जिस ट्रेन के जिस श्रेणी का टिकट कटाते हैं, उसी श्रेणी का वेटिंग रूम मिलता है। उसी तरह से यहाँ जो काम करेंगे, जैसा कुछ करेंगे, वही वहाँ का टिकट होगा और वहाँ जाकर उसी तरह का वेटिंग रूम मिलेगा। किसी ट्रेन में थर्ड श्रेणी का टिकट कटाइए, सेकेण्ड श्रेणी का या फर्स्ट श्रेणी का कटाइए, ए0सी0 कराइए, वह कटाना आपके हाथ में है। जैसा यहाँ कटाएँगे, वैसा वहाँ पाएँगे। उसी तरह से जैसा कर्म हम यहाँ करेंगे, उसी तरह का फल परमात्मा वहाँ देंगे। इसलिए-
कर भला होवे भला, करके भलाई देख ले ।
कर बुरा होवे बुरा, करके बुराई देख ले ।।
इसलिए बुरे कर्मों को तो करना ही नहीं चाहिए। भले कर्मों को करना चाहिए। जितना बन सके, दूसरे का उपकार करना चाहिए; क्योंकि साथ तो जानेवाला कुछ है नहीं। जो मेरे पास है, उससे किसी का उपकार हो जाता है, वह लगाना चाहिए, वह करना चाहिए। अपने जीवन-यापन के लिए कुछ-न-कुछ पवित्र कमाई अवश्य करना चाहिए और अपने-अपने परिवार का भी पालन-पोषण करना चाहिए। जो कुछ बन पड़े, दूसरे की भलाई-परोपकार में खर्च करना चाहिए। पवित्र जीवन बिताना चाहिए। जिसका जीवन पवित्र नहीं है, वह यहाँ भी दुःखी रहेगा और वहाँ भी दुःखी रहेगा। इसलिए संतों की आज्ञा के अनुकूल एक ईश्वर में विश्वास करना चाहिए। वे अपने अंदर मिलेंगे, इसका दृढ़ निश्चय रखना चाहिए। सत्संग करना चाहिए, ध्यान करना चाहिए, गुरु-सेवा करनी चाहिए और झूठ चोरी, नशा, हिंसा, व्यभिचार-पंच पापों से बचकर रहना चाहिए। आज रविवार है, गुरु कीर्तन कहिए। जाड़े का समय है, फिर भी आपलोग आ गए हैं यहाँ पर इतने कड़ाके की जाड़े में, शीतलहरी में। आपलोगों को बहुत-बहुत धन्यवाद है, आशीर्वाद है, गुरु महाराज आपलोगों पर दया करें।
(स्थान-महर्षि मेँहीँ आश्रम कुप्पाघाट, भागलपुर; दिनांक-8-1-2006 ई0, साप्ताहिक सत्संग के सुअवसर पर हुआ था।)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
हमलोग थोड़ी देर मौन धारण कर प्रार्थना करें। विश्व का प्राचीन ग्रंथ वेद है। कृष्णद्वयपायन ने उसको तीन भागों में विभक्त किया। ऋक्, साम और यजुः और चौथा वेद तीनों भागों में विभक्त किया गया है। पुनः वेद को दो भागों में विभक्त किया गया। एक का नाम रहा ब्राह्मण और दूसरे का नाम संहिता। ‘ब्राह्मण’ में यज्ञ आदि कर्मकांडों का वर्णन है और संहिता में ज्ञानयोग-युक्त भक्ति का वर्णन किया गया है। संहिता भाग में उपनिषद् की रचना हुई है। उसमें एक मंत्र आया है-‘नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो।’ जो बलहीन है, वह आत्मलाभ नहीं कर सकता। इसका अर्थ यह नहीं हो जाता, जो पहलवान है, वह आत्मलाभ करेगा। बलहीन से तात्पर्य क्या है? बलवान से तात्पर्य क्या है? शुद्ध, सात्त्विक आहार, उचित व्यायाम से शारीरिक बल बढ़ता है। सद्ग्रंथों के श्रवण, मनन, अध्ययन से मनोबल बढ़ता है। साधना करने से आत्मबल बढ़ता है। अन्तर के साधन-अंतर्ज्योति और अंतर्नाद की साधना करने से आत्मबल बढ़ता है। इस सत्संग का आयोजन करने का तात्पर्य यही है। हमें तीनों बल की आवश्यकता है। शारीरिक बल भी हो, मानसिक बल भी हो और आत्मबल भी हो।
आपलोग को ज्ञात कराया गया है कि यहाँ सत्संग होगा। सत्संग क्या चीज है, किसको कहते हैं? सत्संग दो शब्दों के योग बना से हुआ है-सत् और संग। सत् उस पदार्थ को कहते हैं, जो त्रयकाल अबाधित है, जिसमें किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता। जो था, है, और रहेगा, वह सत्य है। सत्य एक परम प्रभु परमात्मा ही है। उनका संग हो, यह सत्संग कहलाता है। किन्तु जितने, यहाँ हमलोग एकत्रित हैं, ब्रह्म के दर्शन तो हम नहीं कर पा रहे हैं, उनका संग तो नहीं हो रहा है, फिर सत्संग की संज्ञा क्यों? परम प्रभु परमात्मा सत्य है, उसका अभिन्न अंश जीवात्मा सत्य है। इस सत्य का उस सत्य से संग करा देना, यह प्रथम श्रेणी का सत्संग है। जबतक यह संग नहीं हुआ, तबतक जो संत हैं, उनका संग करें। जो संत होते हैं, उनके लिए गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है-
सोइ जाने जेहि देहु जनाई ।
जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई ।।
उस ब्रह्म को पाकर वे भी ब्रह्मवत् हो जाते हैं। कबीर साहब ने कहा है-
परम पुरुष की आरसी, संतों की ही देह ।
लखा जो चाहे अलख को, इन्हीं में लखि लेह ।।
ब्रह्म निर्गुण निराकार है। संत सगुण साकार हैं, किन्तु उन्हीं का प्रतीक है। इसलिए संतों का संग सत्संग कहलाता है और यह तृतीय श्रेणी का सत्संग है। किन्तु संत कौन है, उसकी पहचान के लिए हमारे पास कोई मीटर नहीं है। वास्तविक बात तो यह है कि जो संत होते हैं, वे ही संत की पहचान कर सकते हैं। आज ईसाई धर्म का कितना प्रचार है। लेकिन जिस समय प्रभु ईसा मसीह थे तो उनको कितना कष्ट दिया गया। प्राणदंड दिया गया और आज ईसाई धर्म चल रहा है। अल्पसंख्यक नहीं, बहुसंख्यक है। इस्लाम धर्म चल रहा है, उसके प्रवर्तक हजरत मुहम्मद साहब थे; लेकिन उनको कितना कष्ट दिया गया। दाने-दाने का मोहताज हो गये थे। यहाँ तक उनकी जान जाने की नौबत आ गई, तो मक्का से मदीना चले गये। दस वर्षों के बाद वे लौटे। जिस समय कबीर साहब हुए। कबीर की बहत्तर तस्रीफ (कसनी) प्रसिद्ध है। बहत्तर प्रकार का दुःख-दर्द दिया गया। सिक्ख धर्म को पढ़िए, नानकपंथ को उन गुरुओं को कितने-कितने कष्ट झेलने पड़े हैं। मीराबाई को जहर का प्याला पिलाया गया। संत तबरेज की खाल खींच ली गई। जिस समय संत होते हैं, उनकी पहचान हम नहीं कर पाते हैं। उनको कष्ट देना, गाली देना, जान मार देना। पलटू साहब को आग में झोंक दिया गया। यह जानते हैं, लेकिन संतों की पहचान नहीं कर पाते हैं। कौन संत है, कौन नहीं है, तो दूसरी श्रेणी का सत्संग कैसे हो? आज जिनको हम संत कहते हैं, कुछ लोगों से उनके संबंध कुछ और सुनने को मिल जाते हैं, जिससे उनके प्रति घृणा हो जाती है, फिर हम कैसे विश्वास करें कि कौन संत है, किसका हम संग करें? इसलिए हम द्वितीय श्रेणी का सत्संग नहीं कर पाते हैं, तो जो पहले संत हो चुके हैं, उन संतों की जो वाणी है, उन संतवाणी का हम अनुसरण करें, यह सत्संग है। फिर स्वाभाविक है कि द्वितीय श्रेणी का सत्संग भी होगा और उनसे सद्ज्ञान प्राप्त कर सत् शिक्षा-दीक्षा ग्रहण कर हम प्रथम श्रेणी का भी सत्संग कर पायेंगे। अभी हमलोग जो सत्संग करने के लिए बैठे हैं, यह तृतीय श्रेणी का सत्संग है। संत कैसे होते हैं?
षट् विकार जित अनघ अकामा।
अचल अकिंचन सुचि सुखधामा ।।
अमित बोध अनीह मित भोगी।
सत्य सार कवि कोविद जोगी ।।
पर उपकार बचन मन काया।
संत सहज स्वभाव खगराया ।।
संत षट्विकार के शिकार नहीं होते, षट्विकार अपने अधिकार में रखता है, वे संत होते हैं। वे निष्पाप होते हैं-झूठ, चोरी, नशा, हिंसा, व्यभिचार-इन पंच पापों से वे विरक्त रहते हैं, कामना-रहित रहते हैं। अटल-एक ईश्वर पर दृढ़ विश्वास, उसको कोई टाल नहीं सकता। महात्मा गाँधी जी थे, उनके साथ में एक जर्मन रहता था। एक दिन की बात है। उनका कोट लटका हुआ था, कोट की जेब पीछे लटक रही थी। महात्मा गांधीजी ने हाथ लगाकर देखा तो मालूम पडा़ जेब वजनदार है। जब वह जर्मन बाथरूम से आया तो महात्मा गांधी ने पूछा कि तुम्हारी जेब में क्या है? इतना वजनदार मालूम पड़ता है। जर्मन ने कहा कि आपको मालूम नहीं है। कुछ लोगों ने आपका पीछा कर रखा है। कभी भी आपपर वार कर सकता है। इसी के बचाव के लिए पिस्तौल रखा है अपनी जेब में। महात्मा गाँधी ने कहा-वाह, वाह! बहुत अच्छा। इतने दिनों तक तो निर्गुण निराकार भगवान में विश्वास था; लेकिन सगुण भगवान भी आ गये रक्षा के लिए, अब क्या चाहिए। जल्दी जेब से निकालकर फेंको इसे। रक्षा करनेवाले तो प्रभु हैं, वही सबकी रक्षा करते हैं। तुम मेरी क्या रक्षा करोगे! गीता में भगवान ने कहा है-‘योगक्षेमं वहाम्यहम्।’ मैं अपने भक्तों की रक्षा करता हूँ। मेरे भक्तों को क्या चाहिए, देता हूँ और फिर रक्षा भी करता हूँ। अटल विश्वास रहता है। ‘अकिंचन’ वे त्यागी होते हैं। संग्रही नहीं होते। संग्रह करनेवाले संत नहीं होते हैं, त्याग करनेवाले संत होते हैं।
पंजाब एक महात्मा हुए स्वामी रामतीर्थ। जापानवाले ने जापान बुलाये थे। वे जापान गये। जापान में उनका प्रवचन हुआ। वहाँ के लोग बड़े प्रभावित हुए। अपने पास वे कुछ रखते नहीं थे। वहाँ के लोगों ने पूछा-कहाँ जाइएगा? यहाँ से मुझे अमेरिका जाना है। वहाँ के लोगों ने हवाई जहाज का टिकट कटा दिया अमेरिका का। अमेरिका आए। एक सज्जन ने पूछा-आप अमेरिका में कहाँ ठहरेंगे? उन्होंने कहा- मुझे मालूम नहीं। पुनः सज्जन ने पूछा-कितने दिनों तक ठहरेंगे? कहा-मुझे मालूम नहीं। सज्जन ने कहा- आपके पास कितने डॉलर हैं? उन्होंने कहा-कुछ भी नहीं। तब वे सज्जन बोले कि आप कौन हैं? इन्होंने कहा कि मैं रामबादशाह हूँ। सज्जन ने कहा-आप अपने को बादशाह कहते हैं और आपके पास कुछ भी नहीं है? बगल में एक सज्जन खड़े थे, उन्होंने कहा-जिनका प्रवचन जापान में हुआ, आप वही रामबादशाह हैं। उन्होंने कहा-हाँ, वही हूँ। उन्होंने कहा-जितने दिनों तक रहेंगे, मेरे यहाँ रहेंगे, सारा खर्च मैं दूँगा। रामतीर्थ ने कहा-बादशाह के पास पैसे नहीं रहते, खजाँची के पास पैसे रहते हैं। देखो, ये मेरे खजाँची हैं। ‘अकिंचन’ संग्रही नहीं होते। शुद्ध, पवित्र होते हैं। तन से, मन से, वचन से सुखधाम होते हैं। वही तो सुख का घर है। उनकी शरण में जो जाता है, वहाँ दुःख कहाँ है। अरे! फुलवारी में कोई जाता है, तो क्या वह किसी फूल से सुगंधि माँगता है। जो फुलवारी में जाएगा, सुगंधि स्वाभाविक लगेगी। उसी तरह से जो संत होते हैं। संत के पास जायेंगे, संत के वचन को सुनेंगे।
साचो उपदेस देत भली भली सीख देत,
समता सुबुद्धि देत कुमति हरतु है ।
मारग देखाइ देत भावहु भगति देत,
प्रेम को प्रतीति देत अभरा भरतु है ।।
ज्ञान देत ध्यान देत आतम बिचार देत,
ब्रह्म कूँ बताइ देत ब्रह्म में चरतु है ।
‘सुन्दर’ कहत जग, संत कछु लेत नाहि,
सन्त जन निसिदिन देवोही करतु है ।।
संत लेते नहीं, देते हैं। उन संतों के ज्ञान को सत्संग करने के लिए हमलोग यहाँ सम्मिलित हुए हैं। सत्संग से तृतीय श्रेणी के सत्संग से क्या होता है? सत्संग नहीं करें तो क्या होता है-‘हानि कुसंग सुसंगति लाहू।’ हानि होती है कुसंग से और सुसंग से लाभ होता है। इसका प्रमाण है-
गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा ।
कीच मिलै जग नीच संगा ।।
पैरों से रौंदी जानेवाली धूल, जब वह पवन का सुसंग करती है, हवा का संग करती है, तो नीचे रहनेवाली धूल गगनगामिनी हो जाती है। वही धूल जब जल का संग करती है, तो पाताल चली जाती है। उसी तरह जो संतों का संग करते हैं, तो उनकी सुरत गगनगामिनी हो जाती है। अर्थात् वे परम प्रभु परमात्मा तक पहुँच जाते हैं। कुसंग करने से किस पाताल को जाते हैं पता नहीं। इसीलिए तृतीय श्रेणी का सत्संग यह बहुत लाभदायक है।
जब मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम लंका- विजय होकर सीता का उद्धार कर अयोध्या लौटे, सिंहासन पर विराजमान हुए, देवताओं ने आकर उनकी स्तुति की। देवता सब चले गये। पीछे भगवान शंकर आए। भगवान शंकर ने स्तति की और कहा-
नाथ एक वर माँगहू, हरषि देय श्रीरंग ।
पद सरोज अनपायिनी भक्ति सदा सत्संग ।।
हे प्रभु आपसे मेरी प्रार्थना है-मैं आपसे एक वरदान माँगता हूँ और वह वरदान यह है कि अपने चरण में अनन्य भक्ति दीजिए और सत्संग दीजिए। भगवान शंकर वरदान माँगते हैं सत्संग के लिए। गोस्वामी तुलसीदासजी ने श्रीरंग की ही संज्ञा दी है और सत्संग को श्रीरंग का अंग बतलाया है।
देहि सत्संग निज अंग श्रीरंग
भवभंग कारण सरण सोकहारी ।
यह सत्संग क्या है, श्रीरंग का अंग है। किसी ने पूछ दिया-
नित प्रति दर्शन साधु, और साधुन के संग ।
तुलसि काहि वियोग तें, नहिं लागा हरिरंग ।।
रोज तो साधु का संग करते हैं, साधु का दर्शन भी करते हैं। फिर उसका रंग उसपर नहीं चढ़ता है, इसका कारण? तो जवाब दिया-
मन तो रमे संसार में, तन साधुन के संग ।
तुलसि याहि वियोग तें, नहिं लागा हरि रंग ।।
तन तो रहता है सत्संग में और मन रहता है संसार में, बाजार में, घर में, परिवार में तो सत्संग का रंग कैसे लगेगा! एक बाल्टी है, उसमें रंग घोलकर रखिए कपड़ा रंगने के लिए। जब बाल्टी में वह कपड़ा रहेगा, तब न कपड़ा रंगेगा और बाल्टी के बगल में पड़ गया, तो उसमें क्या लगेगी, उसमें मिट्टी लगेगी। उसी तरह से मन तो जहाँ-तहाँ घूमता है और तन सत्संग में रहता है, तो रंग कहाँ से लगेगा। जहाँ मन तहाँ तन। दो मित्र थे। कहीं भागवत कथा हो रही थी। दोनों ने विचार किया-चलो, भागवत कथा हो रही है, जाकर सुनें हमलोग। बहुत अच्छी बात है, भगवत्-चर्चा होती है। दोनों मित्र चले। रात का समय था। पैदल ही जा रहे थे। रास्ते में वर्षा होने लगी। एक साथी भाग करके बगल के घर में चला गया, वह घर वेश्या का था। दूसरा साथी जो था, उसने कहा- शरीर कागज का नहीं है, जो वर्षा में गल जाएगा। कपड़ा भींग जाए तो भींग जाए, पर वहाँ जाकर भागवत-कथा सुनेंगे। फिर कपड़ा तो सूख ही जाएगा। चला गया वहाँ, जहाँ रामकथा होती थी। एक है वेश्यालय में, दूसरा है वहाँ जहाँ भगवत् चर्चा हो रही है। अब जो वेश्यालय में है। उसके मन में होता है। ओह! ओह! मेरा मित्र कितना अच्छा है कि चला गया, वह सत्संग सुनता होगा। भगवत् चर्चा का लाभ लेता होगा। हम ही अभागा कि कहाँ चले आए। यहाँ हमको नहीं रुकना चाहिए। अब वह वहाँ सत्संग में था, भगवत् चर्चा हो रही थी। उसके मन में हुआ कि यहाँ पर आकर हम फँस गये, हमारा मित्र कितना मजा लूटता होगा। दोनों की दो स्थिति है। शरीर दोनों का छूटता है। जो वेश्यालय गया था, उसको स्वर्ग मिला और जो सत्संग में गया था, उसको नरक होता है। धर्मराज से पूछा कि हम तो सत्संग में किये हैं, फिर हमको नरक क्यों? धर्मराज ने कहा कि तुम्हारा तन था सत्संग में और मन था वेश्यालय में और उसको स्वर्ग इसलिए कि उसका तन था वेश्यालय में; लेकिन मन था सत्संग में। इसलिए हमलोग सत्संग में आवें तो एकाग्र होकर सुनें।
सखि सीख सुनि गुनि गाँठि बाँधो,
ठाठ ठठ सत्संग करै ।
जब लग संग अपंग आदि अंग सत्वत मन मरै ।।
पहले सत्संग सुनो, उसको गुणो-विचारो और गाँठ में बाँधो यानी मन में याद रखो। कहने का तात्पर्य इसका आचरण करो। सत्संग सुना एक कान से और निकाल दिया दूसरे कान से, तो क्या लाभ होगा?
एक राजा के दरबार में एक कलाकार तीन मूर्तियों को लेकर गया। राजा ने पूछा-इनकी क्या कीमत है? कलाकार ने एक मूर्ति का बतलाया, इसकी कोई कीमत नहीं है। दूसरी मूर्ति का बतलाया-हाँ, एक पैसा दाम है। तीसरी मूर्ति का दाम कहा-यह तो अनमोल है। इसका मूल्य कौन देगा! राजा ने अपने मंत्री से कहा कि तीनों मूर्ति को देखिए तो तीन तरह का दाम बतला रहा है। देखा गया, तीनों की आकृति एक थी। तीनों का वजन एक था, तीनों की कलाकारी समान थी। किसी में कमी नहीं थी। मंत्री के मन में हुआ, जबतक कि कमी-बेशी नहीं है, कीमत कमी- बेशी कैसे रखी गयी है? मंत्री ने एक सींकी ली और एक मूर्ति के कान में दी। एक कान में दी हुई सींकी, दूसरे कान से निकल गई। दूसरी मूर्ति के कान में जब सींकी डाली गई, तो वह सींकी मुँह होकर बाहर निकली और जब तीसरी मूर्ति के कान में सींकी डाली गई, तो वह हृदय की ओर चली गई। मंत्री ने कहा-इसी कारण तीनों की तीन कीमत है। एक आदमी सुनता है तो इस कान से, सत्संग भी बहुत करता है, सुनता है-सुनाता है, समझता है-समझाता है; लेकिन उसका ग्रहण कुछ नहीं, एक कान से सुना, दूसरे कान से निकाल दिया, उसकी कोई कीमत नहीं है। दूसरा जो सुनता है और उसको कुछ याद रखता है, कुछ समय पर बोलता भी है, तो एक पैसा उसकी कीमत है। तीसरा जो सत्संग सुनता है और उसी तरह का आचरण करता है, उसकी कोई कीमत नहीं दे सकता है, वह अनमोल आदमी है। संत तुलसी साहब कहते हैं-सुनो, गुनो और उसको बाँध करके रखो। आचरण करो। तुम्हारा कल्याण होगा।
सठ सुधरहिं सतसंगति पाई।
पारस परसि कुधातु सुहाई।।
जो शठ है, वह भी सत्संग से सुधर जाता है। गोस्वामीजी कहते हैं-
मति कीरति गति भूति भलाई।
जब जेहि जतन जहाँ जेहि पाई ।।
सो जानब सत्संग प्रभाऊ।
लोकहू वेद न आन उपाऊ ।।
जिसने सुबुद्धि पाई है, जिसने यश प्राप्त किया है, जिसको शुभगति मिली है। जो विभूतिवान हैं, जिसके अंदर भलाई है-यह ज्ञान जिसके अंदर है, यह सत्संग का ही प्रभाव है। गुरु महाराज जिस समय यात्र करते थे, ट्रेन से जा रहे थे। बाराहाट एक स्टेशन है। स्टेशन पर गुरु महाराज बैठे हुए ट्रेन की प्रतीक्षा कर रहे थे और यात्री लोग भी थे वहाँ, कुछ पढ़े-लिखे लोग गुरु महाराज के पास आ गये। उन्होंने कहा-‘महाराजजी! आप सत्संग करते हैं, लोगों को सत्संग सुनाते हैं। सत्संग से क्या लाभ होता है, सो हमको भी सुनाइए।’ गुरु महाराज ने कहा-सब कुछ सत्संग से मिलता है, आपको क्या चाहिए? उनलोगों ने कहा-हमलोग गृहस्थ हैं, हमारी चाहना कितनी है, चाहना का कोई ठिकाना नहीं है। क्या बतलाएँ? गुरु महाराज बोले-आप पढ़े-लिखे विद्वान आदमी हैं, चाहना को समेटकर बतलाइए, क्या चाहिए? वे बेचारे चुप हो गये। तब गुरु महाराज ने कहा-अच्छा, आप नहीं कहते हैं तो मेरी ओर से सुनिए। आपको सुबुद्धि चाहिए कि दुर्बुद्धि? कहा-हमें सुबुद्धि चाहिए। गुरु महाराज ने पूछा-आप अपना यश चाहते हैं या अपयश? तो उन्होंने कहा-यश चाहते हैं। गुरु महाराज ने कहा-आप संसार में रहकर सुख-मौज से रहना चाहते हैं या दुःखी होकर; मरकर नरक में जाना चाहते हैं या मोक्ष पाना चाहते हैं? शुभ गति चाहते हैं कि दुर्गति। उन्होंने कहा कि शुभगति। आप संसार में ऐश्वर्यवान बनकर रहना चाहते हैं या दरिद्र बनकर रहना चाहते हैं? कहा कि ऐश्वर्यवान बनकर रहना चाहेंगे। गुरु महाराज ने कहा कि आप संसार में भलाई चाहते हैं कि बुराई? वे बोले-भलाई चाहते हैं। गुरु महाराज ने कहा कि गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में लिखा है-
मति कीरति गति भूति भलाई।
जब जेहि जतन जहाँ जेहि पाई ।।
सो जानब सतसंग प्रभाऊ।
लोकहु वेद न आन उपाऊ ।।
ये पाँचों चीजें मिल जाए, तो और कुछ चाहिए! कहा-अब कुछ नहीं चाहिए। ये चीजें मिलती हैं सत्संग से। अभी हमलोग तृतीय श्रेणी के सत्संग कर रहे हैं। यह तृतीय श्रेणी का सत्संग मन से करें। फिर अवसर आएगा कि द्वितीय श्रेणी का भी सत्संग मिलेगा और उनसे जो शिक्षा-दीक्षा मिलेगी। उसका हमलोग आचरण करेंगे, तो प्रथम श्रेणी का जो सत्संग है, वह भी लाभ होगा। इसलिए पहले हम नींव को मजबूत करें, फिर आगे बढ़ें। इसलिए इस सत्संग के द्वारा ज्ञानयोगयुक्त भक्ति का प्रचार होता है। झूठ, चोरी, नशा, हिंसा, व्यभिचार-इन पंच पापों की मनाही की जाती है सत्संग। जो इन पापों से बचकर रहते हैं, वह पवित्र होता है, वही परमात्मा को प्राप्त करता है। हाथ साफ हो तो इत्रदान में अंगुली दीजिए तो सुगंधि मिलेगी। अगर गोबर फेंका हुआ हाथ हो और अंगुली दीजिए तो क्या लाभ होगा! अपने हृदय को पवित्र कीजिए, शुद्ध कीजिए, सत्संग में जाइए और सत्संग का लाभ लीजिए। इतना कहकर मैं अपने प्रवचन में विराम देता हूँ और आपलोगों को धन्यवाद देता हूँ। इतनी विषम परिस्थिति में उपस्थित होकर भी आपलोग बहुत शांत भाव से रहे, इसलिए बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूँ। (स्थान-सोदपुर, कोलकाता; दिनांक-27-1-2006 ई0, प्रातः, 95वाँ महाधिवेशन के सुअवसर पर हुआ था।)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
मुझ अज्ञ अकिंचन का आप जिनलोगों ने अभिनन्दन किया है, उन सब सज्जनों का मैं अभिवंदन करता हूँ और बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूँ। वे सब बातें, जो आपने अभी अभिनंदन पत्र में सुनी हैं, मुझमें वे सब गुण नहीं हैं। जितने मेरे सद्गुण आप सुने हैं, उसको उलटा करके समझना।
अभी आपलोगों ने रामचरितमानस का पाठ सुना है। रामचरितमानस एक विलक्षण ग्रंथ है। इसमें ज्ञान, ध्यान, योग, जप, तप, पारिवारिक, व्यावहारिक, राजनीतिक सभी प्रकार की बातें समाहित हैं। बतलाया गया है कि पिता पुत्र को किस तरह रहा जाए। दशरथजी की आज्ञा होती है, मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम को युवराज पद पर प्रतिष्ठित करने का। सारी तैयारियाँ हो जाती हैं। कल उसको युवराज पद पर प्रतिष्ठित किया जाएगा; किन्तु कुछ कारणवश राजा दशरथ युवराज को गद्दी पर न बिठकार जंगल जाने की आज्ञा देते हैं। जो राजा बननेवाला हो, उसको जंगल भेजा जाए, उसका हृदय क्या बोलेगा! लेकिन भगवान श्रीराम के हृदय में किसी प्रकार की मलिनता नहीं हुई। उन्होंने पिता का आदेश शिरोधार्य कर जंगल में ही मंगल समझा और प्रस्थान कर गया। यह पिता-पुत्र का व्यवहार बतलाया गया। जंगल जाने की आज्ञा श्रीराम को मिली थी, लेकिन श्रीराम के साथ श्रीसीताजी भी जाने को तैयार हो गयी। भगवान राम ने कहा-जंगल में बहुत प्रकार के कष्ट होते हैं। तुम जंगल नहीं जाओ, तुम यहीं रहो। मन नहीं लगे तो पिता के यहाँ चले जाना कुछ दिनों के लिए, फिर लौटकर चली आना। सीताजी ने कहा-
पति बिना सूना सब संसार ।
पति ही पत है पति ही गत है,
पति बिना विपति हजार ।।
‘पति बिना सूना सब संसार’ आप नहीं रहेंगे, कितना बड़ा राज वैभव क्यों न हो; लेकिन मेरे लिए सुखदाई नहीं दुखदाई है। अगर मैं आपके साथ चलूँगी तो जिस दुखदाई की चर्चा आप कर रहे हैं, वह मेरे लिए सुखदायी होगी।
जल बिनु मीनु, नदी बिना नीरा।
जिस नदी में जल में नहीं, वह किस काम का और जहाँ जल नहीं है, वहाँ मछली क्या करेगी! उसी तरह पति के नहीं रहने पर पत्नी की हालत होती है। सीताजी साथ हो लेती है। राम की पत्नी का क्या धर्म है, यह बतलाया जाता है। और जब सीताजी जंगल जाती है राम के साथ, वहाँ जंगल में सीता का हरण हो जाता है। जो हरण कर ले गया, भगवान राम के हाथ से उसका मरण भी हो गया। पत्नी के लिए पति क्या कर सकते हैं, पत्नी पति के लिए क्या कर सकती है, पति के लिए पत्नी के साथ कैसा व्यवहार है, यह दिखाया गया है। भाई-भाई का कितना स्नेह- यह दिखाया गया। राजसी सुख भगवान राम को था; लेकिन कैकेई भरत को देना चाहती थी। पर भरतजी ने राज्यसुख स्वीकार नहीं किया। भगवान राम को मनाकर लाने की कोशिश की; जंगल गये; लेकिन भगवान राम ने कहा-पिताजी की आज्ञा शिरोधार्य होना चाहिए। मेरे लिए जंगल है, यहीं मंगल है और तुम वहाँ राज्य करो; लेकिन भरतजी ने राज्य नहीं किया।
जिस तरह भगवान राम जंगल में रहते थे, उसी तरह से वे नंदीग्राम में रहते थे और राज्य की सँभाल करते थे। भाई-भाई का कितना स्नेह है, यह दिखलाया गया है। राजा और प्रजा का क्या संबंध होना चाहिए मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम भली भाँति जानते थे कि हमारे राज्य में प्रजा को किसी प्रकार का कष्ट नहीं है; लेकिन यह शरीर संसार में नहीं रहेगा। एक-न-एक दिन संसार छोड़कर जाना होगा। शरीर नहीं रहेगा।
धनानि भूमौ पशवो हि गोष्ठे
नारि गृहद्वारे सखा श्मशाने ।
देहश्चितायां परलोकमार्गे धर्मानुगो गच्छति जीव एकः ।।
किसी के पास कितना भी धन क्यों न हो; लेकिन वे सारे के सारे धरा पर ही धरे रह जाएँगे। कितना ही पशु हैं; लेकिन पशुशाला में ही रहेंगे। नारी बेचारी रोती-धोती घर-बाहर करके घर में आ जाएगी। जो हमारे मित्र है, एक साथ बैठकर हास-परिहास करते हैं, वे हमारे शरीर को श्मशान तक पहुँचा देंगे। यह शरीर, जिसको हम बहुत प्यार करते हैं, यह भी चिता पर जलकर समाप्त हो जाएगा। हमारा शरीर जलकर समाप्त होगा, इसकी चिंता भगवान राम को थी। जिस तरह हमारी प्रजा इस संसार में सुखी है, शरीर छूटने के बाद सुखी रहेंगे, इसके लिए आयोजन किया। गुरुजन, पुरजन, सबलोगों को बुलाकर कहा-
सुनहु सकल पुरजन मम बानी।
कहौं कछु ममता उर आनी ।।
नहिं अनीति नहि कछु प्रभुताई।
सुनहु करहु जो तुम्हहिं सुहाई ।।
भक्तिवन्त नर प्रियतम सोई।
मम अनुसासन मानै जोई ।।
सुनो मैं जो कहता हूँ, मैं राजा हूँ इसलिए दवाब दे रहा हूँ, ऐसी बात नहीं है। सुनिये, लेकिन ‘करहु जौं तुम्हहिं सुहाई’, जो तुमको अच्छा लगे, वही करो। लेकिन मेरा प्रिय, मेरा सेवक वही होगा, जो मेरी आज्ञा का पालन करेगा। क्या भगवान राम कहते हैं-
जौं परलोक इहाँ सुख चहहु।
सुनि मम वचन दृढ़ गहहु।
सुलभ सुखद मारग यह भाई।
भगति मोरि पुरान श्रुति गाई।।
अगर इस संसार में और संसार से बाहर भी तुम सुखी जीवन चाहते हो, तो जो मैं कहता हूँ, वही करो। इसी के लिए यह मनुष्य-शरीर मिला है।
बड़े भाग मानुष तन पावा।
सुर दुर्लभ सब ग्रंथहि गावा ।।
साधन धाम मोक्ष कर द्वारा।
पाइ न जेहि परलोक सँवारा ।।
सो परत्र दुख पावई, सिर धुनि धुनि पछताय ।
कालहि कर्महि ईश्वरहि मिथ्या दोष लगाय ।।
उसी के लिए मनुष्य-शरीर मिला है। यह तुम्हारा बड़ा भाग्य है। लेकिन समझने की बात है कि केवल मनुष्य का शरीर हमको मिल गया, हमारा बड़ा भाग्य हो गया। अब हमको कुछ करना नहीं है, ऐसी बात नहीं है। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं-
मनुष्य-शरीर मिल ही गया और हम किसी का उपकार नहीं कर सकते, तो मनुष्य-शरीर किस काम का। जो दूसरे की सेवा नहीं कर सकता है, दूसरे का उपकार नहीं करता है, सत्संग नहीं कर सकता है, मनुष्य-शरीर मिला तो क्या हुआ! ‘जिनके हृदय गुरु संत नहीं।’
जिनके हृदय में गुरु का वासा नहीं है, संत का वासा नहीं है, उनको नरतन मिला भी तो क्या मिला, इसकी उपयोगिता क्या है! एक साधु बाबा थे। वे दिन में मशाल लेकर घूम रहे थे बाजार में। किसी सज्जन ने पूछा-महात्माजी! दिन के सूर्यप्रकाश में आप मशाल लेकर घूम रहे हैं, मतलब! महात्माजी ने कहा-आदमी को खोज रहा हूँ। कहा-इतना बड़ा बाजार है, इसमें इतना आदमी है और आप आदमी को खोजते हैं। क्या ये लोग आदमी नहीं हैं? महात्माजी ने कहा-लो मशाल लेकर देखो, कौन-कौन आदमी है! जब वह मशाल के प्रकाश में देखा, तो कोई भालू है, कोई बंदर है, कोई बाघ है, कोई गाय है, कोई बैल है। एक भी आदमी उसको नहीं दीख पड़ा। मतलब उस तरह की वृत्ति वह नहीं करते थे। केवल शरीर मिल जाने से नहीं हुआ। बैल को अगर बाघ की खाल ओढ़ा दी जाए, तो क्या वह बाघ हो जाएगा। नहीं, ऐसी बात नहीं है। जब मनुष्य-शरीर हमको मिला है; लेकिन हममें मानवता चाहिए। अगर हममें मानवता नहीं है और दानवता का कर्म करते हैं, तो मनुष्य-शरीर मिलने से क्या लाभ होगा। भारत के बादशाह बहादुर शाह थे। वे कविता भी लिखते थे। अपना नाम उन्होंने अपना जफर रखा है। उन्होंने अपने कविता में लिखा है-
जफर उसको न आदमी कहिएगा
चाहे वह कितना भी बड़ा हो,
जिसके अंदर ऐश में यादे खुदा न
और तैस में फाँके खुदा न।
तो ऐश और तैस दोनों देखना चाहिए। अपने हृदय को सुंदर बनाकर रखना चाहिए। संत लोग बतलाते हैं, यह मनुष्य-शरीर तुमको मिला हुआ है। श्रीमद्भागवत में मनुष्य-शरीर की उपादेयता बतलाई गई है, यह बड़े भाग्य से मनुष्य का शरीर मिला है।
लक्ष चौरासी भरमि के, पौ पर अटके आय ।
अजहु पासा ना पड़ै, फिर चौरासी जाय ।।
चार खानियों में चौरासी लाख प्रकार की योनियाँ हैं। यह जीव उसमें भटकता हुआ आज मनुष्य-शरीर में आया हुआ है। कबीर साहब ने कहा है-चौरासी लाख योनियों भटकते हुए मनुष्य-शरीर में आ गए। अब क्या करना चाहिए तुमको? एक खेल होता है चौपड़। इसमें चौरासी कोठे होते हैं। उसमें एक गोटी होती है और छः कौड़ियाँ होती हैं। इसको भाँजकर जमीन पर डालते हैं, तो जितनी कौड़ियाँ चित होती हैं, वह गोटी उतनी ही घर पार करती है। क्रम-क्रम से जब वह चौरासी कोठे पर आ जाती है, तो वहाँ पर कौड़ी भाँजने पर एक कौड़ी चित हुई, तो कहते हैं-गोटी लाल हो गई। अगर एक कौड़ी चित नहीं हुई, दो-तीन हो गई, तो गोटी को फिर लौटना पड़ता है चौरासी में। उसी तरह चौरासी लाख योनियों में घूमते-घूमते मनुष्य-शरीर में आ गये हैं। अगर इस समय हमारा एक चित होकर प्रभु से नहीं लग जाता है, तो फिर चौरासी लाख योनियों में घूमना पड़ेगा। जिस तरह एक कौड़ी चित हो गई, उसी तरह एक चित मन हो गया तो बेड़ा पार है। संत लोग बतलाते हैं, यह दुर्लभ मनुष्य-शरीर है-
यह तन दुर्लभ तुमने पाया।
कोटि जनम भटका जब खाया ।।
अब याको बिरथा मत खोओ।
चेतो छिन-छिन भगति कमाओ ।।
भगति करो तो गुरु का करना।
मारग भेद गुरु से लेना ।।
शब्द मारगी गुरु न होवे।
तो झूठी गुरुआई लेवे ।।
ये राधास्वामी साहब हुए हैं आगरा में, उनकी वाणी है। यह मनुष्य-शरीर जितना भी सुन्दर है, उतना ही क्षणभंगुर भी है। कब काल आ जाए, कोई ठिकाना नहीं। इसलिए चेतो, सँभलो और ईश्वर की भक्ति करो। सदाचार का पालन करो। तब भगवान राम कहते हैं कि तुमको मनुष्य शरीर मिला है, बड़ा भाग्य है; लेकिन तुम्हारा भाग्य और बढ़ जाएगा, जब ‘बड़े भाग पाइये सत्संगा।’
जब तुम सत्संग करोगे, तो तुम्हारा भाग्य और जग जाएगा। सत्संग करो। इस कान से सुनो और उस कान से निकाल दो, तब लाभ नहीं है। सत्संग सुनो, सन्मार्ग पर चलो। श्रीरामकृष्ण परमहंसजी महाराज स्वामी विवेकानंद जी से कहा था-एक भजन गाओ। तो स्वामीजी ने एक भजन गाया-
मन चलह निज निकतने, संसार विदेश विदेशीर भेषे ।
विषय पंच आर भूत गन, सब तोर पर हय न आपन ।
पर प्रेमे केनो होय छ मगन, भूले छ आपन जने ।।
सत पथे मन कर आरो ।।
जो सत्पथ है, उसमें चलो। जो तुम्हारा घर है, तुम वहाँ जाओ। यह तुम्हारा घर नहीं है। तुम्हारी कितनी भी अट्टालिकाएँ हों, लेकिन तुम्हारा घर यह नहीं है। एक दिन तुमको छोड़ना पड़ेगा। इस घर को कौन कहे, जिस शरीर रूपी घर में रह रहे हो, यह भी तुमको छोड़ना पड़ेगा। कबीर साहब ने कहा है-
कहा मेड़ावे मेड़िया लंबी भीति उसार ।
घर तो साढ़े तीन हाथ, घना तो पौने चार ।।
जितने जीव हैं, सभी के शरीर की लंबाई-चौड़ाई भिन्न-भिन्न होती है; लेकिन मनुष्य का शरीर ऐसा है, जो सबका शरीर बराबर है। आप कहेंगे कि ऐसा नहीं होता है। कोई तीन हाथ का है, कोई साढ़े तीन हाथ का है, कोई पौने चार हाथ का है। एक समान कैसे होता है? कितना भी कोई नाटा हो, कितना भी कोई लंबा हो-अपने-अपने हाथ से सब-के-सब साढ़े तीन हाथ ही होते हैं। साढ़े तीन हाथ होने का मतलब हुआ-सात बित्ते। बारह अंगुल का एक बित्ता होता है, तो बारह सत्ते = चौरासी अंगुल। चौरासी अंगुल का यह शरीर है। परमात्मा ने चौरासी लाख योनियों से छूटने के लिए यह चौरासी अंगुल का शरीर दिया है। ‘अजहु पासा न पड़े, फिर चौरासी जाय।’ इसलिए भगवान श्रीराम उपदेश करते हैं। इतना ही नहीं, गुरु-शरण में जाओ।
जे गुरु पद अम्बुज अनुरागी ।
ते लोकहु वदेहु बड़ भागी ।।
बड़भागी कौन है? जो गुरुपद अम्बुज में प्रेम रखते हैं, प्रीति रखते हैं, अनुराग रखते हैं। वे ही महाभागी हैं। जो कोई साधना करते हैं, उनको दर्शन कर पाते हैं। संत तुलसी साहब ने कहा है-
दर्शन उनके उर माहिं करै बड़ भागी ।
तिनके तरने की नाव किनारे लागी ।।
संसार सागर से पार करने की नाव किनारे लगी हुई है। बैठ करके चलो। जो गुरुपद में अनुराग रखते हैं और जो गुरु बतला देते हैं करने के लिए और उस कर्म को करने लग जाते हैं, तो उसका भाग और जग जाता है।
श्रीगुरु पद नख मनि गन जोती।
सुमिरत दिव्य दृष्टि हिय होती ।।
दलन मोह तम सो सु प्रकासु।
बड़े भाग उर आवहिं जासु ।।
जिसके अंदर प्रकाश हो जाता है, उसका भाग्य और जग जाता है। जीवन प्रकाशमय हो जाता है। यह भी समझना चाहिए कि लोग आजकल आँख दबाते हैं और रोशनी दिखलाते हैं, वह नहीं। कान बंद करातें है और शब्द सुनाते हैं। कहते हैं कि यही अंतर्ज्योति और अंतर्नाद है। यही ब्रह्मज्योति और ब्रह्मनाद है। न तो वह ब्रह्मज्योति है और न वह ब्रह्मनाद है, वह तो भ्रमज्योति और भ्रमनाद है। ‘दृष्टि टिकै स्त्रुति धुनि रमै’, जिसकी दृष्टि टिकती है, वहाँ उसे ज्योति झलकती है। बाइबिल में लिखा है-यदि तुम्हारी आँख एक हो, तो सारा शरीर उजियाला होगा। अगर तेरी आँख बुरी हो तो देखो, तुम्हारे अंदर कितना बड़ा अंधकार का साम्राज्य है। तो जो दृष्टि की धारों को मिलाने की क्रिया को करते हैं, वे अंतःप्रकाश पाते हैं। उनका बड़ा भाग्य है। वे कहाँ जाते हैं, उनको रास्ता कहाँ मिलता है-
अद्भुत अंतर की डगरिया, जापर चलकर प्रभु मिलते ।
दाता सतगुरु धन्य धन्य जो राह लखा देते ।।
चलत पंथ सुख होत महा है, जहाँ अझर झरते ।
सुनत लखत सुख लहत अद्भुती मेँहीँ प्रभु मिलते ।।
उस अद्भुत अंतर की डगरिया को जानो। उस अद्भुत अंतर की डगरिया कैसे जान सकते हैं? जबतक गुरु नहीं किये हैं, नहीं जान सकते हैं। एक संत हुए पलटू साहब, उन्होंने कहा है-
उलटा कूवा गगन में, तिसमें जरै चिराग ।।
तिसमें जरै चिराग, बिना रोगन बिन बाती ।
छह रितु बारह मास, रहत जरतै दिन राती ।।
सतगुरु मिला जो होय, ताहि की नजर में आवै ।
जिनको सद्गुरु मिला है, उन्हीं की नजर में प्रकाश आता है, ज्योति आती है।
बिन सतगुरु कोउ होय, नहीं वाको दरसावै ।।
निकसै एक अबाज, चिराग की जोतिहिं माहीं ।
ज्ञान समाधी सुनै, और कोउ सुनता नाहीं ।।
पलटू जो कोई सुनै, ताके पूरे भाग ।
उलटा कूवा गगन में, तिसमें जरै चिराग ।।
उनका बड़ा भाग, उनका पूरन भाग हो गया। उनको अंतर्नाद मिल जाता है। वह अंतर्नाद प्रभु से मिला देता है। मनुष्य-शरीर पाने की उपादेयता यह है। भगवान श्रीराम कहते हैं-यह सरल भक्ति है। यह राजयोग है, यह हठयोग नहीं है। चलने में कोई कठिनाई नहीं है। ‘चलत पंथ सुख होत महा है’ महासुख होता है। जिसे यह सुख नहीं, वह जीवन भर रोता है। यह तो वह सुख है, जो कभी छूटनेवाला नहीं है। एक भक्तिन हुई सहजोबाई, उनके गुरु चरणदासजी महाराज थे। उसने कहा-
भया जी हरि रस पी मतवारा ।
आठ पहर झूमत ही बीते, डारि दियो सब भारा ।।
इड़ा पिंगला ऊपर पहुँचे, सुखमन पाट उघारा ।
पीवन लगे सुधा रस जब ही, दुर्जन पड़ी बिडारा ।।
गंग जमुन बिच आसन मार्यो, चमक चमक चमकारा ।
भँवर गुफा में दृढ़ ह्वै बैठे, देख्यो अधिक उजारा ।।
परिणाम क्या हुआ? चित्त स्थिर।
चित स्थिर चंचल मन थाका, पाँचो का बल हारा ।
चरणदास किरपा सूँ सहजो, भरम करम भयो छारा ।।
जिनको सद्गुरु मिलते हैं, उसका पूरन भाग जग जाता है। जब उनको दृष्टियोग, नादानुसंधान की क्रिया बतलायी जाती है और करते हैं और अंतर्ज्योति और अंतर्नाद पाते हैं। भगवान श्रीराम कहते हैं-
सरल सुखद मारग यह भाई।
भगति मोरि पुरान श्रुति गाई।।
यह सरल भी है और सुखद भी है। मेरी भक्ति पुरान में भी है, वेद में भी है, सच्छाÐों में भी है। इसको करो। अगर इसको नहीं करते हो, यह मनुष्य- शरीर क्या है? संसार समुद्र पार करने के लिए नाव है।
नरतन भव वारिधि कहँ बेरो।
सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो।।
करनधार सतगुरु दढ़ नावा।
दुर्लभ साज सुलभ करि पावा।।
संसाररूपी समुद्र पार करने के लिए मनुष्य-शरीररूपी नाव मिली हुई है। लेकिन नाव मिले और केवट नहीं मिले, तो पार कैसे होंगे। मनुष्य-शरीर मिलने पर भी ‘करनधार सद्गुरु दृढ़ नावा’, इस दृढ़ नाव के मल्लाह संत सद्गुरु ही हैं। यह दुर्लभ साज है, जो हमलोगों को सुलभ हुआ है। फिर भी अगर संसार सागर से पार नहीं होते हैं तो-
जो न तरइ भवसागर, नर समाज अस पाय ।
सो कृत निंदक मंदमति, आतमहन गति जाय ।।
फिर- सो परत्र दुख पावई, सिर धुनि धुनि पछताय ।
कालहि कर्महि ईश्वरहि मिथ्या दोष लगाय ।।
वह पीछे पछताएगा। पीछे पछताने से क्या लाभ होगा।
आछे दिन पाछे गये, किया न प्रभु से हेत ।
अब पछताए होत क्या, चिड़िया चुग गई खेत ।।
जब खेत में फसल लगी हुई थी, उस समय उसकी रखवाली नहीं की और चिड़िया आकर सब फसल खाकर चली गई, तो पछताने से क्या होगा। मनुष्य-शरीर मिला हुआ है। इसमें क्या भरा हुआ नहीं है-
देहस्थाः सर्वविद्याश्च देहस्थाः सर्वदेवताः ।
देहस्थाः सर्वतीर्थानि गुरुवाक्येन लभ्यते ।।
जितनी विद्याएँ हैं संसार में, लोक-परलोक की जितनी भी विद्याएँ हैं, सारी विद्याएँ इनमें भरी पड़ी हुई हैं। देखिए, जबतक गुरु नहीं मिलेंगे यानी सच्चे सद्गुरु नहीं मिलेंगे, तबतक इसकी कुंजी नहीं मिलेगी। गुरु नानकदेवजी महाराज ने कहा-
जे सउ चन्दा उगवहि सूरज चढ़हि हजार ।
एते चानन होदिया गुरु बिन घोर अन्धार ।।
जिसको गुरु नहीं है, उसको अंधार ही अंधार है। कितना भी सूर्य उगे या चन्द्र उगे। भगवान राम कहते हैं-पीछे क्यों पछताओगे, इसलिए मनुष्य-शरीर तुमको मिला हुआ है, इसमें भजन करो। कितने कहते हैं कि गुरु की क्या आवश्यकता है, हम तो किताब से पढ़ लेते हैं, हो गया। किताब पढ़ लेने से नहीं होता, अगर किताब पढ़ लेने से ही काम चलता तो इतने स्कूल-कॉलेज नहीं होते। सब किताब घर में पढ़ लेते, आवश्यकता क्या थी स्कूल-कॉलेज की?
एक अच्छे पढ़े-लिखे थे, उनको नदी पार करनी थी। संध्या समय था। चलते-चलते अँधेरा हो गया। उसने मल्लाह से कहा-भाई! नदी पार कर दो। मल्लाह ने कहा-बैठिये नाव पर। नाव पर वह बैठ गया। वह पंडित कहने लगा कि तुम नाव जो चलाते हो, कितने पढ़े लिखे हो? मल्लाह बोला-पंडितजी मैं कुछ भी पढ़ा-लिखा नहीं हूँ। केवल नाव चलाने के लिए जानता हूँ। पंडितजी बोला-तुम्हारा एक बटे चार का जीवन बेकार चला गया। पंडित ने कहा-देखो, मैं चारो वेद, छहो शास्त्र, अठारहो पुराण जानता हूँ। ये सब हमको ज्ञात हैं, तुमको कुछ भी नहीं। कुछ देर बाद आकाश में तारे निकले आए, तो पंडितजी ने पूछा कि नक्षत्रविद्या जानते हो। केवट ने कहा-पंडितजी! आप अपना माथा खराब करते हैं और मेरा माथा भी। अगर नक्षत्र विद्या जानता तो यही नाव चलाता! पंडितजी ने कहा-देखो, मैं नक्षत्र विद्या, क्षत्र विद्या, भूत-प्रेत-सर्प आदि सब विद्या जानता हूँ। तुम्हारा एक बटे दो यानी आधा जीवन बेकार चला गया। नाव कुछ दूर गई, अब किनारे लगने को है। जंगल था, उसमें हिरण इधर-से-उधर भाग रही थी। पंडितजी ने कहा-जीवविज्ञान तुम पढ़े हो। केवट बोला-हम कुछ नहीं पढ़े हैं। पंडितजी बोला-जा, तुम्हारा तीन बटे चार यानी पौने जीवन बर्बाद हो गया।
संयोग ऐसा हुआ, नीचे एक पत्थर था, उससे नाव में ठोकर लग गई, जिससे नाव का एक तख्ता खुल गया। नाव में पानी आने लग गया। मल्लाह ने पूछा-पंडितजी! सब विद्या तो आप जानते हैं; लेकिन तैरने की विद्या जानते हैं? नीचे से पानी आने लग गया है नाव में। अब नाव डूबनेवाली है। अगर तैरने की विद्या जानते हैं, तो इसमें तैरिये, नहीं तो इसी में डूब जाइए। पंडितजी ने कहा-यह विद्या मुझे नहीं आता है। वह नाविक कूद गया पानी में और तैरकर पार हो गया। वह पंडितजी बेचारे, सारी विद्याओं के जानकार डूबकर मर गया। सब विद्या पढ़े रह गया पंडितजी का। विद्या पढ़े-लिखे रहने पर भी उसकी उपयोगिता होती है सिखानेवाले की। मल्लाह ने कहा-
जीवन पौन नष्ट है मेरा, विविध ज्ञान बिन जाने।
पूरा जीवन नष्ट आपका बाबू, बिना तैरना जाने।।
इस तरह संसार-सागर से जो तैरने की कला है, उसको सीखें। पढ़ें-लिखें आवश्यकता है विद्या की। सब विद्या पढ़िए, जितना हो सके। जितना पढ़ सकें, अच्छा है; लेकिन संसार-सागर से पार होने की विद्या भी सीखिए, तो बहुत अच्छा है। इतना कहकर मैं। अपने प्रवचन में विराम देता हूँ। आपलोगों को बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूँ। (स्थान-सोदपुर, कोलकाता दिनांक-27-1-2006 ई0, अपराह्न, 95वाँ महाधिवेशन के सुअवसर पर हुआ था।)
’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’
समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
परम प्रभु परमात्मा हम सबों को मानव शरीर दिया है। यह मानव शरीर देवदुर्लभ शरीर कहा गया है। इस अनमोल शरीर को हम पाये हैं। परमात्मा ने इसके अंदर पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और चार अंतःकरण की इन्द्रियाँ हैं। दसों इन्द्रियों का यानी पाँच कर्मेन्द्रियों और पाँच ज्ञानेन्द्रियों का मालिक मन है।
मन एव मनुष्याणां कारण बन्धमोक्षयो।
बंधन का कारण मन ही है। भव-बंधन से छुड़ानेवाला मन ही है। कौन-सा हम काम करें, जिससे हम बंधन में न जाएँ। जबतक हम माया में लिपटे रहेंगे, तबतक हमसे वैसे कर्म होंगे, जो बंधन का कारण होगा। गुरु नानकदेवजी महाराज फरमाते हैं-
भूले मन माया उरझाइउ जो जो कर्म कीउ ।
लालच लगि तिह तिह आप बंधाइउ ।।
किसी भी कर्म करने के पहले सोच लेना यानी सोचकर काम करना बुद्धिमत्ता है। सोचते हुए कर्म करते जाना, काम करते हुए सोचते जाना-यह सतर्कता है और कर्म करके पश्चाताप करना मूर्खता है।
बिना विचारे जो करे सो पीछे पछताय ।
काम बिगाड़े आपना, जग में होत हँसाय ।।
इसलिए विचार करके करना चाहिए। भगवान श्रीकृष्ण का महावाक्य गीता में है-
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्म फलहेतुर्भूमा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ।।
कर्म करने का अधिकार उन्होंने मानव को दे दिया है; लेकिन कर्म का फल भगवान अपने वश में रखा है। अगर मानव के हाथ में कर्म के साथ-साथ कर्म का फल दे देता, तो मानव बुरे कर्म करके फल लेने के समय चुनकर बढ़िया फल ले लेते। लेकिन भगवान ने कहा-फल तो मैं दूँगा। जो तुम कर्म करोगे, उसका फल देनेवाला मैं रहूँगा।
तुलसी यह तन खेत है, मन वच कर्म किसान ।
पाप पुण्य दोउ बीज है, बोये सो लूनै निदान ।।
कृषक खेती करते हैं। खेत को कोड़ते हैं, जोतते हैं, उसमें बीज डालते हैं। जो बीज वे डालते हैं, तदुपरांत पौधा निकलते हैं। उसमें फूल निकलते हैं और फल भी होते हैं। ऐसा नहीं कि गेहूँ का बीज बोया जाए और उसमें चावल लगने लग जाए। जो गेहूँ का बीज बोएँगे, फल में उसका वह गेहूँ काटेंगे। जिस खेत में चना बोयेंगे, समय आने पर वे चना काटेंगे। कर्म करते हैं कम; लेकिन फल अधिक मिलता है। मान लीजिए, जिस खेत में एक मन अनाज बो देते हैं, काटने के समय कई मन अनाज हम ले आते हैं। उसी तरह जो कर्म हम करते हैं, वह कर्म कितना गुना बढ़ जाता है, इसका ठिकाना नहीं। बुरे कर्म हम करेंगे, वह उसी तरह बढ़ेगा। अच्छे कर्म करेंगे, वह उसी तरह बढ़ेगा। अब हमारा अधिकार है, अच्छे कर्मों को करें, बुरे कर्मों को न करें।
कर भला होवे भला, करके भलाई देख ले ।
कर बुरा होवे बुरा, करके बुराई देख ले ।।
जब मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम जगत जननी जानकी और लक्ष्मणजी के साथ जंगल चले गये। भरतजी उस समय अयोध्या में नहीं थे, ननिहाल में थे। ननिहाल से अयोध्या आने पर उनको अयोध्या का हाल मालूम पड़ा। भगवान श्रीराम, श्रीसीता और लक्ष्मण के जंगल चले जाने की बात सुनकर बड़े दुःखी हुए। कैकेई ने भरत के लिए राजगद्दी माँग ली थी। यह चले भगवान श्रीराम को मनाने के लिए कि बड़े भाई! अयोध्या राज आपका है, आप राज कीजिए। जितनी माताएँ थीं, गुरु थे, ब्राह्मण थे, पुरवासी थे, चतुरंगिनी सेना के साथ जंगल की ओर भरतजी प्रस्थान करते हैं। जाते-जाते जहाँ भगवान श्रीराम की कुटिया थी। अभी उससे थोड़ी दूर पर ही भरतजी की सेना के पदाघात से उड़ती हुई वह गगनगामिनी धूल से चारो ओर धूल-ही-धूल दिखाई पड़ने लग गई। कोई हवा नहीं, कोई अँधड़ नहीं, इतनी धूल क्यों उड़ रही है। पता चला कि भरतजी ससैनिक आ रहे हैं। लक्ष्मणजी शेषावतार थे। उनके मन में आया कि भरतजी राजपद पाकर मद में आ गये हैं और हमलोग निहत्थे हैं। दोनों भाइयों को मारकर निष्कंटक राज्य करना चाहते हैं। आवेश में आकर लक्ष्मणजी कहते हैं-
जौं सहाय कर संकर आई।
तौ मारौं करि राम दुहाई ।।
भरतजी ने क्या समझ लिया है, अगर शंकर भी सहायता करनेवाले हो जाएँ, तब भी मैं राम की दुहाई उनको मारूँगा। तबतक में आकाशवाणी होती है-
अनुचित उचित बात कछु होई।
समुझि करिय भल कह सब कोई ।।
लक्ष्मणजी! उचित-अनुचित का विचार कर काम करना चाहिए।
सहसा करि पीछे पछताई।
कहहिं वेद सो बेद बुध नाहीं ।।
जो मन में आया, कर बैठा और पीछे पश्चाताप करने लग गए। यह बुद्धिमान का लक्षण नहीं है, ऐसा मत करो। भगवान राम लक्ष्मण को समझाते हैं-
भरतहिं होइ न राज मद, विधि हरिहर पद पाई।
भाई लक्ष्मण! अयोध्या का राज्य तो बहुत छोटा है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश-तीनों का राज्य मिल जाए भरत को, तब भी उसको मद नहीं आ सकता। क्या एक बूँद खटाई क्षीरसमुद्र को नाश कर सकती है, उसी तरह से एक बूँद खटाई है अयोध्या का राज्य। तुम शांत होकर रहो। मतलब कहने का जो मन में आया, वह नहीं करो। मन प्रेरक होता है इन्द्रियों का; क्योंकि ‘इन्द्रियाणां मनो नाथो।’ इन्द्रियों का नाथ मन है। जो मन कहेगा, इन्द्रियाँ वही करेंगी। हमारे सामने थाली आयी भोजन की, उसमें दस चीजें हैं। मन खाने के लिए सबसे पहले जिसको कहेगा, हाथ उसी चीज को पहले उठाएगा। मान लिया जिस चीज को खाएँगे, तो हाथ उसपर चला गया, उठा भी लिया; लेकिन मन कहेगा कि नहीं, इसको छोड़ दो, पहले अमुक चीज खाओ। वह रखकर दूसरी चीज को ले लेगा। यह मन प्रेरक है, इसीलिए किसी कर्म करने के पहले सोच लेना चाहिए। क्या उचित होता है, क्या अनुचित होता है! लेकिन माया के वशीभूत होकर अनुचित-उचित के भेद को नहीं विचारते। जैसा मन में हुआ, वैसा करते हैं। इसका परिणाम अच्छा नहीं है। संतजन कहते हैं-अपने मन का निग्रह करो-मनोनिग्रह करो। अगर मन का निग्रह नहीं किया, जैसा मन ने कहा, वैसा कर दिये, तो बंधन में पड़ जाओगे। मायाजाल में पड़ जाओगे और मायाजाल में पड़कर दुःख भोगोगे। अच्छा कर्म करना अच्छा है, बुरा कर्म कभी नहीं करना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं कि एक जमाना था, अच्छा कर्म करने का फल अच्छा होता था और बुरा कर्म करने का फल बुरा होता था; लेकिन आजकल तो देखा जाता है कि जो अच्छे कर्म करते हैं, वे दुःखी होते हैं और जो बुरे कर्म करते हैं, वे सुख से रहते हैं। बंगाल में एक प्रसिद्ध कहावत है-
जेई कऽरे पुण्य ताँर काये लागे घुन ।
जेई कऽरे पाप सेई सात छेलेर बाप ।।
यह कहावत है, यथार्थ में यह बात नहीं है। तब फिर ऐसा होता क्यों है? जो लोग अच्छे-अच्छे कर्मों को करते हैं, वे दुःखी रहते हैं और जो बुरे कर्मों को करते हैं, वे सुखी देखे जाते हैं-ऐसा क्यों? हमलोगों का कर्म हमलोगों के साथ रहता है। इसका फल उसके साथ रहता है। कर्म तन से करते हैं, मन से करते हैं, वचन से करते हैं-इन तीन कर्मों को हम प्रतिदिन करते हैं। कुछ कर्म का फल तुरत मिल जाता है, कुछ कर्म का फल कुछ दिनों के बाद मिलता है। कुछ कर्म का फल इस जन्म में नहीं मिलता, अगले जन्म में मिलता है। मान लीजिए कि एक घंटे के अंदर हम तीन पेड़ लगाए। एक केला का, दूसरा आम का और तीसरा अखरोट का। हमने तीन पेड़ लगाए एक घंटे के अंदर; लेकिन तीनों का फल हम एक साथ खाएँगे, यह नहीं होगा। केला छह महीने-सालभर में फल दे देगा; लेकिन छह महीने-सालभर में आम फल देगा, वह नहीं होगा। आम के फल में पाँच-छः साल लग जाते हैं और जो अखरोट का फल है, वह चालीस वर्ष से पहले फल नहीं देता है। मान लीजिए इस समय हमारी उम्र चालीस साल की हुई, उस समय हम ये तीनों पेड़ लगाये थे। छः महीने-सालभर के बाद हमने केला का फल खा लिया। आम का भी फल हमको मिल गया; लेकिन जब हमारी उम्र साठ साल की हुई तो शरीर छूट गया। तब हमारी उम्र अस्सी साल का होता, तब हम उस अखरोट का फल खा सकते थे; लेकिन साठ साल में ही हमारा शरीर छूट गया। अब हम अखरोट का फल कैसे खाएँगे? पुनः जब हमारा जन्म होगा, तब हम अखरोट का फल खा सकेंगे। उसी तरह उसने जो पहले अच्छे कर्म किये थे, अब संगति बुरी हो गई है, वे कर्म तो बुरे-बुरे करते हैं; लेकिन पूर्वजन्म का अखरोट लगा हुआ है अच्छे कर्म का, उसका फल तो खाएगा ही वह। उसी तरह जिन्होंने बुरे-बुरे कर्म किये हैं और शरीर छूटने के बाद जहाँ जन्म हुआ, संगति अच्छी हो गई, अच्छे-अच्छे कर्म करने लग गये; लेकिन पूर्वजन्म का जो बुरे कर्म का अखरोट लगा है, वह कौन खाएगा! इसलिए बुरे-बुरे कर्म करनेवाले सुखी देखे जाते हैं और अच्छे-अच्छे कर्म करनेवाले दुःखी देखे जाते हैं। ‘गहना कर्मणो गतिः।’
कर्म की जो गति है, वह बहुत ही गहन है। इसलिए संतों ने कहा-कर्म को पहले समझ लो, तब करो। इसलिए संतों का उपदेश है, जितने संत हो गये, सभी ने यही बात बतलायी। कर्म कर्ता कौन है? किस तरह करता है कर्म, तो बतलाया गया है-
यदि शैल समं पापं विस्तीर्णं बहुयोजनम् ।
भिद्यते ध्यानयोगेन नान्यो भेद कदाचन ।।
ध्यानयोग से पाप का नाश होता है और यह ध्यान कैसे किया जाएगा। बतलाता कौन है? जो संत सद्गुरु होते हैं, वे बतलाते हैं।
बिनु सतिगुर सेवे जोगु न होई ।
बिनु सतिगुर भेटे मुकति न कोई ।।
बिनु सतिगुर भेटे नामु पाइआ न जाइ ।
बिनु सतिगुर भेटे महा दुखु पाइ ।।
बिनु सतिगुर भेटे महा गरबि गुबारि ।
नानक बिनु गुर मूआ जनमु हारि ।।
अगर गुरु धारण नहीं किया, उनसे सद्ज्ञान नहीं लिया, तो जन्म बेकार चला गया। उनका उपदेश है-
साधो मन का मान त्यागो।
एक लघुकथा है। दो मित्र थे। दोनों साथ-साथ रहकर व्यापार करते थे। मुम्बई आढ़त में सामान भेज देते थे। आढ़त में जब सामान का दाम बढ़ जाता था, वहाँ से खबर आती थी कि मूल्य बढ़ गया है। महाजन की खबर पर दोनों जाते थे और बेचकर पैसे उठा लेते थे। यह सत्य घटना है, कहानी नहीं है। आज से पचास साल पहले की बात है। मुम्बई जाकर दोनों मित्र सामान रख दिये आढ़त में। समय आया, तो उधर से खबर आई कि भाव बढ़ गया है, आकर अपना सामान बेच लीजिए। एक लाख भाव है। दोनों मित्र खुश हुए और गये। वहाँ जाकर माल बेचा। एक लाख रुपये हुए। अब दोनों में से एक के मन में पाप घुस गया कि एक लाख है, पचास-पचास हजार करके बँटवारा हो जाएगा। अगर हम इसको किसी तरह मार दें तो हम लखपति बन जाएँगे। उसने कहा अपने मित्र से कि हमलोगों के पास इतने पैसे हैं। पैसे लेकर कहाँ जाएँगे। धर्मशाला में हम ठहरें और वहीं रात्रि बिताकर सबेरे वहीं से यात्र करेंगे। दोनों धर्मशाला में ठहरे। रात्रि-भोजन के समय एक व्यक्ति ने कहा कि एक आदमी बाजार जाएँ और वे वहाँ भोजन कर लें और यहाँ पर जो रहेंगे, उनके लिए भोजन लेते आवें। तो उसने कहा कि आप चले जाएँ, भोजन कर लीजिएगा और मेरे लिए लेते आइएगा। उसके मन में पहले से बात थी ही और मौका मिल गया उनको। पहले उसने भोजन कर लिया और उसके लिए जो भोजन लिया, उसमें उसने विष मिला दिया। जैसे ही खाया, बेचारा छपपटाकर मर गया। बस, उसको फेंक-फाँक दिया। उसके घर पर फोन कर दिया-तुम्हारा पिता बहुत बीमार है, जल्दी से आ जाओ। जैसे खबर पहुँची, वहाँ से वह चला। इधर यह भी चलते हैं घर की ओर। जिस स्टेशन पर उस लड़के को चढ़ना था, उसी जगह उतरते हैं वे। उनका लड़का पूछता है कि पिताजी कहाँ हैं? बनावटी रोना-धोना शुरू कर दिया। हमारे मित्र थे, एक रोटी को टुकड़ाकर बाँटकर खाते थे। हमारा कलेजा कट गया। क्या बतलाऊँ, बीमार पड़ गए, डॉक्टर को बुलावाए, इलाज करवाये; लेकिन हमारे मित्र नहीं बच सके। अरे! क्या दुर्भाग्य है हमलोगों का। अब ऐसा और दुर्भाग्य हुआ, कहाँ तो एक लाख का लाभ होने को था, हमलोगों को वहाँ पहुँचते हैं, तबतक भाव गिर गया। दस हजार लाभ हुआ है। डॉक्टर को बुलावाए, इलाज हुआ, उसमें जो खर्चा हुआ, वह तो मेरा हुआ, तुम अपना पाँच हजार लेते जाओ। पाँच हजार उसके लड़के को दे दिया। उसने ले लिये पाँच हजार रुपये, अब क्या करेगा?
अब होता क्या है, जिसने यह बेईमानी की थी, उसको पुत्र नहीं था। सालभर होते-होते उसको पुत्र हो गया। उसके मन में हुआ कि देखो, इतने दिन हमलोग धर्म करते रहे, तो पुत्र का मुँह नहीं देखा। आज पाप किया, तो हम बाप भी हैं। किसी तरह से बेटा का मुँह तो हम देखते हैं। बाप कहलाने लग गये। बहुत खुशी हुई। धीरे-धीरे वह लड़का बड़ा होता है। वह बीमार पड़ता है। डॉक्टर को बुलाया जाता है। इलाज करवाया जाता है। पैसे की कमी तो थी नहीं। कारबार भी खूब चलने लगा था। इलाज होने लगा, तो यहाँ के डॉक्टर ने कहा-इस बीमारी का इलाज भारत में नहीं होगा। स्वीटजरलैंड में होगा, वहाँ इसे ले जाइए। पैसे की कमी तो थी नहीं, वहाँ चले गए। वहाँ रहने लगा भाड़े पर। बड़े-बड़े डॉक्टर को बुलवाकर दिखाने लगा। कई महीने बीत गये। यहाँ मुनीमजी कारबार सँभालने लगे। मुनीमजी को खबर भेजते कि इतने रुपये भेज दो, इतने रुपये भेज दो। मुनीमजी जो था, उसको भी हुआ कि कब आते हैं, नहीं आते हैं, उसने भी घाटा दिखाना शुरू कर दिया। होते-होते ऐसा होता है कि वहाँ के डॉक्टर ने कहा कि इसका इलाज नहीं है। चाहे इसका कब्र यहाँ दे दो या भारत में जाकर दो। अब इतना खर्च हो गये, अब पुत्र को लेकर घर जाते हैं। घर आ गए। दुःखी हैं। मुनीमजी से पूछा तो उसने कहा कि क्या बतलावें, आप माँगते गये, हम भेजते गये। अब रुपये कहाँ? ऐसे घाटा लग गया, ये लग गया, वो लग गया। इधर पैसे का भी घाटा लग गया, इधर बेटे की यह हालत है। मरणासन्न है, बड़ा दुःखी है वह। एक दिन लड़का हँस उठा। उसके बाप के मन में हुआ कि अब मेरा हँस रहा है, रोग छूट गया। बेटा! ठीक हैं न! बेटा ने कहा-बाबूजी! पहचान लीजिए, मैं कौन हूँ। जिसका रुपया आपने लिया था, वही मैं हूँ। रुपया तो मैंने वसूल कर लिया है, बाकी जो बचा है, मेरे श्राद्ध में खर्च कर दीजिएगा। हम चले। शरीर छोड़ देता है। इसलिए बुरे कर्म को भूल से भी नहीं करना चाहिए। अच्छे कर्मों को अनेक कर्मों को करना चाहिए। भगवद्भजन करना चाहिए। इससे इहलोक और परलोक दोनों बनेगा।
(स्थान-कोलकाता, दिनांक-28-1-2006 ई0, अपराह्नकालीन सत्संग के सुअवसर पर हुआ था।)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
संत कबीर साहब की एक वाणी है।
‘मोरे जियरा बड़ा अन्देशवा
मुसाफिर जैहों कोनी ओर।
उन्होंने जागतिक जनों को मुसाफिर की संज्ञा दी है। मुसाफिर कहते हैं यात्री को। यात्री अपने घर को छोड़कर किसी कार्यविशेष से दूसरी ओर जाता है। उस कार्य को सम्पन्न कर वह सकुशल वापस घर लौट जाता है। वह कुशल यात्री कहलाता है। जो यात्री घर छोड़कर चला तो है; लेकिन बीच में ही अटक गया है, जहाँ पहुँचना चाहिए, वहाँ नहीं पहुँचता है, तो वह कुशल यात्री नहीं है। हमलोग इस संसार में आये हैं। कुछ दिन रहेंगे, फिर चले जाएँगे। कहाँ से आये हैं, कुछ पता नहीं चलता। कहाँ जाएँगे, कुछ पता नहीं। संत महात्मागण बताते हैं-परमात्म- धाम से तुम इस संसार में आए हुए हो। इस संसार में तुमको इसलिए भेजा गया है कि भगवद्भजन कर अपना परम कल्याण बना सको। जो अपना परम कल्याण बनाता है, वही दूसरों का भी कल्याण कर सकता है। जो विद्वान होते हैं, वे ही दूसरों को विद्वान बना सकते हैं। हमारे सामने दो ओर हैं-एक संसार की ओर, दूसरा परमार्थ की ओर। हमलोग संसार की ओर चल रहे हैं। संसार की ओर चलने में जागतिक सुख-दुःख मिलता है; लेकिन परम कल्याण नहीं होता है। परम कल्याण भगवद्भजन से होता है। संत राधास्वामी साहब ने कहा है-
क्या सोवे जग में नींद भरी ।
उठ जागो जल्दी भोर भई ।।
पंथी सब उठ के राह लई ।
तू मंजिल अपनी बिसर गई ।।
सतगुरु की खोज करो प्यारी ।
संग उनके बाट चलो न्यारी ।।
भौसागर है गहिरा भारी ।
गुरु बिन को जाय सके पारी ।।
भक्ती की रीति सुनो प्यारी ।
गुरु चरनन प्रीति करो सारी ।।
तज संशय भरम करम जारी ।
तब सुरत अधर घर पग धारी ।।
चढ़ गगन शिखर तन मन वारी ।
धुन बीन सुनो सत पद न्यारी ।।
फिर अलख अगम जा परसा री ।
राधास्वामी चरण पर बलिहारी ।।
भवसागर में तुम डूब रहे हो। मायामोह में डूब रहे हो। जबकि माया-मोह चन्द दिनों का है, एक- न-एक दिन छोड़ना ही पड़ेगा। हम छोड़ें, चाहे वह हमको छोड़े। जिससे संयोग हुआ है, उनसे वियोग होना अवश्यंभावी है। चलना किधर है? बाहर संसार की ओर हमलोग चल ही रहे हैं, यह बहिर्मुख है। संतलोग कहते हैं-अंतर्मुखी चलो, तब तुम्हारा कल्याण होगा। महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज कहते हैं-
खोजो पंथी पंथ तेरे घट भीतरे।
तू अरु तेरो पीव घट ही अन्तरे।।
ऐ यात्री! रास्ता खोजते हो, तो अपने घर जाने का रास्ता बाहर संसार में नहीं है। परमात्मा प्राप्ति का पथ बाहर संसार में नहीं है। इसलिए बहिर्मुख से अंतर्मुख होना होगा।
बेहोशिये इन्सान से ख्याल जुदा है।
जाहिर में है मुहम्मद बातिन में खुदा है।
जो प्रभु परमात्मा शांतिमय है, शाश्वत है, उनका ही भजन कर उनको प्राप्त करने पर परम शान्ति मिलेगी और शाश्वत सुख मिलेगा। अगर हम उस ओर नहीं जा रहे हैं, बहिर्मुख जा रहे हैं, तो परिणाम क्या होगा! एक यात्री था। वह यात्र कर रहा था। यात्र करते-करते रास्ते में उसको एक जंगल मिला। उस जंगल में वह जा रहा था। कई पगडंडियाँ थीं उसमें। उसने एक अनजान पगडंडी पकड़ ली, जो उसे घनघोर जंगल में ले गया। वहाँ एक हाथी था। उसने देखा इसको। हाथी इसको मारने के लिए दौड़ा। वह अपनी जान बचाने के लिए भागने लगा। वह जंगल में रास्ता तो देखा हुआ था नहीं, अंधाधुन्ध दौड़ने लगा। उस रास्ते में एक बहुत पुराना कुआँ था, जिसमें घास उग आये थे। पता नहीं चलता था कि वहाँ कुआँ है। घास-ही-घास मालूम पड़ता था। उसी होकर सरपट दौड़ा हुआ चला जा रहा था। उसी कुएँ में वह गिर पड़ा। हाथी पीछा करते हुए आ रहा है। वह कुएँ में जो गिरा, उसमें विशाल वृक्ष था, उसकी डाल पकड़कर वह लटक गया। नीचे उतरना चाहता है, तो देखता है कि अजगर मुँह बाये हुए है। ऊपर वह निकलना चाहता है तो देखता है कि हाथी आ गया है नजदीक। उस बेचारे को न नीचे जाने में बनता है, न ऊपर आने में बनता है। इतने में होता क्या है? उस बरगद वृक्ष के ऊपर में एक मधुमक्खी का छत्ता था। चील झपट्टा मारती है, मधु का रस चूने लगता है। यह तो डाल पकड़कर लटका हुआ है। वह शहद की जो बूँद गिरती है, उसके होंठ पर गिरती है, तो मीठा लगता है, वह खाने लगा। जिस डाल को वह पकड़कर लटका हुआ था, उस डाल को दो चूहे काट रहे थे। एक उजला चूहा था, दूसरा काला चूहा था। अब जो उसको शहद का मीठापन मालूम पड़ा, तो भूल गया कि हाथी मेरा पीछा किये हुए है और नीचे में अजगर मुँह बाये हुए है और जिस डाल को हम पकड़े हुए हैं, उसको चूहे काट रहे हैं। सब भूल गया। उसी मिठास में वह मग्न हो गया। कुछ दिनों में डाल कटेगी। नीचे जो मुँह बाये काल व्याल है, उसके मुँह में वह जाएगा; लेकिन उनको इसकी परवाह नहीं है। वह यात्री कौन था? वह यात्री हमलोग ही हैं। संसार के जंजाल में आ गये हैं। जिस दिन जन्म लेते हैं, उस दिन से मृत्य पीछा करती है। बच्चा एक दिन का हुआ, दो दिन का हुआ, पाँच महीने का हुआ, छः महीने का हुआ, साल भर का हुआ, उसका अभिभावक समझता है कि हमारा लड़का छह महीने का हो गया, सालभर का हो गया। अब हमारा बेटा पाँच साल का हो गया। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, तो अभिभावक समझते हैं, हमारा बच्चा बढ़ता चला जा रहा है। लेकिन बढ़ता क्या जा रहा है, वह तो घटता चला जा रहा है। सौ वर्ष का उम्र लेकर वह आया था, तो पाँच वर्ष कम हो गया तो पंचानबे ही बाकी रहा। दस वर्ष का हो हुआ तो अब नब्बे ही बाकी बचा। चालीस वर्ष हुआ, तो साठ बरस ही बाकी बचा। सब चला गया तो आ गये यम के चपेट में। गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-
घटत छिन-छिन बढ़त पल पल, जात न लागत बार ।
वृक्ष से फल टूट पड़िहैं, बहुरि न लागत डार ।।
एक तो यह हालत है हमलोगों की। हमलोगों का जो जीवन है, इस जीवन को दो चूहे काट रहे हैं। एक काला चूहा है और एक उजला चूहा। ये दो चूहे कौन हैं? प्रत्येक महीने में दो पक्ष होते हैं-एक को कृष्णपक्ष कहते हैं और दूसरे को शुक्लपक्ष। जो कृष्णपक्ष है, वह काला चूहा है और जो शुक्लपक्ष है, वह उजला चूहा है। जो विषय का रस हमारे होंठ पर पड़ता है, जिसमें हम भूले हुए हैं। कहाँ है भगवान? कहाँ भक्त? एक-न-एक दिन वह डाल कटकर समाप्त हो जाएगी। काल व्याल के मुँह में हम चले जाएँगे। संतजन कहते हैं, अपने को इस कुआँ से निकालो।
काम क्रोध मद लोभ रत, मोहासक्त दुखरूप ।
ते नहिं जानहि रघुपति, मूढ़ पड़े तमकूप ।।
कहते हैं-कहाँ हम कुएँ में पड़े हुए हैं, हम तो ऊपर में हैं; लेकिन ऊपर कहाँ हो, तमकूप में पड़े हुए हो। ऊपर में तो आपका शरीर है और आप आँखें बंद करके देखिए तो कहाँ हैं? आँखें बंद करके देखते हैं तो अंधकार मालूम पड़ता है। इसी अंधकार के कुएँ में हम पड़े हुए हैं। इस अंधकार के कुएँ से अपने को निकालो। गुरु महाराज की वाणी में आया है-
तुम उतरि पड़यो तम माहिं पीव निःशब्द में ।
याहि ते परि गयो दूरि चलो निःशब्द में ।।
निःशब्द से शब्द हुआ। शब्द से प्रकाश हुआ। प्रकाश से अंधकार हुआ। तो निःशब्द से शब्द आए और शब्द से प्रकाश में आए। प्रकाश से नीचे उतरकर अंधकार में चले आए। अब चलना होगा कैसे? तो कबीर साहब कहते हैं-
उलटि पाछिलो पैड़ो पकड़ो पसरा मना बटोर।
बहिर्मुख से अपने को अंतर्मुख करो, उलटो। उलटो-मतलब यह नहीं कि टाँग ऊपर कर दो और माथा नीचे कर दो। अपनी वृत्ति को समेटो, बहिर्मुख से अंतर्मुख होओ। दसो इन्द्रियों में जो हमारी वृत्ति फैली हुई है, धारा फैली हुई है, उस धारा को समेट करके अंतर्मुख हम करें। रामचरितमानस में हमलोग पढ़ते हैं-
उलटा नाम जपत जग जाना ।
बाल्मीकि भये ब्रह्म समाना ।।
इसका अर्थ पंडितों ने किया है। उलटा नाम है-वाल्मीकि पहले बहुत बड़ा हत्यारा था। बहुत लोगों को उसने मारा था। नारदजी ने राम का मंत्र दिया। राम मंत्र का जप करो। इतना बड़ा हत्यारा था कि वह राम का उच्चारण नहीं कर सकता था। मरा-मरा कहता था। मरा-मरा कहते-कहते राम हो गया और उसका उद्धार हो गया। यह पंडितों का अर्थ है। समझने की बात है। उलटा नाम है-उलटा अक्षर नहीं है। मरा-मरा कहकर जो राम हो गया, वह अक्षर उलटा। नाम को उलटो। नाम कहते हैं शब्द को। शब्द दो तरह के होते हैं-वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक, सार्थक और निरर्थक, सगुण और निर्गुण। इस नाम को उलटना है। वर्णात्मक से ध्वन्यात्मक में लाना है। सगुण नाम से निर्गुण नाम में लाना है। नौ द्वार से सिमटकर दसवें द्वार में लाना है। यह बहिर्मुख से अंतर्मुख होना-उलटना है। वही कबीर साहब कहते हैं-
‘उलटि पाछिलो पैड़ो पकड़ो, पसरा मना बटोर।’
कैसे पकड़ोगे? अंधकार में हो, चलोगे कहाँ से? जो जहाँ पर बैठा रहता है, वह वहाँ से ही चलता है। इसे हॉल में बैठे हुए हैं अपनी-अपनी जगह पर, अगर यहाँ से घर जाएँगे तो कहाँ से जाएँगे? जो जहाँ बैठे हुए हैं, वहीं से न उठेंगे। दूसरे की जगह से दूसरे तो नहीं चलेंगे। जो जिस जगह पर बैठे हुए हैं, वहीं से चलेंगे। उसी तरह हम उतरे हुए कहाँ से हैं-
तुम उतरि पड़यो तम माहिं पीव निःशब्द में ।
जिसको पीव तक जाना है, उसकी यात्र पूरी तब होगी, जब निःशब्द में पहुँचेंगे। इसलिए क्या करो? तम प्रकाश अरु शब्द निःशब्द की कोठरी। की खोज करो। अंधकार से अपने को प्रकाश में ले जाओ। प्रकाश से शब्द में ले जाओ और शब्द से निःशब्दं परमं पदम् की खोज करके अपना परम कल्याण बनाओ। इसके लिए घर-वार, परिवार, रोजगार छोड़ने की जरूरत नहीं है। घर-वार, परिवार, रोजगार में रहें, सच्ची कमाई करते रहें। अपना जीवन-यापन करें। सत्संग-भजन भी करें। यह लोक और परलोक भी बनेगा। आज रविवार है, गुरु-कीर्तन कहिए, फिर आरती। (स्थान-महर्षि मेँहीँ आश्रम कुप्पाघाट, भागलपुर; दिनांक-19-2-2006 ई0, साप्ताहिक सत्संग के सुअवसर पर हुआ था।)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
सापेक्ष के पार में सर्वेश्वर सर्वाधार है। परमात्मा ने सृष्टि को सापेक्ष बनाया है। सापेक्ष कहते हैं सर्व अपेक्ष, जिसको दूसरे की आवश्यकता होती है। जैसे दिन है तो रात होगी; रात है तो दिन होगी। रात-दिन, हानि-लाभ, सुख-दुःख-ये सभी सापेक्ष हैं। गोस्वामीजी ने लिखा है-
जड़ चेतन गुण दोषमय, विस्व कीन्ह करतार ।
हंस क्षीर नीर गहहिं पय, परहरि वारि विकार ।।
करतार ने संसार की रचना इस तरह की है, जिसमें जड़-चेतन का मिश्रण है। गुण-दोष मिश्रित है। गुण इसमें है, तो दोष भी इसमें है। जैसे दूध और पानी मिला हो, तो कितना भी प्रयास किया जाय, अलग-अलग नहीं होगा, लेकिन जो हंस पक्षी होता है, वह दूध और पानी को अलग-अलग कर देता है। उसी तरह जो परमहंस होते हैं, वे जड़-चेतन को पृथक्-पृथक् कर देते हैं। जैसे हंस केवल दूध ले लेता है और पानी को छोड़ देता है, उसी तरह से जो संत होते हैं, वे गुण को लेते हैं और दोष को छोड़ देते हैं। जैसे चीनी और बालू मिल जाए, तो कितना भी कोशिश कर लें, हम अलग नहीं कर सकते। लेकिन एक चींटी आती है, वह चीनी को ग्रहण कर लेती है और बालू को छोड़ देती है। गंगा की तेज धारा में हाथी बह जाता है; लेकिन छोटी मछली भाटा से सिरा चली जाती है। हंस बनना होगा; लेकिन हैं अभी काग। काग शरीर काला है और हमारा मन भी काला है। संत कबीर साहब ने कहा है-
पहले यह मन काग था, करता जीवनघात ।
अब तो मन हंसा भया, मोती चुगि चुगि खात ।।
नीति कहती है-‘काकः कृष्णः पिकः कृष्णः, काकः काकः पिकः पिकः।’ काकः जिसका अर्थ होता है-कौआ। कौआ काला होता है और कोयल भी काली होती है, दोनों के रंग में कोई अंतर नहीं है। कोई भेद मालूम नहीं पड़ता है; लेकिन जब वसंत ऋतु आती है, तब कौआ बोलता है और कोयल भी बोलती है, तो कौआ से कर्कश आवाज आती है और कोयल मीठी आवाज देती है। तब पहचाना जाता है कि यह कौआ है, यह कोयल है। उसी तरह दो हाथ, दो पैर, नाक, कान, मुँह जितने सब हैं, सब मनुष्य में रहता है, किसी में कमी-बेशी नहीं रहती है। लेकिन ये सब कोई ईश्वर को प्रत्यक्ष नहीं देख सकता है। जो परमहंस बनता है, वही ईश्वर को प्रत्यक्ष देखता है। हंस कैसे बना जाएगा? गोस्वामीजी ने मानस में लिखा है-काक होहिं पिक बकउ मराला।
जैसे काग काला कौआ और काली कोयल होती है, उसी तरह उजला बगुला भी होता है और उजला हंस भी होता है। बगुला मांस खाता है और हंस क्या खाता है?-
हंसा बगुला एक संग, मानसरोवर माहिं ।
बका ढकोरे माछरी, हंसा मोती खाहिं ।।
उसी तरह से सब के अंग सब रहते हैं, लेकिन जो सत्य को ग्रहण करते हैं, असत्य को त्याग देते हैं, वास्तव में मानव वह है। मानवता जिसमें है, वह मानव है। जिसमें मानवता नहीं, वह मनुष्य क्या हो सकता है, दोनों के व्यवहार में अंतर होता है। कागा और कोयल के, बगुला और हंस के व्यवहार में-दोनों का अंतर रहता है। तो ये जो काला मन है, यह निर्मल कैसे होगा? हंस कैसे होगा? गोस्वामीजी ने लिखा है-‘काक होहिं पिक बकउ मराला।’ जो कौआ है, वह कोयल बन जाएगा। मतलब कौए की जो कर्कश वाणी होती है, वह कर्कश बोली नहीं होगी। उसकी मीठी बोली हो जाएगी और जो बक (बगुला) है, सब चीज खाने-पीनेवाला है, वह सत्संग करते-करते ‘काक होहिं पिक बकउ मराला’ वह हंस हो जाएगा। जब उनको संत सद्गुरु मिलेंगे, सद्शिक्षा-दीक्षा देंगे तो वह अंतस्साधना करेंगे। जब अंतस्साधना करेंगे, ‘मीन जरि मरघाटि’। अंतस्साधना करके मीन को त्याग देगा। मीन कहते हैं अंधकार को। वह अंधकार को पार करके प्रकाश में चला जाएगा, उसका जीवन प्रकाशमय हो जाएगा। जो अंधकार में रहेगा, उसका जीव अंधकारमय हो जाएगा।
जिमि दूध के मथन से, निकसत है घी जतन ।
तिमि ध्यान की लगन से, पारब्रह्म ले निहारा ।।
दूध में घृत छिपा हुआ है। दूध से हम पूड़ियाँ नहीं छान सकते हैं; लेकिन उसी दूध को मथकर उसमें से घृत को अलग कर देते हैं, उस घृत से हम पूड़ियाँ छान लेते हैं। उसी तरह से हमारे जो जड़-चेतन मिश्रण है, जबतक जड़-चेतन मिले रहेंगे, तबतक परमात्मा की प्राप्ति नहीं होगी। ध्यान की मथानी से अपने को जड़ से पृथक् करके चेतन को अलग कर दें, तभी परमात्मा की प्राप्ति होगी। जो आत्मा को पहचानता है, वही परमात्मा को पहचानता है। जो आत्मा को नहीं पहचानता, वह परमात्मा को नहीं पहचानता। खुदी मिलाए, खुदा मिलेंगे।
इबादत है किसी नाशाद को फिर शाद कर देना ।
इबादत है किसी बर्बाद को आबाद कर देना ।।
यही सीखा है सागर हमने मुर्शद के कदम छूकर ।
खुदा से हो अगर मिलना, तो खुद का पता लगा लेना ।।
अगर खुदा से मिलना है, तो खुद का पता लगाओ। खुद का पता नहीं लगा तो खुदा का पता नहीं लगेगा। खुद और खुदा में अंतर क्या है? ख में उकार और द = खुद। ख में उकार और द में अकार = खुदा। सिर्फ आकार दिया गया है। आकार क्या है? एक लकीर है। वह क्या है? वह है अलीफ। एक सीधी लकीर होती है, उसे अलीफ कहते हैं। उसी तरह जो एक परमात्मा को भजता है, पकड़ता है, वही उसको पकड़ता है। अनेक को पकड़नेवाला उस एक को नहीं पकड़ सकता। ध्यान की मथानी से मथकर अपने को जड़ से अलग कर लो, फिर परमात्मा का साक्षात्कार हो जाएगा। बालू को छोड़कर चींटी चीनी को ग्रहण कर लेती है, उसी तरह जड़ है बालू और चेतनधार है चीनी। जड़धार को छोड़ो और चेतनधार को पकड़ो। वही चेतनधार सारशब्द है। जो अंतस्साधना करते हैं, पहले जड़ात्मक मंडल के शब्द मिलते हैं; लेकिन पीछे चलकर चेतनमंडल का शब्द मिलता है। उस शब्द को जो पकड़ते हैं, परमात्मा को प्राप्त कर लेते हैं। इसके लिए पहले दृष्टियोग की आवश्यकता होती है। जो दृष्टियोग की साधना अच्छी तरह कर लेते हैं, तो उसका भीतर का कान खुल जाता है, खुदा की आवाज को सुनने के लिए।
गोश बातिन हो कुशादा जो करै कुछ दिन अमल ।
ला इलाह अल्लाह हो अकबर पै जाने के लिए ।।
जो सगलेनसीरा की साधना करता है, दृष्टियोग की साधना करता है, तो उसके अंदर का कान खुल जाता है। बाहर के कान से खुदा की आवाज नहीं सुन सकते। अंतर्नाद को बाहर के कान से नहीं सुन सकते।
शृण्व वृष्टिेरिव स्वनः पवमानस्य शुष्मिणः ।
चरन्ति विद्युतो दिवि ।।
शृण्व-सुनो, वह दुस्तर होकर परमात्मा के पास ले जाएगा। चींटी होती है छोटी-सी, उसमें जीव कितना सूक्ष्म है। उसी तरह से जीव वृत्ति को सूक्ष्म बनाओ।
भक्ति दुवारा साँकरा, राई दसवें भाव ।
मन ऐरावत ह्वै रहा, कैसे होय समाव ।।
ईश्वर के पास जाने का जो रास्ता है, वह सँकरा है। बाइबिल में लिखा है। सकेत फाटक से प्रवेश करो। वही सकेत फाटक दसवाँ द्वार। हाथी गंगा की तीव्र धारा में बह जाता है, लेकिन छोटी मछली उलटी धारा से भाटा सीरा चली जाती है। हाथी बहुत बड़ा है, उसके सामने सफरी छोटी मछली, वह चली गई। उसी तरह जिसका मन हाथी बना हुआ है, वह दसवें द्वार में नहीं पहुँचेगा। जो सूक्ष्म बनावेगा, वही पहुँचेगा। मछली की चर्चा हम कुरानशरीफ में भी पाते हैं। लेकिन कुरानशरीफ में इस तरीके से लिखा है कि सब उसको परख नहीं सकते, पकड़ नहीं सकते। उसमें लिखा है कि मूसा ने अपने सेवक से कहा कि मैं तबतक सफर करता रहूँगा, जबतक कि दो नदियाँ मिल न जाएँ। मूसा सफर करने लगा। करते-करते वहाँ चला गया, जहाँ दो नदियाँ मिलीं। जहाँ दो नदियाँ मिलीं, वहाँ पर एक मछली निकली और सुरंग में प्रवेश कर गई। यह मछली क्या है? महर्षि मेँहीँ-पदावली में आया है-
सुखमन के झीना नाल से, अमृत की धारा बहि रही ।
मीन सुरत धार धर, भाठा से सीरा चढ़ी रही ।।
भाठा से सीरा क्या है? ये-
क्यों भटकता फिर रहा, तू ऐ तलाशे यार में ।
रास्ता शहरग में है, दिलवर पे जाने के लिए ।।
परमात्मा के पास जाने का जो रास्ता है, शहरग में है। अर्थात् सुष्मना में है। कौन बतलायेगा, कहाँ जाएगा।
मुर्शिदे कामिल से मिल सिद्क और सबूरी से तकी ।
जो तुझे देगा फहम शहरग के पाने के लिए ।।
जो कामिल मुर्शिद हैं, पहुँचे हुए गुरु हैं, उनकी शरण में जाओ। सच्चाई से जाओ। संतोष धारण करके जाओ, तब तुमको दसवें द्वार का रास्ता बतलायेंगे। जिसको दसवें द्वार का पता चलता है, उस छेद का भेद जिसको मिल गया है, वही परमात्मा के पास पहुँचेगा। जिसको दसवें द्वार के छेद का भेद नहीं मिला है, उस छेद से भेंट जिसको नहीं है, वह नहीं जा सकता। जो दसवें द्वार को देखता है, पाता है। वहाँ पर भी शब्द मिलता है, वह शब्द अपनी ओर खिंचता है। वह परमात्मा की ओर से ही आया हुआ है। प्रत्येक शब्द में गुण होता है, अपने केन्द्र की ओर खींचने का। अँधेरी रात हो, हाथोहाथ नहीं सूझता हो, आप तू-तू कहकर पुकारिये, जहाँ आपकी आवाज जाएगी, कुत्ता सुनेगा, तो आपके पास आ जाएगा। आपकी आवाज सुनकर कुत्ता आपके पास आ जाएगा। आप जो खुदा की आवाज सुनेंगे, तो आप कहाँ पहुँचेंगे, खुदा के पास पहुँचेंगे। परमात्मा की ध्वनि का एहसास जब होगी, उस ध्वनि को जब पकड़ेंगे, शब्द से खींचकर परमात्मा के पास चले जाएँगे। यही एक रास्ता है और कोई दूसरा, तीसरा रास्ता नहीं है। शुरू में अंधकार है, अंधकार के बाद प्रकाश है, प्रकाश के बाद शब्द है। शब्द के बाद निःशब्दं परमं पदम्-परमात्मा है। जो अंधकार को पार करेगा, वह प्रकाश में जाएगा। प्रकाश में शब्द को पकड़ेगा, निःशब्द में पहुँचा देगा। इसके अतिरिक्त दूसरा रास्ता नहीं है। वेद कहता है-‘नान्यो पन्था विद्यतेऽनाय।’ और कोई रास्ता नहीं है। संतमत यही एक रास्ता बतलाता है।
कुरानशरीफ के सुरे फातिहा में लिखा है-‘ऐ क्यामत के दिन का मालिक! मुझे सीधा रास्ता दिखला।’ सीधा रास्ता क्या है?
होगा फजल दरगाह तक, खौफो खतर की जा नहीं ।
सीधे चला जाना वहाँ, मुर्शद ने यह फतवा दिया ।।
मुर्शद बतलायेंगे, गुरु बतलायेंगे और कोई नहीं बतला सकते। संत सद्गुरु की शरण में जाएँ, उनसे सद्शिक्षा-दीक्षा ग्रहण करें, जैसा उनका आदेश हो, उनके अनुरूप अपना आचरण करें। जागतिक जीवन-यापन के लिए कुछ-न-कुछ पवित्र कमाई अवश्य किया करें। इहलोक भी बनेगा, परलोक भी बनेगा। आज रविवार है, गुरु-कीर्तन कहिए, फिर आरती।
(स्थान-महर्षि मेँहीँ आश्रम कुप्पाघाट, भागलपुर; दिनांक-26-2-2006 ई0, साप्ताहिक सत्संग के सुअवसर पर हुआ था।)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
संत कबीर साहब की वाणी है-
दिन दस नैहरवा खेलि ले, निज सासुर जाना हो।
संतों ने विभिन्न भावों में जनसाधारण को समझाने की चेष्टा की है। कभी सख्य भाव में, कभी दास्य भाव में, कभी वात्सल्य भाव में, कभी दाम्पत्य भाव में, जिस किसी तरह भी समझ जाए। यह पंक्ति जो आपलोगों के सामने कही गई, यह दाम्पत्य भाव की अभिव्यक्ति है। कबीर साहब कहते हैं-‘दिन दस नैहरवा खेलि ले, निज सासुर जाना हो।’ नैहर को कोई पीहर भी कहते हैं, उसी को मायका भी कहते हैं। लड़की जहाँ जन्म लेती है, वह नैहर कहलाता है। लेकिन लड़की सब दिन नैहर में नहीं रहती है। कुछ दिन नैहर में रहती है, उसके बाद विवाह होता है और वह ससुराल चली जाती है। वास्तव में लड़की का घर ससुराल ही है। ‘दस दिन’ का मतलब चन्द दिन, थोड़े ही दिन। जाना कहाँ है? ससुराल जाना है। मायके माने-जो माया का गृह है, वह है मायका। जीव जन्म लिया माया के घर में। जीव को यहाँ लड़की के लिए कहा गया है। माया के घर में लड़की का जन्म हो गया, लेकिन यहाँ पर दस दिन ही रहना है अर्थात् दस इन्द्रियों में रहना है।
दस इन्द्रियों में रहने का मतलब ही दस दिन है, लौकिक अर्थ तो थोड़े दिन है। इन्हीं दस इन्द्रियों से ऊपर ले जाना है। दस द्वारों में नौ द्वार तो अंधकारपूर्ण है; लेकिन दसवाँ द्वार जो है, वह प्रकाशमय है। अंधकार से प्रकाश में जाने के लिए संत कबीर साहब कहते हैं। आगे बढ़ो, नैहर में कितना भी मन लग जाए, कितना भी आनंद हो; लेकिन वह आनंद चन्द दिनों का है अर्थात् दस इन्द्रियों में रहकर जो आनंद मिलता है, वह विषयानंद मिलता है और विषयानंद क्या है? विषय विष है।
सोने का घड़ा हो देखने में बहुत सुन्दर; लेकिन वह घड़ा अगर विष से भरा हो। अगर विष भरा है, तब भी हानि नहीं है। ढक्कन हटाकर जैसे ही पियेंगे, वैसे ही मरेंगे। विषय हमलोग कैसे लिखते हैं- वि + ष + य = विषय। इसमें ‘य’ है ढक्कन। ‘य’ हटा दीजिए, तो क्या बचा? विष बचा। विषय का रस जो हम लेते हैं, वह विषपान करते हैं। आज मरें, कल मरें, मरना तो एक दिन है। इसलिए इस विषय रस को त्यागकर अमृत रस पियो और चलो। कबतक? यह अंधकार में जो रहना है, जबतक रहेंगे, तबतक अमृत नहीं मिलेगा। धर्मदासजी की वाणी में है-
एक तो अंधेरी कोठरी, जामें दीया न बाती हो ।
बहियाँ पकड़ि यम ले चले, कोइ संग न साथी हो ।।
कहाँ अँधेरा है? हमारा शरीर सूर्य के प्रकाश में है; लेकिन हम अंधकार में पड़े हुए हैं। आँखें बंद कर अपने से पूछें-कहाँ पर हैं? अंधकार में। धर्म दासजी कहते हैं, एक तो अँधेरी कोठरी है वह। अगर दीया-बाती रहे तो कुछ प्रकाश मिले-‘दीया न बाती’, दीया-बत्ती कुछ नहीं है। जबतक दीया-बत्ती नहीं है, तबतक अँधेरे में हैं। परिणाम क्या होगा? ‘बहियाँ पकड़ि यम ले चले, कोइ संग न साथी हो।’ यम पकड़ कर ले जाएगा। जबतक हम तम के घेरे में हैं, तबतक हम यम के घेरे में हैं। जब हम तम के घेरे को पार कर जाएँगे, तभी यम के घेरे को हम पार कर सकते हैं। हमलोग प्रार्थना करते हैं-‘तमसो मा ज्योतिर्गमय।’ हे प्रभु! मुझे अंधकार से प्रकाश में ले चलो। असतो मा सद्गमय-असत् से सत् की ओर ले चलो। मृत्योर्मा अमृतगमय-मृत्यु के मुख से निकालकर मुझे अमृतत्व की प्राप्ति कराओ।
सबका कितना एक दूसरे से अन्योन्याश्रित संबंध है-दोनों सापेक्ष है। एक तरफ तम है, तो दूसरी तरफ ज्योति है। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय।’ एक तरफ असत् है, तो दूसरी ओर सत् है। ‘असतो मा सद्गमय।’ एक ओर मृत्यु है, तो दूसरी ओर अमृत है। ‘मृत्योर्मा अमृतगमय।’ जबतक हम तम में हैं, तबतक असत् में हैं और जबतक असत् में हम हैं, तबतक मृत्यु के मुख में हैं। तमस् से निकल अगर ज्योति में चले जाते हैं, प्रकाश में चले जाते हैं; असत् से सत् में चले जाते हैं, तब मृत्यु के मुख से छूटकर अमृतत्व लाभ करते हैं। धर्मदास जी कहते हैं-जबतक अंधकार में रहोगे तो ‘बहियाँ पकड़ि यम ले चले, कोइ संग न साथी हो’, कोई साथ जानेवाला नहीं है। शास्त्र कहता है-
धनानि भूमौ पशवो हि गोष्ठे नारि गृहद्वारे सखा श्मशाने ।
देहश्चितायां परलोकमार्गे धर्मानुगो गच्छति जीव एकः ।।
जितनी भी हम सम्पत्ति अर्जित कर लें, अपने अर्जित ज्ञान के आधार पर शरीर छूटने के बाद सब पृथ्वी पर पड़े रह जाएँगे। जितने पशु हैं, सब पशुशाला में बँधे रह जाएँगे। नारी बेचारी रोती-रोती कभी घर जाएगी, कभी द्वार पर आएगी; कभी भीतर आएगी, कभी बाहर जाएगी। जो सखा है, मित्र है, हमारे साथ जो हमारे साथ्ा बैठकर हास-परिहास करते हैं, वे कंधे में उठा लेंगे, श्मशान तक पहुँचा देंगे। रामनाम सत् है, यही सबका गत है-सुनाते हुए चले जाएँगे। हम सुनें, चाहे नहीं सुनें। सुननेवाला कहाँ, सुननेवाला है नहीं।
जिस शरीर को हम बहुत प्यार करते हैं, यह शरीर भी चिता तक साथ जाएगा। चिता में जलकर भस्मीभूत हो जाएगा। उसके बाद जो हम रहेंगे। जो चलेगा सबको छोड़कर, उसके साथ क्या जाएगा? ‘धर्मानुगो गच्छति जीव एकः।’ जो किया हुआ कर्म है, वही साथ जाएगा। जबतक संत सद्गुरु से युक्ति नहीं मिले, इस अंधकार के फेर से हम नहीं निकल सकते हैं। तमसो मा ज्योतिर्गमय प्रार्थना करें; लेकिन निकलने का यत्न ही नहीं करें, तो केवल प्रार्थना से क्या होगा!
योगहृदयकेन्द्रविन्दु में युग दृष्टियों को जोड़िकर ।
मन मानसों को मोड़ि सब आशा निराशा छोड़िकर ।।
ब्रह्मज्योति ब्रह्मध्वनि धार धरि आवरण सारे तोड़िकर ।
सुरत चला प्रभु मिलन को विषयों से मुख को मोड़िकर ।।
झूठ चोरी नशा हिसा और जारी छोड़िकर ।
गुरु-ध्यान अरु सत्संग-सेवन में स्वमति को जोड़िकर ।।
जीवन बिताओ स्वावलंबी भरम भाँड़े फोड़िकर ।
संतों की आज्ञा हैं ये ‘मेँहीँ’ माथ धर छल छोड़िकर ।।
अगर हम अंधकार से प्रकाश में जाना चाहते हैं, तो ‘योग हृदय केन्द्र में’ अपनी दृष्टि को केन्द्रित करें। मन की जो इच्छाएँ हैं, सारी इच्छाओं को छोड़ें। दुनिया की आशा-निराशा है, उसको भी छोड़ें। ‘योग हृदय’-एक तो शरीर का हृदय है, कितने लोग इसी को कहते हैं। लेकिन संतों की वाणी में यह हृदय नहीं है। यह शरीर हृदय है। योग हृदय आज्ञाचक्र को कहते हैं। जो आज्ञाचक्र में अपनी दृष्टिधारों को मिलाते हैं, दोनों धारों को मिलाकर एक कर देते हैं, वही तम से-अंधकार से प्रकाश में जाते हैं। हमारे दृष्टि की जो दो धाराएँ हैं-एक शीत धार है, दूसरी उष्ण धार है। बायीं शीत धार है, दायीं उष्ण धार है। दोनों शीत और उष्ण धार को जहाँ पर मिलाएँगे, जहाँ दो वाष्प मिलेंगे, जहाँ निगेटिव-पोजिटिव दोनों मिलेंगे, वहाँ पर क्या होगा? दो वाष्पों को मिला दो, पानी हो जाएगा। उसी तरह दृष्टि की जो दोनों धाराएँ हैं, ये जहाँ पर मिलेंगे, वहाँ प्रकाश होगा। दोनों धाराएँ मिलकर एक होंगी, तो दो रेखाओं का मिलन एक विन्दु पर होता है, उसी तरह दृष्टि की दोनों धाराएँ जहाँ पर मिलेंगी, वहाँ पर विन्दु उत्पन्न होता है। संतों ने विविध तरह से समझाने की कोशिश की है। संत कबीर साहब कहते हैं-गगन की ओट निशाना है।
दहिने सूर्य चन्द्रमा बायें, तिनके बीच छिपाना है।
गगन की आड़ में, आकाश की आड़ में दृष्टि को टिकाओ। ‘दहिने सूर्य’ कहने का मतलब-सूर्य दिन में होता है; चन्द्रमा बायें का मतलब चन्द्रमा रात में होता है। इसी को गुरु नानकदेव साहब कहते हैं-
दिन महि रैणि रैणि महि
दीनी अरु उसन सीति विधि सोई ।
ताकी गति मति अवरु न जाणै
गुर बिन समझ न होई ।।
दिन में रैनि, दिन में रात करो; रैनि में दीनी, रात में दिन करो। जिनको सत्संग से संबंध नहीं है, वह नहीं सुने हैं तो कहेंगे कि जब दिन है तो दिन है; रात है तो रात है। रात में कोई दिन कैसे करेगा, दिन में कोई रात कैसे कर सकता है; लेकिन गुरु नानक देवजी कहते हैं। ताकी गतिमति अवरु न जानै। कोई उसकी गति नहीं जान सकते। कैसे होगा? ‘गुरु बिनु समझ न होई’ बिना गुरु का यह ज्ञान नहीं होगा। ‘गुरु ज्ञान सूर्य रूप उनकी ज्योति अनूप,
उर के नाशै तम कूप, भजो साधु गुरु साध गुरु ए।’
‘योगहृदयकेन्द्रविन्दु में युग दृष्टियों को जोड़िकर।’
मन में किसी तरह की वासना न रहे। अगर वासना रहती है, तो वहाँ उपासना नहीं होती है और जहाँ उपासना रहती है, वहाँ वासना नहीं रहती है। कबीर साहब कहते हैं-‘आशा से मत डोल रे, तोको पीव मिलेंगे।’ परमात्मा मिलेंगे, इस आशा से डोलो मत, मतलब निराशा रखो मत। हमलोग सोने के लिए जाते हैं, अगर किसी तरह का विचार मन में रहता है, तो नींद नहीं आएगी। जब सारे-के-सारे संकल्प- विकल्प समाप्त हो जाएगी, तभी नींद आती है। उसी तरह मन के सारे संकल्प-विकल्प मिट जाएँगे, सभी विचारान्त हो जाएँगे, तभी ध्यान बनेगा। अगर मन में कोई विचार उठ रहा है, उसी संकल्प-विकल्प में रहते हैं, तो ध्यान क्या होगा! ध्यान के पहले होती है धारणा और धारणा के पहले भी होता है प्रत्याहार। मन लगाते हैं, मन भागता है; मन लगाते हैं, मन भागता है, बारम्बार मन को समेटकर लाते हैं। गुरु महाराज की वाणी में आया है-
जहँ-जहँ मन भगि जाय, ताहि तहँ-तहँ से तत्क्षण ।
फेरि-फेरि ले आइ, लगाइय ध्येय में आपन ।।
ऐसहि करि प्रतिहार, धारणा धारण करिके ।
अरे हाँ रे ‘मेँहीँ’, औरो आगे बढ़िय ,
चढ़िय धर धारा धरिके ।।
मन लगाते हैं, मन भागता है; मन लगाते हैं, मन भागता है, तो समेट-समेटकर लगाना होता है। मन का भागना और समेटकर लगाना, इसको कहते हैं प्रत्याहार। जो प्रत्याहार में हार गया, उसकी धारणा नहीं होगी और अगर यदि प्रत्याहार में नहीं हारेगा, उसी की धारणा होगी। धारणा कहते हैं-अल्प टिकाव को। वह थोड़ा-सा जो अल्प टिकाव हुआ, उसी को कहते हैं धारणा। जब धारणा देर तक होने लगेगी, तब होता है ध्यान। असली ध्यान तो वह है, जो ‘ध्यानं निर्विषयं मनः’। मन में कोई विषय नहीं रहे, वह ध्यान है। पहले स्थूल ध्यान होता है, फिर सूक्ष्म ध्यान होता है, सूक्ष्मतर ध्यान होता है और सूक्ष्मतम ध्यान होता है। मानस जप और मानस ध्यान करते हैं, यह स्थूल ध्यान है। दृष्टि साधन करते हैं, अंतर्ज्योति मिलती है, यह सूक्ष्म ध्यान है। तब नाद की अनुभूति होती है। अनहद नाद के पहले अनुभूति, तब अनाहत नाद की अनुभूति होती है। जो अनहद नाद की अनुभूति है, वह है सूक्ष्मतर ध्यान और जब अनाहत नाद की अनुभूति होती है, वह है सूक्ष्मतम ध्यान। पहले तो अनाहत नाद को नहीं पकड़ा जा सकता है। अनाहत नाद को सबसे पीछे पकड़ा जाता है, जो परमात्मा से जाकर मिलाता है। इसलिए पहले प्रत्याहार करो।
एक सत्संगी थे। उनकी धर्मपत्नी ने गुरु महाराज को पत्र लिखा-कितनी बार मैंने परीक्षा दी और फेल करती गई। गुरु महाराज ने उत्तर दिया, जितनी बार तुम फेल करो, उतनी बार परीक्षा दो। परीक्षा देते-देते एक बार पास कर ही जाएगी तुम। तो ये हैं प्रत्याहार, इससे हारना नहीं है। कबीर साहब ने कहा-
मन तू थकत थकत थकि जाई ।
बिन थाके तेरे काज न सरिहैं, फिर पाछे पछिताई ।।
तुमको पश्चाताप करना पड़ेगा। बाँह को बराबर रगड़ते रहिए, कुछ देर तक बाँह ऐसी दुख जाएगी, फिर वैसा करने का मन नहीं करेगा। मतलब क्या हुआ, मन भागा, उसको समेटा; मन भागा, उसको समेटा। बारंबार भागना-समेटना, भागना-समेटना, जैसे बाँह थक जाती है, वैसे मन थक जाएगा। इसलिए कबीर साहब कहते हैं-‘मन तू थकत थकत थकि जाई।’ थकते-थकते तुम थक जाओगे। अरे! मन जड़ है और हम चेतन है। जड़ और चेतन का युद्ध है। एक न एक दिन जड़ को हारना ही है। कहावत है अपनी सीमा में जबतक है, तबतक बल दिखला रहा। लेकिन सुरत जहाँ आगे बढ़ेगी, तो स्वतः उसका बल समाप्त हो जाएगा।
मन बुद्धि चित हंकार की, है त्रिकुटी लगि दौर ।
जन दरिया इनके पड़े, ब्रह्म ररं की ठौर ।।
इसलिए थकना नहीं चाहिए, युद्ध करते रहना चािहए। तैमूरलंग ने इक्कीस बार लड़ाई की, इक्कीसो बार हार गया। आखिर वह निराश होकर आत्महत्या करने के लिए एक पहाड़ की गुफा में चला गया। यह कि मैं इक्कीस बार से बराबर हारता रहता हूँ। ये जब वहाँ जाता है और तैयार होता है आत्महत्या करने के लिए, वहाँ वह देखता है कि एक चींटी दाना लेकर पहाड़ पर चढ़ती है, गिर जाती है, दाना छूट जाता है। फिर दाना को पकड़ती है, फिर चढ़ती है, पुनः गिर जाती है। वह चींटी इक्कीस बार चढ़ी और इक्कीस बार गिरी। बाईसवीं बार दाना लेकर चढ़ गई। तब तैमूरलंग ने कहा-मैं चींटी से भी गया गुजरा हो गया। एक चींटी है, जिसमें उतनी हिम्मत है। जबतक सफलता नहीं मिली, तबतक दाना लेकर चढ़ती रही और हम ऐसे बेवकूफ हैं, जो आत्महत्या के लिए आये हैं। उसने भी चढ़ाई की और जीत हासिल की। तो यह है-
करत करत अभ्यास ते जड़मति होत सुजान ।
रसरी आवत जात ते, सिल पर पड़त निशान ।।
कुआँ पर पानी खींचते हैं, बाल्टी और रस्सी के लगातार खींचते-खींचते गढ़ा हो जाता है। गोपदेव पढ़ने में बड़ा भोंदू था। गुरुजी बहुत पीटते थे उनको। कहा-न पढ़ेंगे, न मार खायेंगे। चला गया भाग करके। पानी पीने के लिए कुआँ के पास गया, बाल्टी से पानी भर रहे थे तो देखा, जहाँ घड़ा रखती थी माई लोग, वह गड़हा हो गया। सीमेंट का चबूतरा था, घड़ा रखते-रखते गड़हा हो गया। वहीं उसको ज्ञान हो गया कि मिट्टी का घड़ा है। बारंबार रखते-रखते है जो सीमेंट का चबूतरा था, वह घिस गया। रस्सी इतनी कोमल और कुआँ की जगत कठोर होते हुए भी इसमें गढ़ा हो गया। हमारा हृदय क्या है, हमारा मस्तिष्क क्या है! गया पुनः पढ़ने के लिए। पढ़-लिखकर बहुत बड़ा विद्वान् हुआ।
इसलिए संतमत कहता है अभ्यास करो। नितप्रति अभ्यास करो। मन लगे, नहीं लगे, लगाते जाओ, लगाते-लगाते लग जाएगा।
(स्थान-महर्षि मेँहीँ आश्रम कुप्पाघाट, भागलपुर; दिनांक-5-3-2006 ई0, साप्ताहिक सत्संग के सुअवसर पर हुआ था।)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
जो सृष्टि का निर्माण किये हैं, उन्होंने दो प्रकृतियों का निर्माण किये हैं-1- परा प्रकृति और 2- अपरा प्रकृति।
परा प्रकृति चेतन है और अपरा प्रकृति जड़ है। परा प्रकृति अक्षर है और परा प्रकृति क्षर है। परा प्रकृति निर्गुण है और अपरा प्रकृति सगुण है। अपरा प्रकृति को साम्यावस्थाधारिणी मूल प्रकृति भी कहते हैं। इसको अष्टधा प्रकृति भी कहते हैं। अष्टधा इसलिए कहते हैं; क्योंकि इसमें आठ चीजें हैं। आठ चीजें ये हैं-पाँच तत्त्व-मिट्टी, जल, अग्नि, वायु और आकाश, मन बुद्धि और अहंकार।
अपरा प्रकृति से ही सेन्द्रिय और निरेन्द्रिय दो प्रकार की सृष्टि हुई हैं। सेन्द्रिय सृष्टि में प्रथम मन है और निरेन्द्रिय सृष्टि में प्रथम आकाश है। मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार-ये चार अंतःकरण की इन्द्रियाँ हैं। इनके अंदर पाँच कर्मेन्द्रियाँ और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। दसो इन्द्रियों का मन राजा है। ‘इन्द्रियाणां मनो नाथः।’ उपनिषद् में कहा गया है-दसो इन्द्रियों का नाथ मन है। मन के चलाये ही यह तन चलता है। मन के चलाए ही सब इन्द्रियाँ काम करती हैं।
प्रकृति का नियम है, जो कुछ आप ग्रहण करते हैं, तो आप कुछ त्याग भी कीजिए। यदि आप ग्रहण ही ग्रहण करते जाएँ, त्याग नहीं करें, तो परिणाम भयंकर होता है। जीवन दुभर हो जाता है। उदाहरणार्थ ऐसा समझिए-जैसे कि हम प्रतिदिन भोजन करते हैं। भोजन प्रतिदिन करें और मलत्याग न हो, तो परिणाम क्या हो जाएगा! बीमार हो जाएँगे। जीवन दुभर हो जाएगा। जल हम ग्रहण करते हैं और लघुशंका नहीं हो, जल जाकर जमा हो जाएगा पेट में, तो क्या हो जाएगा! बीमार हो जाएँगे। इसलिए त्याग भी चाहिए। हम आवाज देते हैं। अगर आवाज फेफड़े और पेट में ही रह जाए, आवाज निकले नहीं, तब क्या हो जाएगा! प्राणान्त हो जाएगा। इसलिए संतलोग कहते हैं कि ग्रहण करते हो, तो कुछ त्याग भी करो। ये नहीं कहते कि हमको दो, बल्कि परोपकार करो। परोपकार में कुछ काम करो, शुभ कर्मों में कुछ काम करो। दूसरी बात तो यह है कि असल में हम ईश्वर की भक्ति चाहते हैं, ईश्वर को पाना चाहते हैं, तो सबसे मूल बात है, राग का त्याग कीजिए। जबतक राग का त्याग नहीं होगा, तबतक अनुराग नहीं होगा।
राग किसे कहते हैं? जागतिक पदार्थों में जो हमारा प्रेम है, वह है राग और परमात्मा से जो प्रेम होगा, वह है अनुराग। राग की सीमा होती है। जब राग का त्याग करेंगे, खाली करेंगे, तब उसमें अनुराग घुसेगा। असल में, ‘मैं और मोर तोर तें माया, यहि पद चीन्हे जीव निकाया।’ गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा। यही मोर-तोर जो है, यही राग है। यह मेरा है, यह तेरा है, मैं हूँ और तुम हो, जहाँ तक यह है, वहाँ तक माया है।
मेरा-तेरा का जो भेद-भाव है, इसी रस्सी से संसार बँधा हुआ है। माया स्थिर रहनेवाली नहीं है, क्षणभंगुर है। देखने में आता है; लेकिन वह रहता नहीं है। जो कोई संसार में आए, कोई कुछ लेकर नहीं गये। हम देखते हैं; लेकिन हम ऐसा सोचते नहीं हैं कि हम भी जाएँगे, तो कुछ लेकर नहीं जाएँगे। विचार में नहीं आता। संत लोग कहते हैं-और चीजों को ले जाना तो दूर की बात है, तुम्हारा जो शरीर है, वह भी साथ नहीं जाएगा। कबीर साहब की वाणी में आया है-
‘सुन काया बौरी, चलत प्राण काहे रोई।
शरीर छूटने लगता है, प्राण उससे निकलने लगते हैं, लोगों को आँखों में पानी आ जाता है। बोलते हैं-यह संसार छोड़ना पड़ रहा है। चेतन आत्मा को हंस भी कहते हैं, प्राण भी कहते हैं। इस शरीर में जो रहनेवाली चेतन आत्मा है, वह कहती है-
कहे प्राण सुन काया बौरी, मोर तोर संग न होई ।
तोहे अस मित्र बहुत हम त्यागा, संग न लीन्हा कोई ।।
जबसे हम सृष्टि में हम आए हैं, कितने शरीरों को धारण किये हैं, ठिकाना नहीं है। छोड़ते-छोड़ते आज इस शरीर में आ गये हैं। इस शरीर को भी छोड़ना पड़ेगा। कोई कहते हैं-
कहे हंस सुन काया बौरी, मोर तोर संग न होई ।
तेरा और मेरा संग नहीं चलने को है; क्योंकि तुम्हारे जैसे मित्र को बहुत त्याग चुके हैं। किसी को संग नहीं लिये, अकेले चले गये। जिस शरीर को तुम इतना प्यार करते हो, वह शरीर भी यहीं रह जाएगा। इसलिए जो साथ जाए, वही है भगवद्भजन। बिना त्याग के भगवद्भजन नहीं होगा।
जब दुर्योधन का जन्म हुआ, तो दिन में ही सियार बोलने लग गये। कौए सब भयंकर आवाज करने लग गए। चारो तरफ अपशकुन ही अपशकुन दीख पड़ा। धृतराष्ट्र ने पूछा-व्यासदेवजी! यह क्या हो रहा है? व्यासदेवजी ने कहा-आपका जो पुत्र जन्म लिया है, इसी के कारण सारे अपशकुन दीख रहे हैं। इस पुत्र का आप त्याग कर दीजिए, नहीं तो परिणाम अच्छा नहीं होगा, वंश का संहार हो जाएगा। देखिए, नीति कहती है-परिवार की रक्षा के लिए एक व्यक्ति का त्याग किया जा सकता है, देश की रक्षा के लिए एक गाँव का त्याग किया जा सकता है और ईश्वर पाने के लिए संसार का त्याग किया जा सकता है। त्याग करिये। हमलोग सब दिन पढ़ते हैं-‘सब प्यारा परिवार और संपत्ति नहीं भावै।’ पढ़ते नहीं है, केवल सब दिन रटते हैं; लेकिन भाता है कि नहीं भाता है? चाहते हैं कि नहीं चाहते हैं? रोज हम पढ़ते हैं- ‘सब कुछ समर्पण कर गुरु की सेव करनी चाहिए।’ जहाँ हम पढ़ते हैं-सब कुछ समर्पण, वहाँ क्या सब समर्पण हम करते हैं! केवल हमें पाठ करने से लाभ नहीं होगा। जैसे यह कहानी है-
एक जंगल में शिकारी आता था। दाना छिड़क देता था, जाल फेंक देता था, चिड़िया आती थीं। सुग्गे का जमघट था। दाना चुगता था और जाल में फँसता था। एक साधु को दया आ गई कि शिकारी चिड़ियों को रोज मारता है। क्यों न चिड़ियों को सिखा दिया जाए। उसने शिकारी से कहा-तुम सुग्गा बेचते ही हो, तो एक सुग्गा मुझे मोल दे दो। उसने सुग्गा मोल ले लिया। उस सुग्गे को साधु ने रटा दिया कि शिकारी आवेगा, जाल बिछावेगा, दाना छिड़केगा, चुगना नहीं, चुगोगे तो फँस जाओगे। रटाते-रटाते सुग्गा को रट दिया। सुग्गा ने रट लिया कि शिकारी आवेगा, जाल बिछावेगा, दाना छिड़केगा, दाना चुगना नहीं, नहीं तो फँस जाओगे। वह तो रट लिया। साधु बाबा सुग्गा को पढ़ाकर छोड़ दिया। सुग्गा जंगल में गया और यही पढ़ने लगा-‘शिकारी आवेगा, जाल बिछावेगा, दाना छिड़केगा, दाना चुगना नहीं, नहीं तो फँस जाओगे।’ अब जितने सुग्गे वहाँ थे, सब सिख गया सुग्गा के पढ़ाने से। अब सब कोई यही बोलने लगा। सब सुग्गा पढ़कर पंडित हो गया। अब शिकारी सोचने लगा कि हम जाल बिछा देंगे, दाना छिट देंगे, पर अब एक भी नहीं आवेगा। कहा-अच्छा, दाना छिड़ककर देखें तो सही कि आता है या नहीं आता है। उसी तरह से जाल बिछा दिया, दाना छिड़क दिया और एक बगल आड़ में जाकर शिकारी बैठ गया। पहले एक सुग्गा आता है और गाता है-‘शिकारी आवेगा, जाल बिछावेगा, दाना छिड़केगा, दाना चुगना नहीं, नहीं तो फँस जाओगे।’ पढ़ता भी है और दाना चुगता भी है, वह फँस गया। दूसरा भी आया, तीसरा भी आया, सब पढ़ता भी है और फँसता चला जा रहा है। उसी तरह से हमलोग रोज पढ़ते हैं-‘सब कुछ समर्पण कर गुरु की सेव करनी चाहिए।’ सुग्गा ऐसा रट लिया है, लेकिन हृदय से अगर नहीं जाना है। नहीं कर रहे हैं हम, तो जिस तरह सुग्गे जाल में फँसे थे, उसी तरह हम यमजाल में फँसेंगे। आज रविवार है, गुरु-कीर्तन कहिए, फिर आरती।
(स्थान-महर्षि मेँहीँ आश्रम कुप्पाघाट, भागलपुर; दिनांक-12-03-2006 ई0, साप्ताहिक सत्संग के सुअवसर पर हुआ था।)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
एक राजा था, उसके दरबार में हाथी बँधा हुआ था। महावत हाथी को खिलाकर, नहला-धुलाकर फिर दरबार में ले आया। राज दरबार में बाँध दिया। हाथी जमीन से धूल लेकर अपने सिर पर फेंक रहा था। किसी ने महावत से पूछा-‘अभी जो तुम हाथी को नहला-धुलाकर लाये हो और वह अपने शरीर पर धूल ले रहा है। ऐसा क्यों?’
महावत ने उत्तर दिया उत्तर दिया-यह तो जंगल में रहनेवाला जानवर है। यहाँ तो पाल-पोसकर करके रखा गया है। इसको क्या पता कि नहाए-धुलाए कि नहीं नहाए-धुलाए-ऐसा स्वभाव है जानवर का। यही जिज्ञासा किसी ने अब्दुल रहीम खान-खाना से की, हाथी को नहला-धुलाकर लाया गया है, फिर अपने सिर पर धूल ले रहा है? जिज्ञासु ने पूछा-
धूल धरत निज सीस पर, कहु रहीम केहि काज ।
अब्दुल रहीम खानखाना कवि भी थे-
जेहि रज मुनि पत्नी तरी, सो खोजत गजराज ।।
जिस चरण की धूल से गौतम मुनि की पत्नी-अहिल्या का उद्धार हो गया, उसी धूल की खोज में हाथी है। किसी ने कबीर साहब के आगे कहा-हाथी अपने सिर पर धूल क्यों ले रहा है? कबीर साहब ने उत्तर दिया-‘यह अपने सिर पर धूल नहीं ले रहा है, बल्कि वह तो अपने सिर को धुन रहा है।’
राज द्वारे बंधिया, माथा धुनत गयन्द ।
मानुष जन्म कब पाइहौं, भजिहौं परमानंद ।।
मनुष्य का शरीर हमको कब मिलेगा, हम भगवद्भजन करेंगे। इसलिए माथा धुनता है। हाथी तो माथा धुनता है कि हमको मनुष्य शरीर मिले। रामचरितमानस में आया है-बड़े भाग मानुष तनु पावा।
हमलोगों को मनुष्य का शरीर मिला हुआ है। फिर भी हम भगवद्भजन नहीं करते हैं, तो हमको भी हाथी का दिन देखना पड़ेगा। यह संतमत वही ईश्वर-भक्ति करने के लिए बतलाता है। कुछ लोग कहते हैं। क्या ईश्वर है? किसी ने देखा है। जिसने नहीं देखा है, वह कहते हैं-ईश्वर नहीं है। लेकिन संतों ने ईश्वर को देखा है। उसने कहा कि हाँ, मैंने ईश्वर को देखा है। उन्होंने कहा कि ईश्वर है। बंगाल के एक संत हुए रामकृष्ण परमहंसजी महाराज, उनके पास एक नवयुवक जाता था, जिसका नाम था नरेन्द्र। पीछे वही स्वामी विवेकानंदजी से विश्वविख्यात हुए। नरेन्द्र ने स्वामी रामकृष्ण परमहंसजी महाराज से पूछा कि आपने ईश्वर को देखा है? रामकृष्ण परमहंसजी महाराज ने कहा-हाँ, मैंने देखा है। नरेन्द्र ने कहा-क्या मुझको भी दिखला सकते हैं? परमहंसजी महाराज ने कहा-हाँ, तुम्हें भी दिखला सकता हूँ। नरेन्द्र ने कहा-दिखला सकते हैं, तो कैसा है ईश्वर? परमहंसजी महाराज ने कहा-ठीक तुम्हारे जैसा। तुम्हारे जैसा कहने का तात्पर्य हाथ-पैर, मुँह-कानवाला नहीं था। स्वरूपता जो है, वही ईश्वर है। अपने स्वरूप को जिस दिन जान लोगे, उसी दिन ईश्वर को जान जाओगे। किसी ने बड़ा अच्छा कहा है-
“ इबादत है किसी नाशाद को फिर शाद कर देना ।
इबादत है किसी बरबाद को फिर आबाद कर देना ।।
यही सीखा है सागर हमने मुर्शद के कदम छूकर ।
खुदा से हो अगर मिलना पता खुद का लगा लेना ।।”
अगर खुदा से तुमको मिलने की इच्छा है तो पहले तुम अपनी पहचान कर लो कि तुम कौन हो? खुदा से हो अगर मिलना, पता खुद का लगा लेना। अपना पता लगा लो, पता खुद का लग जाएगा। अपना पता कैसे मिलेगा, खुदा का पता कैसे मिलेगा?
खुदी मिटाओ खुदा मिलेंगे। अपने अहं को छोड़ो, मद को छोड़ो। केवल अहंकार ही मद नहीं है। कबीर साहब कहते हैं-
मद तो बहुतक भाँति का, ताहि न जानै कोय ।
तन मद मन मद जाति मद, माया मद सब लोय ।।
विद्यामद और गुनहु मद, राजमद उनमद्द ।
इतने मद को रद्द करै, तब पावै अनहद्द ।।
जो कोई इन मदों को रद्द करता है, तब वह अनहद्द को पाता है और अनहद को पानेवाले ही अनाहत को पाता है। वह खुदा परम प्रभु परमात्मा को भी पाता है।
सुन लामकाँ पै पहुँच के तेरी पुकार है ।
है आ रही सदा से सदा यार देखना ।।
शून्य पहुँचो। अभी हमलोग ध्यान करने के लिए बैठते हैं, तो कहते हैं कि मन ही नहीं लगता है। मन कैसे लगता है, तो कबीर साहब कहते हैं-
शून्य ध्यान सबके मन माना ।
तुम बैठो आतम अस्थाना ।।
जो शून्य ध्यान करता है, उसका मन मान जाता है। अपने मन को शून्य बना दो। शून्य में प्रवेश कर जाओगे। जबतक मन शून्य नहीं होगा, तबतक शून्य में प्रवेश नहीं कर सकोगे। हमलोग सोने के लिए जाते हैं रात में, कुछ बात अगर सोचते रह जाएँ, तो नींद नहीं आएगी। जब सारी बातें भूल जाते हैं, तब नींद आती है। उसी तरह सब बातों को भूल जाएँगे ध्यान करने में, संकल्प-विकल्प छूट जाएगा, तब ध्यान होगा।
न ध्यानं ध्यानमित्याहुर्ध्यानं शून्यगतं मनः।
तस्य ध्यानप्रसादेन सौख्यं मोक्षं न संशयः।।
ध्यान को ध्यान नहीं कहते हैं, शून्यगत मन को ही ध्यान कहते हैं। उसी ध्यान की प्रीति के द्वारा ही सुख और मोक्ष-लाभ होते हैं, इसमें सन्देह नहीं। किसी ने मीराबाई से पूछा-बाई! हमलोग ध्यान करते हैं, तो मन कहाँ-कहाँ जाता है, क्या-क्या बातें मन में आती हैं? तुम इतनी बड़ी भक्तिन किस तरह बन गयी? तुम्हारा मन कैसे बस हुआ? मीराबाई ने कहा-‘मीरा मन मानी सुरत सैल असमानी।’ जब मैंने सुरत से आसमान की यात्र की, तब मन मान गया। तो आसमान की यात्र में आसमान में कैसे जाती थी, हवाई जहाज से? आकाश की यात्र तो अंतराकाश की यात्र है। बाह्याकाश की यात्र नहीं, अंतराकाश की यात्र। जो अंतराकाश की यात्र करते हैं, तब मन मानता है। यह मन क्या है?
बाजीगर का बानरा, ऐसा यह मन जान ।
जीति ले तो खेल है, नातर गाहक जान ।।
ये जो बंदर होते हैं, सिखा-पढ़ाकर रखते हैं, नाच कराते हैं। जब बंदर नाच करता है, खेल दिखलाता है लोगों को, तो खेल देखकर प्रसन्न होते हैं, पैसे देते हैं। उससे बाजीगर की जीविका चलती है और बंदर को भी खाना मिलता है। वही बंदर किसी की झोटकी पकड़कर नोचे, बाल पकड़कर नोचे, तो बंदर को लाठी पड़ेगी ही, बाजीगर को भी लाठी पड़ेगी। इसलिए मन जो है, वह बंदर है। संयमित मन से रहिए, मन को भजन में लगाते रहिए, मन क्यों नहीं लगेगा! मन किसी दूसरे का तो है नहीं, हमारा मन है। हम तो यही कहते हैं कि हमारा मन नहीं लगता है तो आपका मन है न! किसी दूसरे का तो पैंचा-उधार नहीं लाये हैं। जब आपका है, तो आपका मन क्यों नहीं मानेगा? आपका नहीं रहे, तो कोई बात नहीं। जब आपका है तो बात क्यों नहीं मानेगा? यह सिर्फ बोलने से नहीं होता है, चलने से होता है। भगवान श्रीराम ने रावण का जिद्द तोड़ा। रावण बहुत (बकबक) बोलता था। कहाँ है राम धुनधारी, कहाँ है राम खत्म करते हैं हम। भगवान राम ने कहा-
‘जिमि जल्पना करि सुजश नासहिं---।’
हे रावण! तुम तुम बक-बक करके क्या बोलते हो। सुनो, संसार में तीन तरह के लोग होते हैं। एक गुलाब फूल के समान, दूसरा आम के समान, तीसरा कटहल के समान। गुलाब केवल फूल देता है, फल नहीं लगता है। आम में फूल और फल दोनों लगते हैं। कटहल में केवल फल ही फल लगता है, फूल नहीं लगता है। उसी तरह कितने आदमी गुलाब की तरह बात तो बहुत चिकने करते हैं, हाँ में हाँ मिलाते हैं, पर करते वह कुछ भी नहीं, पर वे गुलाब के समान भीतर में काँटे भी होते हैं।
बोले मधुर बचन जिमि मोरा।
खाहिं महा अहि हृदय कठोरा ।।
मयूर की बोली बहुत मीठी होती है, लेकिन वह बड़ा-बड़ा साँप खा जाती है। उसी तरह बोलने के लिए बहुत लंबी-चौड़ी बातें बोलते हैं; लेकिन करने के लिए कुछ भी नहीं। आम-फूल भी देता है, फल भी देता है, उसी तरह ये दूसरे तरह के लोग ऐसे होते हैं। ये जो कहते हैं, वह करके दिखाते हैं। (कहना और करना) आम के समान हुआ। तीसरे वह होते हैं-कटहल के समान। कटहल में फूल नहीं होता। वह कहता नहीं, पर करके दिखाता है। तो भगवान श्रीराम कहते हैं कि मनुष्य का शरीर तुमको मिला हुआ है, केवल भगवद्भजन ले लेने से कुछ नहीं होगा। बात बनाने से कुछ नहीं होगा, करो। इसी के लिए आगे चलकर उसमें कहा गया है-
नर तन भव वारिधि कहँ बेरो।
सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो।।
करणधार सतगुरु दृढ़ नावा।
दुर्लभ काज सुलभ करि पावा।।
जो न तरै भवसागर, नर समाज अस पाय ।
सो कृत निंदक मंदमति, आतमहन गति जाय ।।
संसाररूपी समुद्र को पार करने के लिए यह शरीर नाव के समान है; लेकिन नाव मिल जाए और केवट नहीं मिले, तो नदी पार नहीं कर सकते। मनुष्य का शरीर तो मिल गया है और खेवैया हैं संत सद्गुरु। अगर संत सद्गुरु नहीं मिले, तब भवसागर पार नहीं कर सकते। मीराबाई को संत सद्गुरु मिले, उन्होंने अंतराकाश की यात्र की, जिससे भवबंधन से मुक्त होकर परम प्रभु को प्राप्त किया। उन्होंने कहा है-
मोही लागी लगन गुरु-चरणन की।
चरण बिना कछुवै नहिं भावै, जग माया सब सपनन की ।।
भौसागर सब सूख गयो है, फिकर नहीं मोहि तरनन की ।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, आस वही गुरु सरनन की ।।
(स्थान-महर्षि मेँहीँ आश्रम कुप्पाघाट, भागलपुर; दिनांक-19-3-2006 ई0, साप्ताहिक सत्संग के सुअवसर पर हुआ था।)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
भारत कृषिप्रधान देश होते हुए भी सदा से ऋषिप्रधान देश है। ऋषिप्रधान देश होने के कारण यह धर्मप्रधान देश भी है। या यों कहिए धर्मप्राण देश है। धर्म एक ऐसी चीज है, जिसके बिना कोई जीवित ही नहीं रह सकता। जिसमें धर्म है, वह जीवित है। जिसमें धर्म विलीन है, वह मृतवत् है। सभी अपने-अपने धर्म पर टिके हुए हैं। धर्म का अर्थ गुण-स्वभाव भी होता है। अग्नि का दाहकता है। अगर अग्नि अपने धर्म को छोड़ दे, दाहकता उसमें नहीं रहे, तो उसको अग्नि कोई नहीं कहेगा। पानी का धर्म गुण-स्वभाव सब तरल है। तरलतापूर्वक ढरक जाता है। अगर जल में तरलता नहीं रहे, वह जल या उसे जल नहीं कहकर बर्फ कहाएगा। जितने प्राणी चर-अचर हैं, सभी धर्म पर टिके हुए हैं। यह धरा धर्म पर टिकी हुई है। चन्द्र, सूर्य, तारे-ये सारे के सारे अपने धर्म पर ही अटल हैं।
अपने शरीर को ही लीजिए-आँख का धर्म है देखना। अगर आँख देखना बिल्कुल बंद कर दे, तो शरीर की क्या स्थिति रहेगी। कान का धर्म है सुनना। नासिका का धर्म है वायु ग्रहण करना, त्याग करना। मुँह से हमलोग भोजन करते हैं। हाथ-पैर से काम मेहनत करते हैं, चलते-फिरते हैं। नीचे के दो इन्द्रियों से मल-मूत्र विसर्जन करते हैं। अगर देखना बंद हो जाए, सुनना बंद हो जाए, नासिका बंद हो जाए, खाना बंद हो जाए, पखाना-पेशाब बंद हो जाए; जिस शरीर में हैं, उस शरीर की क्या हालत होगी। वह जीवित नहीं रह सकता। उसी तरह हमारा धर्म क्या है? हम कौन हैं? हमारा भी तो कुछ धर्म होना चाहिए। हम कहते हैं-हमारा हाथ है, हमारे पैर हैं, हमारी नाक है, हमारा सिर है। हम अपना अंग-प्रत्यंग का नाम बतला सकते हैं, ये हैं, ये हैं। इस शरीर के तो अंग-प्रत्यंग का नाम बतला देते हैं। शरीर हमारा है-यह कह देते हैं; लेकिन हम कौन हैं? हम अपने को नहीं जानते। यक्ष ने महाराज युधिष्ठिर से पूछा था कि सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है? युधिष्ठिर महाराज ने बताया कि हम देखते हैं कि नित्य-प्रतिदिन मर-मरकर यम के घर को भर रहे हैं; लेकिन हम अपने को अमर समझते हैं, यही सबसे बड़ा आश्चर्य है। लेकिन यह कम आश्चर्य नहीं है कि हम अपने शरीर को पहचानते हैं, अपनी पत्नी को पहचानते हैं, पत्नी हमको पहचानती है। हम अपने पुत्र को पहचानते हैं। पुत्र हमको पहचानता है। हम अपने परिवार को पहचानते हैं। परिवार हमको पहचानता है। हम अपनी जमीन पहचानते हैं, जायदाद पहचानते हैं। सब कुछ हम अपना पहचानते हैं; लेकिन हम कौन हैं, यह नहीं पहचानते। यह कितना बड़ा आश्चर्य है। यह ज्ञान बिना आत्मज्ञान के नहीं होगा। एक बंगाली महात्मा हुए मुनि पंचानन भट्टाचार्य, उन्होंने कहा-
“ आमि आमि करि बुझिते ना पारि ।
के आमि आमाते आछे कि रतन ।।
कौन शक्ति बले बेड़ाय चले बले ।
कार अभावे हय देह अचेतन ।।
देह माँझे आछे प्राणेरी संचार ।
तहा तेई बली आमी वा आमार ।।
प्राण गेले चले हवे शवाकार ।
केवाकार कोथा रवे धन जन ।।”
हम-हम करते हैं, लेकिन हम कौन हैं, पता नहीं। वाजश्रवा नाम के एक सज्जन थे। उन्होंने यज्ञ किया। यज्ञ में उन्होंने सर्वस्व दान करने लग गए। दान के क्रम में बूढ़ी-बूढ़ी गायें दान करने लग गए, वह भी घास-पानी सब त्यागा हुआ। उनका पुत्र था नचिकेता। था तो लड़का, लेकिन बहुत तीव्र बुद्धि का था। उसने कहा-पिताजी! आप सर्वस्व दान कर रहे हैं। बूढ़ी-बूढ़ी गाय दान देकर क्या होगा! किसी को देना हो तो अच्छी चीज देना चाहिए। इतनी बूढ़ी गाय देना ठीक नहीं हैं। जब आप सर्वस्व दान कर रहे हैं, तो सर्वस्व में मैं भी आपका हूँ। आप मुझे किसको दान दे रहे हैं। वाजश्रवा ने कोई उत्तर नहीं दिया। नचिकेता ने फिर कहा-आप मुझे किसको दे रहे हैं? वाजश्रवा ने समझा कि यह लड़का है, ऐसे बोलता है। फिर उन्होंने कहा-पिताजी! मुझे किसको दे रहे हैं! उनके मन में क्रोध आ गया। जा तुमको यमराज को देता हूँ। जा यमराज के पास। वह चला गया यमराज के पास। यमराज घर पर नहीं थे। तीन दिनों के बाद यमराज आए। तीन दिनों तक भूखे प्यासे मेरे यहाँ रहे। गृहस्थ का धर्म है अतिथि सत्कार करना; लेकिन वह सत्कार नहीं हो सका। मैं नहीं था। तो तुम तीन वरदान ले लो मुझसे। नचिकेता ने कहा-सबसे पहला वरदान मुझे यह दीजिए कि हमारे पिताजी जो क्रोधित होकर हमको आपके पास भेजे हैं, उनका क्रोध शांत हो। मैं जाऊँ तो प्यार से रखे। कहा कि ऐसा ही होगा। दूसरा वरदान यह दीजिए कि जो यज्ञ हो, यज्ञ में मेरे नाम की अग्नि प्रज्वलित की जाए। यम ने कहा-ठीक है, ऐसा ही होगा। तीसरा वरदान यह माँगा कि आत्मज्ञान दीजिए। यम ने कहा-दुनिया की कोई भी चीज माँगना चाहो, वह माँग लो। हाथी, घोड़े, सोना-चाँदी, हीरा-जवाहिरात-जो कुछ भी माँगना चाहो, जितना माँगना चाहो। राजपाट, जो कुछ माँगना चाहो, सब मैं तुमको दूँगा; लेकिन आत्मज्ञान की बात मत करो। जितनी स्त्रियाँ तुम लेना चाहो, उतनी स्त्रियाँ मैं तुमको दे दूँगा। नचिकेता ने कहा-ये सब इन्द्रिय को सुहानेवाली चीजें हैं, इनसे आत्मज्ञान नहीं होगा। कहा-जितनी लंबी आयु माँगो, उतनी आयु तुमको दूँगा। कहा-जितनी आयु माँगूँ तो फिर भी एक-न-एक दिन मरना होगा। इसलिए ऐसा वरदान दीजिए कि अमृतत्व लाभ हो।
यमराज ने पहले तो प्रलोभन दिया। जब उसमें यह नहीं फँसा, तब आत्मज्ञान की गूढ़ता बतलाने लगे। हे नचिकेता! यह आत्मज्ञान बहुत कठिन विषय है। इस मार्ग पर चलना बहुत कठिन है। निर्दिष्ट स्थान पर पहुँचना कोई आसान काम नहीं है। लेकिन फिर भी निराश होने की बात नहीं है। उठो, जागो और जबतक लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो, तबतक अपने उद्योग में शिथिलता मत आने दो। यह जो मार्ग है, छुरे की धार पर चलने के समान है।
उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ।।
इसलिए इस सत्ता को छोड़ो। नचिकेता ने कहा-मुझे और कुछ नहीं चाहिए। मुझे आत्मज्ञान चाहिए। यम ने बतलाया-यह ऐसा है इसमें, किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता। सदा एकरस रहता है। अखंड है, अभेद्य है। बुद्धि के द्वारा वह फँसने योग्य नहीं है।
इन्द्रियेभ्यः परं मनो मनसः सत्त्वमुत्तमम् ।
सत्त्वादधि महानात्मा महतोऽव्यक्तमुत्तमम् ।।
इन्द्रियों से मन पर (उत्कृष्ट) है, मन से बुद्धि श्रेष्ठ है; बुद्धि से महत्तत्त्व बढ़कर है तथा महत्तत्त्व से अव्यक्त उत्तम है। हमारी पाँच कर्मेन्द्रियाँ और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं; इन दसो इन्द्रियों का मालिक मन है।
अव्यक्तात्तु परः पुरुषो व्यापकोऽलिंग एव च ।
यं ज्ञात्वा मुच्यते जन्तुरमृतत्वं च गच्छति ।।
अव्यक्त से भी पुरुष श्रेष्ठ है और वह व्यापक तथा अलिंग है, जिसे जानकर मनुष्य मुक्त होता है और अमरत्व को प्राप्त हो जाता है। यानी परा प्रकृति से परे भी जो पर है, वह व्यापक एवं सर्वव्यापक है, उसको ज्ञात करोगे, उसको जान लेने पर मृत्यु के मुँह से छूट जाते हैं। उसको कैसे जानो, तो गुरु नानकदेवजी महाराज ने बतलाया-
खन्निअहु तीखी बालहु नीकी एतु मारगि जाना।
खन्निअहु तीखी-तलवार की धार से भी वह तीक्ष्ण है। इसका मतलब यह नहीं कि तलवार की धार से भी महीन है, तो कट जाएगा शरीर। उस तलवार की धार पर तन नहीं चलेगा, पहले मन चलेगा, फिर आत्मा चलेगी।
मन सह चेतन धार सुरत ही केवल पैठ तामें।
गुरु महाराज की वाणी में आया है। मन के साथ चेतन आत्मा ही इस छेद में प्रवेश कर सकती है और कुछ प्रवेश नहीं कर सकता है। वह बहुत सूक्ष्म मार्ग है। उस सूक्ष्म मार्ग को कैसे पकड़ोगे-जबतक कोई मोटे-मोटे अक्षरों को नहीं लिख लेता, महीन अक्षर लिखने की योग्यता नहीं होती है, उसी तरह से जबतक कोई मोटी उपासना नहीं कर लेता, सूक्ष्मता की योग्यता नहीं होती है। इसीलिए मोटी उपासना है। वैसे वर्णमाला बच्चे पढ़ते हैं-अ से अनार, आ से आम, इ से इनार, ई से ईख, उ से उल्लू, ऊ से ऊखल। अ से अनार पढ़ते हैं, अनार का चित्र वहाँ पर है, लेकिन अनार नहीं है। आम का चित्र बना हुआ है, उसको टुकड़ा करके खाइए-खट्टा या मीठा कुछ पता नहीं चलेगा। इ से इनार का चित्र है, लेकिन एक बूँद रस नहीं। उ से उल्लू-ये सब चित्र हैं, इन्हें देखकर अक्षर सिखाया जाता है। कहने को आम का, अनार का, इनार का ज्ञान है; लेकिन उसको सिखाना है-अ, आ, इ, ई------; उसी तरह पहले स्थूल साधना बतलाई जाती है।
गुरु जाप मानस ध्यान मानस, कीजिए दृढ़ साधकर ।
इनका प्रथम अभ्यास कर, स्त्रुत शुद्ध करना चाहिए ।।
पहले मानस जप, तब उसके बाद मानस ध्यान। मानस जप किस तरह होगा? जप और जापक के बीच कुछ नहीं। लेकिन जपते हैं कहीं, मन है कहीं, वह जप नहीं। तभी जप हो सकता है, जब ‘गुरु जाप जपन साँचो तप’। जो जप सही ढंग से कर लेता है, वह तप के समान हो जाता है और उसके बाद ‘सकल काज सारणं।’ फिर आगे काम चलता जाएगा। मानस जप तो हमारा सही ढंग से होता नहीं है, मानस ध्यान क्या होगा। मानस ध्यान ही नहीं होता है, तो विन्दु साधन क्या होगा। दृष्टि-साधन ही नहीं है, तो नादानुसंधान कैसे क्या करोगे!
साधारण जोड़-घटाव पढ़िए, साधारण गुणा- भाग पढ़िए, उसके बाद न अलजबरा पढ़िएगा! जिसने कुछ पढ़ा ही नहीं है अथवा वर्णमाला तक पढ़नेवाला बच्चा अलजबरा कैसे पढ़ेगा! उसी तरह मानस जप, मानस ध्यान, दृष्टि-साधन करना चाहिए। मानस जप के बाद दृष्टि-साधन सरल हो जाता है। जबतक ये सरल नहीं हुए हैं, तबतक कठिन है। दृष्टिसाधन बहुत कठिन है। कठिन ही नहीं, बहुत कठिन। जब हम दोनों में सफल हो जाते हैं, तो दृष्टिसाधन में भी सफल हो जाते हैं। इसलिए जैसे हम जप करने बैठते हैं, तो जप करने लगते हैं। एक बहुत बड़ा अंधकार का क्षेत्र आता है। मन उस अंधकार में घूमता है। इतना ही नहीं, अंधकार को छोड़कर न जाने कहाँ-कहाँ घूमता है। जब मानस जप करें तो इस तरह मानस जप हो कि मन कहीं भागे नहीं। यह अंधकार का क्षेत्र उतना विस्तृत नहीं है। सामने देखकर करते हैं, तो उसकी सीमा हो जाती है। क्षेत्र छोटा हो जाता है और उसमें अगर मानस ध्यान करते हैं, भगवान श्रीकृष्ण ने कहा-पहले हमारे संपूर्ण शरीर का ध्यान करो, फिर हमारे मुस्कानयुक्त मुख का ध्यान करो। उसको भी छोड़कर शून्य में ध्यान करो।
अगर भगवान के रूप का हम ध्यान करते हैं, ऐसे इष्ट का हम ध्यान करते हैं, तो केवल वह रूप ही आता है। खड़े रूप का ध्यान करते हैं, तो साढ़े तीन हाथ का होता है। बैठे का करते हैं, तो सवा हाथ का हो जाता है। उसपर भी केवल सब छोड़कर मुस्कानयुक्त मुख का हम ध्यान करते हैं, तो एक बित्ता पर आ जाते हैं। जब हमारी दृष्टि एकविन्दुता पर पहुँचती है, तब इतना छोटा होता है। वह स्वयं दृष्टिसाधन की क्रिया कहलाती है। वह सरल होता है। जबतक विस्तृत क्षेत्र अंधकार है, अंधकार का कहाँ शुरू है, कहाँ अंत है, दृष्टिसाधन की क्रिया से जानने में आता है। इसलिए मानस जप, मानस ध्यान मन से करना चाहिए। दृष्टियोग से मन का पूर्ण सिमटाव होता है। सिमटाव में ऊर्ध्वगति होती है। ऊर्ध्वगति में आवरण भेदन होता है। आवरण-भेदन होने से अंध- कार नहीं रहता है। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ अंधकार से प्रकाश में चला जाता है। जो प्रकाश में चला जाता है, उसका अहोभाग्य है। उसका जीवन प्रकाशमय हो जाता है। यही जीवन भविष्य-जीवन का कायाकल्प करती है। इसके बाद नाद की साधना है-नादानु- संधान। जैसे हम बैठते हैं, वहाँ जाप करते हैं, उसी जाप के अंदर प्रकाश हो जाता है। जो षट विकार चीजें हैं, वह जल-भूनकर खत्म हो जाती है और नाद जो परम प्रभु परमात्मा की ओर से आया हुआ है, उस नाद को जो कोई पकड़ता है, वह परमात्मा तक पहुँच जाता है।
बजती हैं पाँच नौबतें, सुनि एक एक को ।
प्रति एक पे चढ़ि जाय के, निज नाह खोजना ।।
अपने अंदर पाँच नौबतें हैं। पहली नौबत, फिर दूसरी नौबत, तीसरी नौबत, चौथी, पाँचवीं-
पंचम बजे धुर घर से, जहाँ आप विराजें ।
गुरु की कृपा से ‘मेँहीँ’, तहँ पहुँचि खोजना ।।
जो पाँचवीं नौबत है, उसके शब्द को जो पकड़ते हैं, वह परमात्मा तक पहुँच जाते हैं। आवागमन का चक्र छूटता है। दैहिक, दैविक, भौतिक ताप-इन त्रितापों से वह मुक्त हो जाता है। संतमत का यही रास्ता है। आवश्यकता है पवित्र आचरण की। जबतक चरित्र ठीक नहीं होगा, बाल की नोक के बराबर भी आगे नहीं बढ़ सकते। इसलिए झूठ, चोरी, नशा, हिंसा, व्यभिचार का त्याग करो। एक ईश्वर पर विश्वास करो। प्रभु अंदर मिलेंगे, इसका दृढ़ विश्वास रखना चाहिए। सत्संग करो, ध्यान करो, गुरु की सेवा करो और अपने जीवन-यापन की कुछ-न-कुछ पवित्र कमाई अवश्य किया करो। परमुखापेक्षी मत बनो। जो हो सके, दूसरे का उपकार करो-यह संतमत का सार आपलोगों के सामने रखा। आज रविवार है। गुरु-कीर्तन कहिये, फिर आरती।
(स्थान-महर्षि मेँहीँ आश्रम कुप्पाघाट, भागलपुर; दिनांक-9-4-2006 ई0, साप्ताहिक सत्संग के सुअवसर पर हुआ था।)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
एक शिष्य ने अपने गुरुदेव से जिज्ञासा की कि गुरुदेव! यहाँ गीता, श्रीमद्भागवत, रामायण आदि का पाठ होता है, सत्संग होता है, वहाँ मैं जाता हूँ। मैं किसी की बुराई नहीं करता; लेकिन फिर भी लोग मुझसे वैर करते हैं, क्या किया जाए? उनके गुरुदेव ने उत्तर दिया-‘वैर तीन तरह के होते हैं-एक सकारण, दूसरा अकारण, तीसरा प्राकृतिक। सकारण का कारण जानकर उसका निवारण कर देना चाहिए। अकारण वैर जो करते हैं, उसको समझाने की पहले चेष्टा करना चाहिए, नहीं समझे, तो उससे उदासीन हो जाना चाहिए।
जो कोई समझे सैन से ताको करिये वैन ।
सैन वैन समझे नहिं, ताको कछु न कहिए ।।
साधु-संत-महात्मा लोग होते हैं, उनसे भी लोग अकारण वैर करते हैं, यद्यपि संत-महात्मा किसी की बुराई नहीं करते, अपकार नहीं करते, सबके लाभ के लिए सोचते हैं। उसपर भी संत-महात्माओं को नहीं जाननेवाले गालियाँ देते हैं, मारपीट करते हैं, निंदा करते हैं। इतना ही नहीं, जान से भी मार देते हैं। तीसरा प्राकृतिक वैर है। बिल्ली है, चूहा है। बिल्ली को चूहा कुछ नहीं करता; लेकिन बिल्ली देखेगी चूहा, तो उसको पकड़कर खा लेगी। साँप है, मेढ़क है। मेढ़क साँप का कुछ बिगाड़ता नहीं है, फिर भी साँप मेढ़क को पकड़कर खा जाते हैं। जो इस तरह है, उससे दूर रहना अच्छा है। वैर को वैर से नहीं, प्रेम से जीत सकते हैं।
जो तोको काँटा बोए, ताहि बोय तू फूल।
ताको फूल के फूल है, वाको है त्रिशूल।।
बात आज की नहीं है, हजार-हजार से भी पूर्व की है। भिक्षु लोग भिक्षाटन करके जीवन-यापन करते थे। जाते थे लोगों के यहाँ, माँगते थे। जो मिल जाता था, ले लेते थे, भोजन करते थे। इसी तरह समय बीतता था।
एक गृहपति थे। बहुत बड़े धनी थे। जितने बड़े धनी थे, उतने ही बड़े कंजूस थे। उनके मन में आया, यह भिक्षु बराबर आता है, माँगता है। इसलिए ऐसा उपाय करो कि आवे नहीं, माँगे नहीं। अपनी पत्नी से कहा-आज उसको जो रोटी देना, उसमें विष मिला देना। रोटी ले जाएगा, खाएगा, तो सोये-का-सोया रह जाएगा। गृहिणी ने वैसा ही किया। रोटी बनाते समय उसमें विष मिला दिया। जब वह भिक्षु आया माँगने के लिए वही रोटी उसको दे दी। रोटी लेकर बेचारा चला गया। वे तो कई घरों में माँगते हैं। माँग करके चले आ रहे थे और सब घरों में जो भिक्षा मिली थी, उसी का भोजन उसने किया। उसके यहाँ की रोटी रह ही गई, तो कहा-इसे रात में खाऊँगा। संयोग होता क्या है। जिस सेठ के मन में हुआ था, उस साधु को मारने के लिए, उसका बेटा कहीं विदेश में रहता था, वह वहाँ से आ रहा था। धूप का समय था, आते-आते वह थक गया; क्यों उसके पास सवारी थी नहीं। थका-माँदा आया, उसी भिक्षु की कुटिया में पहुँच गया। सोचा यहाँ से घर नजदीक ही है, थोड़ा विश्राम करके जाऊँगा।
साधु दयालु होते हैं, परोपकारी होते हैं। भिक्षु ने देखा कि हमारे यहाँ अतिथि आये हुए हैं और भोजन का समय है, तो पूछ लेना चाहिए। भोजन करा देना चाहिए। भिक्षु ने कहा कि बाबू! भोजन का समय है, भोजन कर लीजिए। वह भी थका-माँदा था, कहा-दे दो बाबा! उसके पास वही जो रोटियाँ बची थीं, उसने दे दी। रोटियों को खाकर, पानी पीकर सोया तो सोया ही रह गया। भिक्षु देखता है, क्या हो गया इनको! वह साधु उसके घर पर आता है और कहता है कि ऐसे-ऐसे हमारे यहाँ आए थे। आपके लड़के थके-माँदे थे, तो मैंने रोटी खिला दी। खिलाये तो बेचारे ने खाया, पानी पिया। सोया तो सोया ही रह गया। जब वह गृहपति आता है और देखता है, तो छाती पीटने लगता है। यह क्या हुआ-‘जो तोको काँटा बोए, ताहि बोय तू फूल।’ सेठ ने काँटा बोया साधु के लिए। साधु ने फूल बोया उसके खिलाने में; लेकिन जो काँटा बोया, उसका तो त्रिशूल हो गया और इसका ‘फूल के फूल’। भगवान बुद्ध ने कहा-वैर से वैर दूर नहीं होता, अवैर से ही दूर होता है। इसलिए संतों ने कहा वैरभाव नहीं रखो। जिसके मन में राग, द्वेष, वैर हो, उससे भगवद्भजन नहीं होता। न उसका इहलोक बनता है, न परलोक बनता है। इसलिए मन को शान्त रखना अच्छा है। कहा कि कहानी नहीं, इतिहास है। काशी नरेश ने कौशल नरेश पर चढ़ाई की। कौशल नरेश हार गया और वह अपनी पत्नी और लड़के के साथ छप्र वेश में वहाँ से भाग गया। उसके लड़के का नाम दीर्घायु था। तीनों वेश बदलकर जंगल के किनारे एक झोपड़ी बनाकर रहने लगे।
दीर्घायु नौजवान, बुद्धिमान और ज्ञानवान था, लेकिन वह अपना उत्कर्ष दिखलाता तो पकड़ा जाता। इसलिए जंगल की लकड़ियों को काट-काटकर बेचता और उससे जो पैसे मिलते, उससे तीनों का गुजारा होता। राजा दीर्घती के शत्रु-राजा ने गुप्तचरों द्वारा उसकी खोज की और राजा दीर्घती पत्नी के साथ पकड़ा गया। उस समय दीर्घायु लकड़ी बेचने गया था, इसलिए वह बच गया। सिपाहियों ने राजा दीर्घती और उसकी पत्नी को राज दरबार में उपस्थित किया। राजा ने सोचा-यह मेरा दुश्मन है, कभी-न-कभी अपना वैर चुकाएगा। इसलिए इसकी जीवन-लीला समाप्त कर देना ही अच्छा है। राजा दीर्घती और उसकी पत्नी को सजा सुना दी गई कि कल दस बजे दिन में उनको फाँसी दी जाएगी।
निश्चित समय पर नगर के हजारों लोग उस दृश्य को देखने के लिए इकट्ठे हो गए। जब दीर्घायु को यह बात मालूम हुई, तो उस भीड़ में वह भी आकर कहीं खड़ा हो गया। फाँसी पर लटकाए जाने से पहले राजा दीर्घती ने कहा- “ बेटा दीर्घायु! यदि तुम कहीं हो तो सुनो-‘जल्दी मत करना, देर तक मत रखना, बैर को बैर से नहीं, प्रेम से जीत सकते हो।”-तीन बार ऐसा कहा। उसके बाद राजा दीर्घती को फाँसी पर लटका दिया गया। फिर रानी को भी फाँसी की सजा दे दी गई। बेचारा दीर्घायु करे तो क्या! उसका राज-पाट, धन-दौलत तो चला ही गया था; माँ-बाप का सहारा भी छिन गया। वह संगीत कला में कुशल था। वीणा लेकर घूम-घूमकर गीत गाता, लोग उसे खिला-पिला देते। इस प्रकार वह अपना जीवन-निर्वाह करता।
एक बार वह घूमते-घूमते उसी राजा के घोड़े के दारोगा के यहाँ चला गया। दारोगाजी संगीत के प्रेमी थे। उसके गाने को सुनकर वे बहुत प्रसन्न हुए और बोले-‘तुम इधर-उधर कहाँ भटकते हो, यहीं मेरे पास रहो। जब-जब मैं गाना सुनाने कहूँ, तब-तब मुझे सुनाया करना।’ दीर्घायु वहीं रहने लग गया। खाता-पीता और गाना सुनाता। एक रात दारोगाजी के आदेश पर वह वीणा बजाकर गाना गा रहा था। उस रात राजा को नींद नहीं आ रही थी, वे अपनी महल की छत पर टहल रहे थे। लय-सुर-तान के साथ सुरीली आवाज उनके कानों में पड़ी, तो वे मुग्ध हो गए। सबेरा होते ही उन्होंने दारोगाजी को बुलवाया और पूछा-‘तुम्हारे यहाँ रात में कौन गाना गा रहा था?’ दारोगाजी ने उत्तर दिया-‘एक लड़का आया हुआ है, वही गाना गा रहा था।’ राजा ने कहा-‘उसे मेरे पास भेज दो।’
दारोगाजी ने लड़के को राजा के पास भेज दिया। अब वह राजा के पास रहने लगा। राजा को गा-गाकर संगीत सुनाता, उनका मनोरंजन होता। राजपुत्र तो वह था ही। राजा ने कहा-‘देखो जी, तुम सिर्फ गाना गाते हो, कुछ और काम करो।’ राजा ने उसे कुछ काम करने को दिया। उसने उस काम को बड़ी कुशलता से सम्पन्न कर दिखाया। राजा प्रसन्न होकर उसे कुछ ऊँचे पद पर दे दिया। जैसे-जैसे वह काम कुशलतापूर्वक करता जाता, राजा उसे ऊँचे-ऊँचे पद देता जाता। होते-होते राजा ने उसे अपना अंगरक्षक बना लिया। अब राजा जहाँ जाता, वह उसके साथ-साथ जाता। घोड़े की सवारी जैसी राजा की होती, वैसी उसकी भी होती। खाना-पीना सब वैसा ही हो गया।
एक दिन राजा जंगल में शिकार खेलने के लिए गया। राजा ने एक शिकार के पीछे अपना घोड़ा दौड़ाया। दीर्घायु भी उनके साथ था। जाते-जाते दोनों घनघोर जंगल में पहुँच गए। राजा बूढ़ा हो गया था। उन्होंने दीर्घायु से कहा-‘मैं बहुत थक गया हूँ, थोड़ी देर आराम करने के बाद ही घर लौटूँगा।’ दीर्घायु ने कहा-‘यहाँ तो आराम करने का कोई साधन नहीं है। आप मेरी जाँघ पर सिर रखकर सो जाइए।’ राजा उसकी जाँघ पर सिर रखकर सो गया। अब दीर्घायु मन-ही-मन राजा के संबंध में सोचने लगा कि यही है, जिसने मेरा धन-दौलत, राज-पाट सब हरण कर लिया है। मेरे माँ-बाप का वध किया है। स्त्री-हत्या के पाप से भी नहीं डरा है। मुझे दर-दर का भिखारी बनानेवाला भी यही है। यहाँ जंगल में कौन देखनेवाला है। यहीं इसका काम तमाम कर देना ठीक है।’ वह राजा के सिर का बाल मुट्ठी में जकड़कर पकड़ता है और म्यान से तलवार खींचकर उसका गला काटना चाहता है। इतने में उसको अपने पिता का उपदेश याद आया-‘जल्दी मत करना, देर तक मत रखना, वैर को वैर से नहीं, प्रेम से जीत सकते हो।’ अतएव मारना ठीक नहीं। वह राजा के बाल को छोड़कर तलवार को म्यान में रख लेता है।
अब होता क्या है? एकाएक राजा की नींद टूट जाती है और वह चौंककर उठता है, थर-थर काँपने लग जाता है। लड़के ने पूछा- ‘राजन्! आप तो गहरी नींद में सोये हुए थे, इस तरह भयभीत होकर आप काँप क्यों रहे हैं?’ राजा ने उत्तर दिया-‘क्या बतलाऊँ! मैंने स्वप्न देखा कि राजा दीर्घती का पुत्र दीर्घायु मेरा गला काट रहा है। इसी डर से मेरी नींद टूट गई और मैं काँप रहा हूँ।’ लड़के ने कहा-‘दीर्घायु तो मैं ही हूँ।’ अब राजा और भी डर गया। सोचने लगा-‘इसके सिवाय जंगल में और कोई नहीं है। यह जवान भी है। अब तो मेरी जान बचनेवाली नहीं है। वह हाथ जोड़ गिड़गिड़ाकर कहने लगा-‘मेरा जीवन तुम्हारे हाथ में है। मैंने अवश्य ही तुम्हारा बहुत बुरा किया है। मुझे क्षमा कर दो।’ दीर्घायु ने कहा-‘राजन्! आप मेरे पितातुल्य हैं, मैं तो आपको क्षमा कर दूँगा, लेकिन आप भी मुझे क्षमा करें। अभी तक तो आप नहीं जानते थे कि मैं आपका दुश्मन हूँ, पर अब तो जान गए। यहाँ से घर लौटने पर आप लोगों को बतलाएँगे कि यह हमारा दुश्मन है और मुझे मरवा डालेंगे।’ राजा ने सत्य प्रतिज्ञा की कि ऐसा नहीं होगा। दीर्घायु ने क्षमा कर दिया।
घर आने पर राजा के मन में होता है कि दीर्घायु राजपुत्र तो है ही, देखने में कितना सुन्दर है, सभी गुण-ज्ञान सम्पन्न है, विद्वान भी है। मेरी पुत्री सयानी हो गई है, क्यों न इसी के साथ विवाह कर दिया जाय। राजा अपनी पुत्री के साथ उसका विवाह कर देता है और उसका राज्य उसको दहेज में लौटा देता है। एक दिन राजा ने दीर्घायु से पूछा-‘तुम्हारे पिता ने अन्तिम समय में तुमसे क्या कहा था और उसका अर्थ क्या है?’ उसने उत्तर दिया- “ राजन्! मेरे पिताजी के उपदेश ने ही आपकी रक्षा की है। उन्होंने कहा था कि ‘जल्दी नहीं करना’, इसलिए मैंने तलवार को म्यान में रख लिया था। कहा था-‘देर तक मत रखना और वैर को वैर से नहीं, प्रेम से जीत सकते हो।’ मैंने वैर को भुला दिया और आपसे बदला लेने का विचार त्याग दिया। अगर मैं पिताजी की आज्ञा का पालन नहीं किया होता तो आज दर-दर का भिखारी बना रहता। उनकी आज्ञा शिरोधार्य कर लेने के कारण ही आपसे मित्रता हुई। आपकी पुत्री से विवाह हुआ और खोया हुआ राज्य भी मुझे मिल गया।” इसलिए संतों का ज्ञान बतलाता है कि किसी से वैरभाव नहीं रखना चाहिए। इस बात को कबीर साहब ने कहा है-
लाल लाल जो सब कोई, सबकी गाँठि लाल ।
गाँठी खोलिके परखे नाहीं, तासे भयो कंगाल ।।
वह गाँठी क्या है? जिसको देखने से लाल मिलता है। लाल तो दुनिया में भी होते हैं; लेकिन कितना भी लाल किसी को मिल जाए, फिर भी वह कंगाल बना रहता है। पर यह लाल क्या है? गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने बतलाया-
जड़ चेतन ग्रंथहिं पड़ि गई ।
जदपि मृषा छूटत कठिनई ।।
जड़ और चेतन की जो ग्रंथि है, जब वह ग्रंथि छूटती है, खुलती है, तब लाल मिलता है। यह लाल है परमात्मा। जड़ पृथक् हो गया, चेतन पृथक् हो गया। जैसे दूध में घृत है; लेकिन उससे पूड़ियाँ नहीं छान सकते; लेकिन दूध के मक्खन से घी निकाल लिया जाता है, तब उससे पूड़ियाँ छानी जाती है। उसी तरह जड़ और चेतन की संधि हो, तबतक परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती। जब जड़ अलग हो जाए, चेतन अलग हो जाए, तब उस चेतन आत्मा के द्वारा ही परमात्मा की प्राप्ति होती है। गुरु नानकदेवजी महाराज ने कहा है-
जिमि दूध के मथन से, निकसत है घी जतन से ।
तिमि ध्यान की लगन से पारब्रह्म ले निहारा ।।
ध्यान की मथानी से मथने पर जड़ और चेतन पृथक् हो जाता है, सिर्फ चेतन आत्मा के द्वारा ही परमात्मा की प्राप्ति होती है। इसलिए कबीर साहब कहते हैं-लाल-लाल तो सब कोई कहते हैं। वह लाल अर्थात् परमात्मा सबके अंदर है; लेकिन जबतक गाँठि को खोलेंगे नहीं, तबतक लाल नहीं मिलेगा। चाहे कितने भी धनी हो जाएँ, लेकिन जबतक परमात्मारूपी लाल जबतक नहीं मिल जाता, तबतक बाहर की लाल से संसार में कंगाल ही बने रहेंगे। इसलिए क्रिया ऐसी होनी चाहिए, जिससे जड़-चेतन की गाँठि (ग्रंथि) अलग-अलग हो जाए। यह क्रिया कठिन नहीं है, बल्कि सरल और सहज है, सबके करनेयोग्य है। सभी कर सकते हैं-स्त्री-पुरुष, विद्वान्-अविद्वान्, इस देश के, उस देश के सभी कोई सकते हैं।
जितने मनुष्य तनधारि हैं, प्रभुभक्ति कर सकते सभी ।
अन्तर व बाहर भक्ति कर, घट-पट हटाना चाहिए ।।
इसलिए संतों की आज्ञा के अनुकूल एक ईश्वर में विश्वास करना चाहिए। वे अपने अंदर मिलेंगे, इसका दृढ़ निश्चय रखना चाहिए। सत्संग करना चाहिए, ध्यान करना चाहिए, गुरु-सेवा करनी चाहिए और झूठ चोरी, नशा, हिंसा, व्यभिचार-पंच पापों से बचकर रहना चाहिए। आज रविवार है, गुरु कीर्तन कहिए।
(स्थान-महर्षि मेँहीँ आश्रम कुप्पाघाट, भागलपुर; दिनांक-23-04-2006 ई0, साप्ताहिक सत्संग के सुअवसर पर हुआ था।)
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यह संसार मर्त्यलोक है। संसार में असंख्य प्राणी जन्म लेते और मरते हैं; परन्तु हम सबकी जयन्ती नहीं मनाते हैं। जयन्ती महापुरुषों की मनायी जाती है। आज वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को जिनकी जयन्ती मनाने के लिए हमलोग यत्र-तत्र से एकत्र हुए हैं, वे कौन थे? हमारे गुरुदेव हमलोगों के जैसे साधारण मानव नहीं थे, वे महामानव थे। नररूप में वे हरि थे। हरि ही नहीं, हरि से भी विशेष थे-संत। स्वयं हरि (श्रीराम) ने शबरीजी को नवधा भक्ति का उपदेश देते हुए कहा था-
“ सातवँ सम मोहिमय जग देखा ।
मोतें सन्त अधिक करि लेखा ।।”
अपने से विशेष को संत बतलाते हैं। संतवाणी पढ़ने पर भी यही बात सामने आती है कि सबसे बडे़ संत ही हैं। संत पलटूदासजी अयोध्याजी में हुए, उन्होंने कहा-
“ सबसे बड़े हैं संत दूसरा नाम है ।
तीजै दस अवतार उन्हें प्रणाम है ।।
ब्रह्मा विष्णु महेश सकल अवतार है ।
अरे हाँ रे पलटू, सबके ऊपर संत
मुकुट सरदार है ।।”
किसी ने जिज्ञासा की कि आपने यह बात कैसे कही? अँधेरे में टटोलकर कही या इसका कुछ आधार भी है? उसका उत्तर देते हैं-
“ बड़ा होय तेहि पूजिये, संतन किया बिचार ।।
संतन किया बिचार, ज्ञान का दीपक लीन्हा ।
देवता तेंतीस कोटि, नजर में सबको चीन्हा ।।
सबका खंडन किया, खोजि के तीनि निकारा ।
तीनों में दुइ सही, मुत्तिफ़ का एकै द्वारा ।।
हरि को लिया निकारि, बहुरि तिन मंत्र बिचारा ।
हरि हैं गुण के बीच, संत हैं गुण से न्यारा ।।
पलटू प्रथमै संत जन, दूजे हैं करतार ।
बड़ा होय तेहि पूजिये, संतन किया बिचार ।।”
हमारे गुरुदेव संत ही नहीं, संत सद्गुरु थे। संत सद्शिक्षा देते हैं और जो संत सद्गुरु होते हैं, वे सद्शिक्षा के साथ-साथ प्रभु-प्राप्ति की दीक्षा भी बतलाते हैं। आज हमारे गुरुदेव का पार्थिव पिंड नहीं है, वे स्वदेश चले गये हैं और विदेश वासियों के लिए संदेश के रूप में कुछ उपदेश दे गये हैं। उन्होंने ज्ञान-योग-युक्त ईश्वर-भक्ति की युक्ति दिया है। उन्होंने बतलाया कि सबका ईश्वर एक है और ईश्वर पाने का रास्ता भी एक ही है। जिनको संतों और संतवाणी का संग नहीं हो पाया है, वे कहते हैं, ‘जैसे दिल्ली जाने के लिए चारो ओर से रास्ता है, उसी भाँति से ईश्वर के पास जाने के अनेक रास्ते हैं। लेकिन नहीं, ईश्वर के पास जाने का एक ही मार्ग है और वह है अंतरमार्ग। मानवकृत मार्ग परिवर्तनशील होता है, पर ईश्वरकृत मार्ग अपरिवर्तनशील होता है। दिल्ली तक जाने का मार्ग मानवकृत है; लेकिन परमात्मा तक जाने के लिए ईश्वरकृत मार्ग है। परमात्मा ने आँख से देखने का, कान से सुनने का, नासिका वायु ग्रहण करने का, मुँह से भोजन करने का, नीचे की दो इन्द्रियों से मल-मूत्र विसर्जन करने का एक-एक मार्ग बनाया, यह मार्ग अटल है।
रूप देखने के लिए आँख के अतिरिक्त और इन्द्रियाँ काम नहीं कर सकतीं। भोजन ग्रहण के लिए एक मार्ग मुँह है, मुँह से ही भोजन कर सकते हैं। सुनने, गंध और मल-मूत्र विसर्जन के लिए एक-एक मार्ग नियुक्त है। उसी तरह परमात्मा के पास जाने का एक ही मार्ग नियुक्त है। कुरान शरीफ के सूरे फातिहा में लिखा है, ‘ऐ कयामत के दिन का मालिक! मुझे सीधा रास्ता दिखला।’ वह ‘सीधा रास्ता’ कौन-सा है? ईश्वर के पास जाने का सीधा रास्ता कहाँ से आरंभ होता है और कहाँ पर अंत होता है-यह जानना आवश्यक है। वेद कहता है-
“ वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।
तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यो पन्थाः विद्यतेऽयनाय ।।”
नान्यो पन्थाः-न अन्यः पन्था। और दूसरा कोई रास्ता नहीं। उस ईश्वर को पाने के लिए एक ही रास्ता है। संत तुलसी साहब कहते हैं-
“ क्यों भटकता फिर रहा तू, ऐ तलाशे यार में ।
रास्ता शहरग में है, दिलवर पै जाने के लिए ।।”
परमात्मा को पाने का रास्ता सुषुम्ना से आरंभ होता है, वही सीधा रास्ता है। वे कहते हैं, ‘इधर- उधर क्यों घूमते हो, वह तुम्हारे अंदर है।’ गुरु नानक देवजी महाराज कहते हैं-
“ काहे रे वन खोजन जाई ।
सरब निवासी सदा अलेपा, तोही संग समाई ।।”
संत कबीर साहब कहते हैं-
“ कस्तूरी कुण्डल बसै, मृग ढूढै़ बन माहिं ।
ऐसे घट में पीव है, दुनिया जानत नाहिं ।।
समझै तो घर में रहै, परदा पलक लगाय ।
तेरा साहब तुझ में, अनत कहीं मत जाय ।।”
गो0 तुलसीदासजी महाराज अपना अनुभव कहते हैं-
“ एहि तें मैं हरि ज्ञान गँवायो ।
परिहरि हृदय-कमल रघुनाथहिं,
बाहर फिरत विकल भय धायो ।।
ज्यों कुरंग निज अंग रुचिर मद,
अति मतिहीन मरम नहिं पायो ।
खोजत गिरि तरु लता भूमि बिल,
परम सुगन्ध कहाँ तें आयो ।।”
कस्तूरी मृग की नाभि में रहती है; लेकिन वह जहाँ-तहाँ ढूँढता है कि सुगन्धि आई कहाँ से? गिरि, तरु, लता, भूमि, बिल आदि में खोजने से उसे सुगंधि कहीं नहीं मिलेगी। उसी तरह सर्वव्यापी परमात्मा को खोजने के लिए अंदर चलो, तब वे मिलेंगे, अन्यथा जीवन भर बाहर में भटकते रह जाओगे।
एक नवाब था। एक दिन उसने अपने काजी से पूछा, ‘खुदा कहाँ रहते हैं, कैसे मिलते हैं, क्या करते हैं और किधर देखते हैं?’ काजी साहब ने उत्तर दिया, ‘मैंने तो केवल न्याय की पुस्तकें पढ़ी हैं। इन प्रश्नों का उत्तर कैसे दूँ?’ नवाब ने कहा, ‘तुमको एक सप्ताह का समय दिया जाता है। इसके अंदर उत्तर नहीं दोगे, तो दंडित होओगे।’ बेचारे चिंतित हुए कि अब क्या करें, किनसे पूछें? परेशान होकर बिछावन पर आकर लेट गये। उनका एक नौकर था-पाजी। पाजी ने काजी से पूछा, ‘आप चिंतित क्यों हैं?’ काजी बोला, ‘कारण जानकर क्या करोगे?’ पाजी ने उत्तर दिया, ‘हाँ, मैं समाधान कर सकता हूँ।’ नवाब के दिए हुए प्रश्नों को काजी ने पाजी के सामने रखा। पाजी ने कहा, ‘इसका उत्तर तो सरल है। आप नवाब के नाम से एक खत लिख दीजिए कि मैं जाने में असमर्थ हूँ। मेरा नौकर पाजी आपके पास जा रहा है, यह आपको उत्तर देगा।’ काजी ने पत्र लिख दिया, जिसे लेकर पाजी नवाब के पास गया। नवाब ने पत्र पढ़कर पूछा, ‘तुम मेरे प्रश्नों के उत्तर दोगे?’ पाजी ने कहा, ‘हाँ, मैं उत्तर दूँगा।’ दरबार लगा हुआ था। नवाब ने कहा, ‘उत्तर देना शुरू करो।’ पाजी ने कहा, ‘नवाब साहब! आप भी विचित्र आदमी हैं। जो प्रश्न पूछता है और जो उत्तर देता है, दोनों के बैठने के स्थान में अंतर होना चाहिए। मैं उत्तर दूँगा, इसलिए हमको ऊपर बैठाइए।’ नवाब साहब ने सोचा, थोड़ी ही देर में इसकी जान जाएगी ही, थोड़ी देर के लिए अपनी ही गद्दी पर बैठा देता हूँ। जहाँ पर काजी बैठते थे, वहाँ नवाब साहब स्वयं बैठ गये। पाजी ने निवेदन किया, ‘हुजूर! आपने प्रश्न तो काजी से किया था, उन्हें भी बुला लीजिए, तो अच्छा होगा।’ काजी को बुला लिया गया। काजी की जगह नवाब बैठा था। काजी नीचे पाजी की जगह बैठ गया। अब पाजी बोला, ‘नवाब साहब! एक धेनू गाय मँगाइए। उसके साथ बछड़ा और दूहनेवाला गोपाल भी हो।’ नवाब के आदेश से गाय, बछड़ा और दूहनेवाला उपस्थित हो गया। पाजी ने कहा, ‘कहिए, आपका प्रश्न क्या है?’ नवाब ने कहा, ‘खुदा कहाँ रहते हैं, कैसे मिलते हैं, क्या करते हैं और किधर देखते हैं?’ पाजी ने कहा, ‘एक मोमबत्ती मँगाकर उसे जलाइए।’ मोमबत्ती जलाई गयी। पाजी ने पूछा, ‘नवाब साहब! इसका प्रकाश किधर जाता है?’ नवाब, ‘इसका प्रकाश चारो तरफ जाता है।’ पाजी, ‘इसी प्रकार खुदा चारो तरफ देखते हैं।’ अब पाजी ने गोपाल से गाय दूहने कहा। गाय दूहने के बाद दूध अपने पास मँगा लिया। नवाब ने कहा, ‘दूध तुम अपने पास मँगा रहे हो, गायी मँगायी गयी थी तुम्हारे लिए? मैं जो पूछता हूँ, उसका जवाब दो।’ पाजी ने कहा, ‘वही जवाब तो मैं दे रहा हूँ। देखिए, गाय का दूध मिलता है गाय के थन से। गाय का थन तो छोटा है; लेकिन इससे दस किलो दूध उसी थन में था? नहीं, दूध गाय के संपूर्ण शरीर में था और जब दूहा गया, तो उसके थन से ही दूध निकला। उसी तरह खुदा सब जगह हैं; लेकिन खुदा जब भी मिलेंगे, तो अपने अंदर ही मिलेंगे।’ नवाब ने पूछा, ‘अच्छा, बतलाओ वे क्या करते हैं?’ पाजी ने कहा, ‘नवाब साहब! क्या बतलाऊँ, खुदा क्या करते हैं, यह भी पूछने की बात है! आप स्वयं अपनी आँखों से देख रहे हैं, जो पाजी था, उसको नवाब बना दिया; जो नवाब था, उसको काजी बना दिया और जो काजी था, उसको पाजी बना दिया। खुदा क्या नहीं कर सकते हैं?’
कहानी कहने का तात्पर्य यह कि परमात्मा सबके अंदर हैं, सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान हैं। हमलोग शास्त्र में पढ़ते हैं, ‘तमसो मा ज्योतिर्गमयः।’-हे प्रभु! हमको अंधकार से प्रकाश में ले चल। ‘असतो मा सद्गमय’-असत् से सत् में ले चल। ‘मृत्योर्मा अमृतगमय’-मृत्यु के मुख से निकाल अमृतत्व लाभ करा। इन शब्दों का मिलान करके देखिए, कितना सजा हुआ है। एक ओर तमस् (अंधकार) है, दूसरी ओर प्रकाश है। शास्त्र कहता है, ‘जबतक अंधकार में रहोगे, तबतक असत् में रहोगे और तबतक मृत्यु के मुख में रहोगे। जब तुम अंधकार से प्रकाश में जाओगे, तो असत् से सत् में जाओगे और मृत्यु के मुख से छूटकर अमृतत्व लाभ करोगे।’ लोग कहते हैं, ‘हम तो प्रकाश में ही हैं, अंधकार में कहाँ हैं?’ लेकिन विचार कर देखिये कि आपका शरीर प्रकाश में हैं या आप प्रकाश में हैं? आप शरीर के भीतर हैं, बाहर में नहीं हैं। बाहर की चीजों को आँखें खोलकर देखते हैं, भीतर की चीजों को देखने के लिए क्रिया उलट दीजिए अर्थात् आँखें बंद करके देखिए। जब आँखें बंद करके देखते हैं, तो अंधकार मालूम पड़ता है। इससे पता चलता है कि हम अंधकार में बैठे हुए हैं। अंधकार में कुछ सूझता नहीं है। इस कारण भूल-भरम होता रहता है। एक संत हुए राधास्वामी साहब, उन्होंने कहा-
“ इस नगरी में तिमिर समाना, भूल भरम हर बार ।।
खोज करो अन्तर उजियारी, छोड़ चलो नौ द्वार ।।”
जबतक नव द्वार में रहेंगे, तबतक अंधकार में रहेंगे। जबतक हम अंधकार में रहेंगे, तबतक ‘भूल भरम हर बार’ होता रहेगा, जब नव द्वार से दसवें द्वार में जाएँगे, तब अंधकार से प्रकाश में जाएँगे। अनुचित कर्म के लिए मन में सोचते हैं कि ऐसा काम नहीं करना चाहिए। लेकिन मौका पाकर वह काम कर लेते हैं, क्यों? इसलिए कि हम अंधकार में हैं अर्थात् अज्ञानता में हैं। अंधकार से प्रकाश में कैसे जाएँगे? श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय 8/9 में है-
“ कविं पुराणमनुसासितारमणोरणीयां समनुस्मरेद्यः ।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।।”
अंधकार से परे प्रकाश है। अंधकार से प्रकाश में जाओ। हमलोग जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति; इन तीनों अवस्थाओं में प्रतिदिन जाते-आते रहते हैं। जिस समय जाग्रत में रहते हैं, उस समय स्वप्न और सुषुप्ति का ज्ञान नहीं रहता है। जब स्वप्न में जाते हैं, तो जाग्रत, सुषुप्ति का ज्ञान नहीं रहता है। जब सुषुप्ति में जाते हैं, तो जाग्रत और स्वप्न का ज्ञान नहीं रहता है अर्थात् जिस अवस्था में रहते हैं, उसी अवस्था का ज्ञान रहता है। इसलिए अज्ञान की अवस्था से ज्ञान की अवस्था में अपने को ले चलो। आँखें बंद करने पर जो अंधकार मालूम पड़ता है, उसी अंधकार में प्रकाश तक जाने का रास्ता है। वह रास्ता कौन बतावेगा? तो संत तुलसी साहब कहते हैं-
“ मुर्शिदे कामिल से मिल, सिद्क और सबूरी से तकी ।
जो तुझे देगा फहम, शहरग के पाने के लिए ।।”
जो पहुँचे हुए संत-महात्मा हैं, उनके पास जाओ। वे शहरग अर्थात् सुषुम्ना का बतलाएँगे। उसको छठा चक्र और आज्ञाचक्र भी कहते हैं। उसका नाम ही आज्ञाचक्र है। जो उस चक्र में पहुँचते हैं, वहाँ उसको प्रभु की आज्ञा मिल जाती है कि अब हमारी आ जाओ। जबतक हम आज्ञाचक्र में नहीं जाते, तबतक आने की आज्ञा नहीं होती। जब सुरत दसवें द्वार में जाएगी, तब आज्ञा मिलेगी। संत राधास्वामी साहब कहते हैं-
“ सहस कँवल चढ़ त्रिकुटी धाओ,
भँवरगुफा सतलोक निहार ।
अलख अगम के पार सिधारो,
राधास्वामी चरण सम्हार ।।”
गुरु नानकदेवजी महाराज ने कहा-
‘एक द्रिसटि करि समसरि जाणै जोगी कहिअै सोई ।’
केवल जोगी का वेश बना लेने से कोई योगी नहीं होता। जो अपनी दृष्टि को एक कर पाता है, वही असली योगी है। बाइबिल में लिखा है, ‘यदि तेरी आँख एक हो, तो तेरा सारा शरीर उजियारा होगा और अगर तेरी आँख बुरी है, तो देखो तुम्हारे अंदर अंधकार का कितना बड़ा साम्राज्य है।’ अंधकार के साम्राज्य को जो पार करेंगे, उसी को प्रकाश मिलेगा। दृष्टियोग की साधना से अंतःप्रकाश मिलता है और जिसको अंतःप्रकाश मिल जाता है, उसे नादानुभूति होती है। हमारे गुरुदेव कहते हैं-
“ नाद से नादों में चलि धरु प्रणव सत ध्वनि सार ।
एक ओम् सत नाम ध्वनि धरि मेँहीँ हो भव पार ।।”
जो अंतःप्रकाश को पाता है, उसे अंतर्नाद सुनाई देता है। वह अंतर्नाद परम प्रभु परमात्मा तक पहुँचा देता है; क्योंकि नाद में अपनी ओर आकर्षण करने का गुण होता है। अँधेरी रात हो, आप एक जगह खड़े होकर तू-तू की आवाज दीजिए, कुत्ता आपकी आवाज सुनकर आपके पास आ जाएगा। जो परमात्मा की ओर से ॐ, स्फोट, उद्गीथ, प्रणव ध्वनि की आवाज आ रही है, उस आवाज को आप सुनेंगे, तो आप किधर जाएँगे? परमात्मा की आवाज सुनकर परमात्मा के पास जाएँगे। इसके लिए घर-वार, परिवार-रोजगार छोड़ने की जरूरत नहीं है। घर-वार, परिवार, रोजगार में रहकर भी इस साधना को कर सकते हैं। यह सरल और सुगम साधना है। जैसे कोई रोगी डॉक्टर के पास जाता है, तो डॉक्टर साहब रोग के अनुसार दवाई लिख देते हैं और परहेज भी बतला देते हैं; उसी तरह प्रभु पाने का रास्ता तो मिल गया, इसके लिए संयम भी आवश्यक है। गुरु महाराज संयम बतलाते हैं-‘झूठ मत बोलो, चोरी नहीं करो, किसी नशीली चीज का सेवन नहीं करो, हिंसा नहीं करो, परस्त्री-परपुरुष-गमन नहीं करो। इन पंच पापों से बचते रहो, तब क्या होगा? गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं-
“ सूचै भाड़ै साँचु समावै बिरले सूचाचारी ।
तंतै कउ परम तंतु मिलाइआ नानक सरणि तुमारी ।।”
पवित्र बर्तन में सत्य अँटता है। जब हृदय पवित्र होगा, तब परम प्रभु परमात्मा की प्राप्ति होगी। वेद कहता है कि संसार में सभी मेल से रहो, प्रेम से बातचीत करो। यहाँ जात-पात की कोई बात नहीं है।
“ जाति पाँति पूछै नहिं कोई ।
हरि को भजै सो हरि का होई ।।”
‘हिन्दू मुस्लिम सिक्ख ईसाई। जैन बौद्ध सब भाई-भाई।।’ परमुखापेक्षी मत बनो। अपने जीवन- यापन के लिए कुछ-न-कुछ पवित्र कमाई अवश्य करो। यह संतमत का थोड़ा सार आपलोगों के सामने कहा। आपलोग दूर-दूर से कष्ट झेलकर यहाँ आए हुए हैं। मैं सबको बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूँ और सबकी मंगलकामना करता हूँ। दिनांक-12-5-2006, स्थान: महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर में महर्षि मेँहीँ जयन्ती के अवसर पर हुआ था। (शान्ति-सन्देश, जून 2006)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
श्रीमदाद्य व्यासदेवजी ने अठारह पुराणों की रचना की है। उन पुराणों में महाभारत प्रसिद्ध हुई। महाभारत के अठारह पर्व हैं, उन अठारह पर्वों में एक पर्व का नाम भीष्मपर्व है। भीष्मपर्व के अंतर्गत सात सौ श्लोकों का चयन करके श्रीमद्भगवद्गीता की रचना हुई। यह पुस्तिका तो बहुत छोटी है; परन्तु बहुत उपयोगी है। प्रायः सभी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है और आए दिन अनुवाद हो रहे हैं। श्रीमद्भगवद्गीता के आरंभ में ही प्रसंग आया है। कौरव-पाण्डव दोनों तरफ की सेना-योद्धा आमने-सामने खड़े हुए, तो अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा कि भगवन्! आप मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में लाने की कृपा करें, ताकि देख सकूँ कि किनसे-किनसे युद्ध करना है!
भगवान ने वैसा ही किया। अर्जुर्न रथ पर खड़ा हो गया। अर्जुन ने दोनों पक्षों को देखा। दोनों पक्षों में स्वजन-संबंधी ही नजर आए। फिर बैठ गये और भगवान से कहा-मैं युद्ध नहीं करूँगा। दोनों पक्षों में अपने ही स्वजन संबंधी लगते हैं। युद्ध के सामने में मेरे जो गुरुदेव हैं, जिन्होंने मुझे धनुर्विद्या सिखायी, आचार्य द्रोण खड़े हैं युद्ध के लिए। जिन्होंने मुझे गोद में खेलाया, मेरे दादा भीष्म पितामह युद्ध करने के लिए तैयार हैं। मेरे चाचा हैं, ताऊ हैं, भाई हैं, भतीजे हैं, मामाजी हैं; युद्ध में इन सबको मारकर रक्तरंजित राज्य करना ठीक नहीं है। युद्ध में ये सब मारे जाएँगे और असमय में ही इनकी धर्मपत्नियाँ विधवा हो जाएँगी। परिणाम संकटमय होगा। इन लोगों का क्रिया-काम करनेवाला कोई न रहेगा। जो हमलोगों का सनातन धर्म है, वह लुप्त हो जाएगा। इसलिए मैं युद्ध नहीं करूँगा।
भगवान कृष्ण ने कहा-अर्जुन! पापाचारी को मारने में पाप नहीं लगता है, ये अत्याचारी हैं। तुम युद्ध करो। तुम जो कहते हो, युद्ध नहीं करूँगा। मैं कहता हूँ-तुम युद्ध करो। वह समय आएगा, जब तुम युद्ध करने के लिए तैयार हो जाओगे। किसी को कहने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी तुमको कि युद्ध करो। अर्जुन ने कहा-यह कैसे हो सकता है। आप क्या कह रहे हैं, मैं नहीं समझ रहा हूँ। भगवान कृष्ण ने कहा-देखो, क्षत्रिय का धर्म युद्ध में पीठ दिखाना नहीं है। जैसे ही तुम युद्ध के मैदान से बाहर जाओगे, तुम्हारे प्रतिद्वन्द्वी तुम्हारी निंदा करेंगे। आया था वीर-बहादुर बनकर युद्ध करने के लिए और हमलोगों को देखकर भाग गया। वह तो कायर है, नपुंसक है। भयभीत होकर चला गया, वह क्या युद्ध करेगा! जब लोग तुम्हारी निंदा करने लगेंगे, उस निंदा को तुम नहीं सह सकोगे और साधारण पुरुषों में तुम्हारी गणना नहीं है, महापुरुषों में है। महापुरुषों की बेइज्जती, निंदा, अपयश मृत्यु के तुल्य होता है। बल्कि श्रेष्ठजन मृत्यु वरण करना पसंद करते हैं, लेकिन अपयश सुनना पसंद नहीं करते।
इसलिए तुम युद्ध करो। अर्जुन ने कहा कि युद्ध करने से हिंसा का पाप होगा। भगवान कृष्ण ने कहा-तुम अपने को मुझपर न्योछावर कर दो और युद्ध करो। तुमको पाप नहीं लगेगा। देश, काल और पात्र के अनुकूल विचार किया जाता है। एक सिपाही है। उसके पास राइफल है। देश की सीमा पर तैनात है। वह जब दुश्मनों से युद्ध करता है और पचास को मार डालता है, तो उसका महावीर चक्र इनाम मिलता है। वही राइफलधारी, वही वर्दी है, पर देश के किसी व्यक्ति को एक गोली मार दिया, तो उसको सजा हो जाता है। वक्त ही है, राइफल वही है, गोली वही है; लेकिन देश-काल-पात्र के अनुसार चलना होता है।
तुम्हारा धर्म है युद्ध करने का। स्वधर्म के लिए मर जाना श्रेष्ठ है। तुम क्षत्रिय हो, युद्ध करो। वास्तव में ये जो एक भौतिक पौराणिक इतिहास बतलाया गया हो, वस्तुतः हमारे अंदर ही हमारे शत्रु हैं। उसको मारना प्रत्येक साधक का पुनीत कर्तव्य होता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य-ये सब जो विकार हैं, हमारे अंदर हैं। इसलिए कबीर साहब पते की बात कहते हैं-
पाँच पचीसो मारिया, पापी कहिये सोय ।
यह परमारथ जानिके, पाप करो सब कोय ।।
पाँच पचीसों को मारने में पाप नहीं है। मारने में पाप है; लेकिन पाँच पचीसो के बाद, इसलिए यह पाप करो। संत पलटू साहब ने कहा-
खोल राज तो पुत चढ़े मैदान पर,
जाय के पाँच पचीस मारै।
काम क्रोध ये दुष्ट बड़े हैं,
जानिके ले धनुष टारै।
कूद पड़े जाय के काया में है,
हाथ कटाय के भोग डारै।
मन को जीतने के लिए कहा जाता है। मन के ऊपर विजय प्राप्त करने के लिए कहा जाता है। भगवान महावीर, भगवान बुद्ध-सबकी वाणी एक है। उन्होंने कहा है-यदि संग्राम में कोई हजारों आदमियों को मार दे, उससे कड़ी संग्राम वह है, जो अपने आपको पीट दे। जो अपने-आपसे युद्ध करता है-मैं-मैं करता है, वह मैं कौन है? जब लक्ष्मण का युद्ध हो रहा था लंका में, तो बड़ी लंबी-चौड़ी बात मेघनाद कहता था। लक्ष्मणजी ने कहा-
बकरी जब मैं-मैं करती है,
तो गले में छुरी चलती है।
मैं-ना मैं-ना मैना कहती है,
वह सबको प्यारी लगती है।
इसलिए अपनी कुर्बानी करो, अपने को चढ़ा दो। गीता के अठारहवें अध्याय में भगवान ने अर्जुन से कहा है-
सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्मामि मा शुचः ।।
हे अर्जुन! सभी धर्मों को छोड़कर मेरी शरण में आ जाओ। मैं तुझे पापों से मुक्त कर दूँगा। क्या अर्जुन, भगवान की शरण में नहीं थे! शरीर से तो शरण में था; किन्तु श्रीमद्भागवत में जो नवधा भक्ति आई है ‘आत्मनिवेदनम्’, वह ‘आत्मनिवेदनम्’ नहीं था। सब धर्मों को छोड़ दोगे तो क्या करोगे, पाप कर्मों को करोगे। नहीं, हमारी जो इन्द्रियाँ हैं, हम इन्द्रियों के घाट में बसे हैं, स्वधर्म में बसे हुए हैं एवं हम मौन हैं। यह जानें कि जो मैं-मैं कहता है, वह अहं है; लेकिन वास्तव में मैं कौन हूँ?
आमी आमी करी बुझिते ना पारी ।
के आमी आमाते आछे की रतन ।
कोन शक्ति बले बेड़ाय चले बोले ।
कारे आभावे होय देह अचेतन ।
देहे माँझे आछे प्राणेरि संचार ।
ताहा तेहि बले आमी बा आमार ।
प्राण गेलेन चले होवे शवाकार ।
केवाकार कोथाय रवे धन जन।।
संतजन कहते हैं-अहं को छोड़ो। अपनी पहचान करो, तुम कौन हो? तुम्हारा क्या कर्तव्य होना चाहिए। उसको जानो।
को मैं आया कहाँ से कित जाना क्या सार ।
को मम जननी को पिता याको कहिये विचार ।।
विचार कीजिए-मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, कहाँ जाना है, क्या सारतत्त्व है, कौन मेरे पिता हैं, कौन मेरी माता है? कभी सोचा। जो हम देखते हैं, ये तो शरीर को जन्म देनेवाले माता-पिता हैं; लेकिन हमारे माता-पिता कौन हैं? हम अपने को पहचानें। जबतक शरीर का ज्ञान रहेगा, शरीर-संबंधी इन्द्रियों का ज्ञान रहेगा, तबतक आत्मदर्शन बहुत दुर्लभ है। इन्द्रियों का संग छोड़कर आत्मा में धारण करें। अन्य समय नहीं, तो कम-से-कम ध्यान करने के समय ही। हमलोग ध्यान करने के लिए बैठते हैं और कहते हैं-जाप में मन नहीं लगता है। मन किसका है? मन तो किसी का, दूसरे का पैंचा-उधार करके नहीं लाये हैं। मन तो हमारा ही है, तो कैसे कहते कि मन नहीं लगता है। जब आपका मन है, तो आपकी बात क्यों नहीं मानता। अगर आपकी बात नहीं मानता है, तो आपका मन कैसा?
मन तू मानत क्यों न मना रे ।
कौन कहन को कौन सुनन को, दूजा कौन जना रे ।।
दर्पन में प्रतिबिम्ब जो भासै, आप चहूँ दिसि सोई ।
दुबिधा मिटै एक जब होवै, तौ लखि पावै कोई ।।
जैसे जल तें हेम बनतु है, हेम धूम जल होई ।
तैसे या तत वाहू तत सों, फिर यह अरु वह सोई ।।
जो समुझै तो खरी कहन है, ना समुझै तो खोटी ।
कहै कबीर दोऊ पख त्यागै, ताकी मति है मोटी ।।
भगवान श्रीकृष्ण भी यही कहते हैं कि सब धर्मों को छोड़ो। इन्द्रियों के कर्मों को छोड़ो, तो अपने धर्मों में आओ। जिस समय हमलोग सोने के लिए जाते हैं। अगर मन में कोई-न-कोई बात रहेगी, तो नींद नहीं आएगी। उसी बात को सोचते हैं। जब ये सारी बातें भूल जाते हैं हम, तब नींद आती है। उसी तरह ध्यान करने के लिए बैठते हैं, विविध बातें आती हैं। जबतक पूरी बातें विलीन नहीं हो जातीं, तबतक ध्यान नहीं बनेगा।
वचन-प्रवचन करने के लिए हम बहुत कर सकते हैं; लेकिन उससे कोई लाभ नहीं है। आत्मलाभ नहीं होता, शारीरिक लाभ होगा-लोग दान-पुण्य करेंगे, प्रणाम करेंगे, भेंट चढ़ाएँगे, खिलाएँगे, पिलाएँगे, सेवा-सत्कार करेंगे। उससे शारीरिक यात्र होती है, लेकिन आंतरिक यात्र के लिए अपने अंदर चलना होगा। उसके लिए सब कुछ छोड़ना पड़ेगा, नहीं तो ध्यान करने के लिए बैठेगा, तो सोचेगा यही बात कि प्रवचन में क्या-क्या कहना है। आज का यह विषय है, इस विषय पर यह कहना है। विषय को सोचते रहते हैं। निर्विषय को पकड़ना है, तो इसको छोड़ना होगा। अंतर में ‘ध्यानं निर्विषयं मनः’ मन को निर्विषय करके ध्यान कीजिए। जबतक मन विषयों में रहेगा, तबतक ध्यान कहाँ! ध्यान तो योग का सातवाँ अंग है। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। सही ढंग से यम-नियम का पालन नहीं है, तो आसन सिद्धि नहीं होगी। एक आसन पर देर तक नहीं बैठ सकते। बैठेंगे नहीं, तो भजन नहीं बनेगा। कहावत है-‘बैठे चूत तो निकले सूत।’
चरखा कातने के लिए बैठते हैं, सूता कातते हैं। जितनी अधिक देर तक बैठेंगे, उतना अधिक सूता निकलेगा। जितनी कम देर बैठेंगे, उतना कम सूता निकलेगा। उसी तरह से ध्यान में बैठने के लिए आसन सिद्धि चाहिए और जबतक यम-नियम का पालन नहीं, तबतक आसन सिद्धि नहीं होगी। पाँच यम हैं। यम-नियमों का पालन करना होगा, तब आसनसिद्धि होगी। तब प्राणायाम-प्राण का व्यायाम। तब प्रत्याहार-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार। मन लगाते हैं, मन भागता है। मन लगाते हैं, मन भागता है। संत कहते हैं-
जहाँ मन हमारा भागता है, तुरत समेटें। मन में कोई बात आएगी, तुरत बाहर निकाले। वह एक लक्ष्य पर लगाओ। अपने को लक्ष्य पर लगाकर बारम्बार करते रहिए, तो धीरे-धीरे प्रत्याहार से धारणा। प्रत्याहार का मतलब प्रति+आहार। जो उत्पन्न हुआ, सो खा जाइए। अगर इसको आप नहीं खाएँगे, तो वह आपको खा जाएगा। यह प्रतिहार में पहले हारना नहीं है। जो प्रत्याहार में हार जाएगा, वह धारणा कभी नहीं कर सकेगा। जो प्रत्याहार में नहीं हारेगा, उसी को धारणा होगी और जब वही धारणा देर तक होती है, तब ध्यान होता है। ध्यान में पहले स्थूल ध्यान होता है, फिर सूक्ष्म ध्यान होता है। स्थूल ध्यान में मानस ध्यान है। जो इस तरह इष्ट के रूप का ध्यान करना, वह मानस ध्यान है। मानस जप करना, मानस ध्यान करना; यह स्थूल साधना है। इन दोनों में कुशलता प्राप्त होने पर तो सूक्ष्म ध्यान का आरंभ होता है और वह सूक्ष्म ध्यान दृष्टियोग से आरंभ होता है। दृष्टि हमारी फैली हुई है, फैली हुई दृष्टि को समेटकर लक्ष्य पर लगाएँ। सुरत लक्ष्य पर नहीं जाता, इसके लिए अभ्यास करना होता है। बहुत अभ्यास करना होता है। एक बार आचार्य द्रोण कौरव-पाण्डवों को लेकर जंगल में गए घुमाने के लिए और डाल पर लकड़ी की चिड़िया बाँध दिया। क्रम-क्रम से सबसे पूछा गया कि निशाना करो-चिड़िया की आँख पर। जब मैं कहूँगा, तब तीर चलाना। द्रोण ने वृक्ष पर बैठी हुई चिड़िया की ओर संकेत कर अर्जुन के अतिरिक्त सब भाइयों को लक्ष्य वस्तु पर निशाना करने कहा। बारी-बारी से लक्ष्य करते समय द्रोण उन सबसे पूछते जाते थे- “ कहो, क्या देखते हो?” एक ने कहा- “ वृक्ष, डालियों तथा पत्तों के सहित चिड़िया।” आचार्य ने उसे हटाकर दूसरे से पूछा- “ तुम क्या देखते हो?” दूसरे ने उत्तर दिया- “ डालों के सहित पक्षी को।” एवं प्रकार से एक-एक करके सबसे पूछते गये; किन्तु किसी ने ठीक उत्तर नहीं दिया, तब अन्त में अर्जुन को लक्ष्य पर निशाना करने कहा और पूछा- “ तुम क्या देखते हो?” उन्होंने उत्तर दिया- “ मैं केवल चिड़िया को देख रहा हूँ, इसके अतिरिक्त और कुछ नजर नहीं आता।” आचार्य ने कहा- “ तुम्हारा निशाना ठीक है।” निशाना इसी प्रकार होना चाहिए।
उपर्युक्त घटना के पहले ही एक बार द्रोण ने स्वयं अपने निशाने का परिचय दिया था। एक बार कौरव तथा पाण्डव सब भाई मिलकर गेंद खेल रहे थे। संयोगवश गेंद कुएँ में गिर पड़ा। अब इन लोगों को कुएँ से गेंद निकालने का कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। उसी समय द्रोण उसी होकर वहाँ आ निकले। इन लोगों ने उनसे गेंद निकाल देने की प्रार्थना की। द्रोण ने एक सींकी से गेंद में मारा। पुनः सींकी के पेंदे में दूसरी सींकी से, एवं प्रकार सींकी के पेंदे को सींकी से छेदते हुए कुएँ के ऊपर तक सींकी का छोर लगा लिया और गेंद को निकालकर उन लोगों को दे दिया।
सींकी के पेंदे में सींकी मारना दृष्टि को कितना महीन करना है! इनकी दृष्टि कितनी सिमटी हुई थी! अपनी दृष्टि को इस प्रकार सूक्ष्म बनाओ, इतना कह देने पर भी गुरु संकेत की आवश्यकता रह जाती है-
‘कहै कबीर चरन चित राखो, ज्यों सूई बिच डोरा रे।’
गगन की ओट निसाना है ।
दहिने सूर चन्द्रमा बायें, तिनके बीच छिपाना है ।।
तन की कमान सुरत का रोदा, सब्द बान ले ताना है ।
मारत बान बिँधा तन ही तन, सतगुरु का परवाना है ।।
मार्यो बान घाव नहिं तन में, जिन लागा तिन जाना है ।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, जिन जाना तिन माना है ।।
(स्थान-महर्षि मेँहीँ आश्रम कुप्पाघाट, भागलपुर; दिनांक-4-6-2006 ई0, साप्ताहिक सत्संग के सुअवसर पर हुआ था।)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
अभी आपलोग माया के संबंध में सुन रहे थे। माया किसको कहते हैं? माया में दो अक्षर होते हैं-मा और या। ‘मा’ का अर्थ होता है-नहीं और ‘या’ का अर्थ होता है-जो। जो नहीं है, उसको माया कहते हैं-वास्तव में माया का अस्तित्व नहीं है। अस्तित्व ब्रह्म है; लेकिन तुलसीदासजी ने बतलाया है-
रजत सीप महँ भास जिमि, यथा भानु कर वारि ।
जदपि मृषा तिहुँ काल सो, भ्रम न सकइ कोउ टारि ।।
सूर्य की किरण जब सीपी पर पड़ती है, तो वह चाँदी-सी भासती है। वास्तव में सीपी चाँदी नहीं है, सीपी, सीपी ही है; लेकिन वह चाँदी-सी भासती है। सूर्य की किरण जब रेतीले मैदान पर पड़ती है, वहाँ जल-सा भासता है; लेकिन वहाँ जल है नहीं। यद्यपि मिथ्या है; लेकिन भ्रम को कोई टाल नहीं सकता है। ‘भ्रम न सकइ कोउ टारि।’ सूर्य की किरण में जल था, न है, न होगा। सीपी में चाँदी है, न था, न होने को है; लेकिन सीपी चाँदी-सी मालूम पड़ती है। रेतीले मैदान में सूर्य की किरण से पानी मालूम पड़ता है। यद्यपि भ्रम है, नहीं है, उसका अस्तित्व ही नहीं है। लेकिन अगर प्राणी मृग की भाँति उसी में जल ढूँढ़ते हैं, तो उसे जल नहीं मिलेगा। कह सकेंगे कि नहीं है, फिर वह क्यों मालूम पड़ रहा है और जब वह है ही नहीं, तो प्रमाण क्या दे सकता है। यद्यपि असत्य है ही। यद्यपि मिथ्या है, फिर वह दुःख क्या दे सकता है! गोस्वामीजी ने लिखा है-‘यद्यपि असत्य देत दुख अहई।’ दुःख देती है माया। यह कैसे?
उपमा के लिए एक लघुकथा सुनाता हूँ-बहुत जमाने पूर्व की बात है। उन दिनों हैजा का रोग बहुत होता था और हैजा में बहुत लोग मरते थे। इतने लोग मरते थे, तो उसको जलावेगा कौन? नदी किनारे फेंक आता था। एक गाँव में इसी तरह हैजा प्रवेश कर गया, लोग मरने लग गए। लोग उठा-उठाकर नदी किनारे फेंक आते थे।
बूढ़े-बुजुर्ग, नौजवान बैठकर आपस में बातचीत करने लगे कि अब हमलोगों को क्या करना चाहिए। इतने लोग मरते हैं, किसी का जलाया जाता है नहीं, वह तो भूत बनकर आएगा, हमलोगों को खाएगा। बूढ़े-बुजुर्ग में एक-दो नौजवान भी बैठे हुए थे। एक नौजवान ने कहा कि आपलोग चिंता क्यों करते है। अरे! हम पढ़े हैं विद्यालय में-भूत, वर्तमान, भविष्यत्-ये तीन काल होते हैं। काल्ह-काल्ह जो कहते हैं, तो भूत काल्ह है। भूत का मतलब है, जो बीत गया। भविष्य जो आनेवाला है। वर्तमान जो हो रहा है। इसमें चिंता की क्या बात है। भूत पकड़ लेगा कैसे, भूत तो है ही नहीं। पकड़ेगा क्या! एक दूसरा नौजवान उसी में बैठा हुआ था। वह कहता है, यहाँ पर आकर सिखलाते हो भूत। अरे! प्रेत हो जाता है, प्रेत। उसे तो प्रेत कहते हैं, वह इस लोक में नहीं है, उस लोक में चला गया। उसको कहते हैं प्रेत। उस भूत का अस्तित्व कहाँ है, कुछ है ही नहीं। दोनों नौजवान में बातें बढ़ने लगीं। उसने कहा-अच्छा, तो भूत नहीं है, प्रेत नहीं है, तो बारह बजे रात में श्मशान घाट में जा सकते हो अकेले। नौजवान था, बोला-हाँ, क्यों नहीं। जब अस्तित्व ही नहीं भूत-प्रेत का, तो वह क्या करेगा! अच्छा, हम देखेंगे कि तुम जाते हो कि नहीं। कहा कि देख लेना तुम। दिन में बात हुई।
जब संध्याकाल हुआ, तो इसके मन में हुआ कि अगर वह शाम में ही घूम के आ जावे और कहे कि हम आधी रात में गए, इसका क्या सबूत है, इसकी परख कैसे हो-वह गया कि नहीं! रास्ते में एक वृक्ष पड़ता था। वह वृक्ष पर चढ़ गया। अँधेरा होने लगा। ज्यों-ज्यों अँधेरा होने लगा। उस वृक्ष पर बैठकर सोच रहा है, देखें, कब जाता है! अब होता क्या है, उसके मन में होता है कि भाई! अगर कोई वृक्ष के नीचे से जानवर चला गया, पत्ता खड़खड़ा दिया, तो आदमी गया कि जानवर, कौन गया, इसका विश्वास कैसे होगा। क्यों न उसी श्मशानघाट में जाकर छिप जाएँ। वह आता है श्मशानघाट और मुर्दों के बीच में छिप जाता है। वह आएगा, तो श्मशानघाट ही आएगा।
जब आधी रात हो गई, तब इनको याद आया कि हमको श्मशानघाट जाना है। वह नौजवान, मजबूत और साहसी था। हाथ में एक मजबूत डंडा लिया और कहा कि चलो, देखें कहाँ पर भूत है! श्मशानघाट में पहुँचकर जहाँ से जहाँ तक मुर्दा था, वह यहाँ से वहाँ तक घूमता है। वह कहता है-कहाँ है भूत, चलो। कहाँ है प्रेत, आओ। देखें, तुम कहाँ छिपा हुआ है? जो जाँच करने के लिए गया था, वह जहाँ पर लाशें थीं, उसी के बीच में जाकर सो गया कि देखें, वह कब आता है!
यह चारो ओर घूम लिया और लौटने लगा। जब लौटने लगा, तो इसके मन में हुआ कि हम जाकर कहेंगे कि दोपहर रात में हम गये थे, तो वे कहेंगे कि इसका क्या प्रमाण है या यह कहेंगे कि शाम में लौट आए हो तो? इसके कमर में डंडाडोर (करधनी) था। खोल लिया डंडाडोर और पाँच मुर्दे को एक-एक करके जुटाकर बाँध दिया। जब चलने लगा, तब उसने सोचा कि अगर रात में सियार-कुत्ता आकर लाश को इधर-उधर कर दे, फिर तो हम झूठे हो जाएँगे। अब उस डंडाडोर को खोलकर हाथ में बाँधता है। एक को वह बाँधता है और जो जवान गया था इसकी रखवाली करने के लिए कि वह आता है कि नहीं आता है, वह तीसरे नम्बर पर था। यह क्या करता है कि अपना हाथ उठाता है। अब श्मशानघाट में हो, मुर्दा हाथ उठावे, तो जैसे ही हाथ उठाया, मारा एक डंडा कि तुम्हारी अभी बारी नहीं है। पहले को बाँध रहा हूँ, दूसरे को बाँधूँगा, तब तुमको बाँधूँगा। पहले को बाँध दिया, दूसरे को बाँध दिया। अब बेचारे क्या करे, कुछ करेगा तो डंडा लगेगा। क्रम-क्रम से तीसरे और चौथे को बाँध दिया। जब पाँचवें को बाँधने लगा, तो महिला थी। उसने सोचा कि महिला को बंधन देना ठीक नहीं। चार का ही नाम बतलाऊँगा कि वहाँ जाकर मैंने चार को ही बाँधा है। वह चला गया। इधर यह बेचारा लाश के बीच से उठ-पुठकर चला आया अपना घर।
अब यहाँ क्या होता है, जिसने सूता बाँधा था मुर्दों के हाथ में वह अपना घर पहुँच जाता है और अपने कमरे में जाकर सो जाता है। एकाएक लघुशंका लगती है, तो किवाड़ी खोलकर वह बाहर निकलता है। उसकी बहन जग गई उस समय। उसकी बहन के मन में हुआ कि दिन में हमारे भैया ने जो बात की है, उसे पूरा करने के लिए वह श्मशानघाट जाएगा। अकेले कहीं डर न जाए, तो मैं साथ हो लूँगी कि भैया! मैं तेरे साथ हूँ। वह तो उठा लघुशंका करने के लिए। देहात में बाहर में जाकर दरवाजे पर लघुशंका करने लगते हैं। इधर उसकी बहन इसके पीछे-पीछे चली, जब देखा कि वह बैठ गया, तो वह खड़ी हो गई। अब जब वह लघुशंका करके उठा है और उलटकर आना चाहता है, अँधेरी रात थी ही, एकाएक नजर बहन जो खड़ी थी, उसपर पड़ी। वह बोला कि अरे! असल में भूत होता है, जिसको मैंने नहीं बाँधा था महिला जानकर, वही मेरे पीछे-पीछे आ गयी है। वह वहीं पर मूचिर््छत होकर गिर जाता है। ‘यद्यपि असत्य’, वहाँ तो भूत नहीं, उसकी बहन थी; लेकिन भ्रम हो गया। ‘यद्यपि असत्य देत दुख अहई’। उसी तरह से जो माया कहने के लिए है माया, वास्तविक में अस्तित्व ही नहीं है। ‘ब्रह्म सत्य जगत् मिथ्या’। ब्रह्म जो है, परमात्मा जो है, वह सत्य है और इसके अतिरिक्त जो कुछ भी है, सब भ्रम है। देखने में आता है, वास्तव में वह है ही नहीं। उसी तरह से माया देखने में आती है कि है; लेकिन वह है नहीं। संत लोग कहते हैं-
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
यह भगवान श्रीकृष्ण का महावाक्य है। जो सत्य है, वह त्रयकाल अबाधित है। सत्य था, है और होगा और जो असत्य है, उसका अस्तित्व ही नहीं है। इसलिए जो सत्य है, उस सत्य को पकड़ो; जो वह शाश्वत है, उस शाश्वत को पकड़ो। जो माया है, माया को पकड़ोगे, तो वह देखने में आता है, पर है नहीं। क्षणभंगुर है, नाशवान है, मिथ्या है; लेकिन जो ब्रह्म है, वह था, है और रहेगा। इसलिए जो उससे सुख मिलेगा, वह शाश्वत सुख मिलेगा। शाश्वत का अंत ही नहीं है और वह शाश्वत सुख अपने अंदर ध्यान करने से मिलेगा। जो अंदर प्रवेश करते हैं, वैसे शान्ति मालूम पड़ती है। साधारण, निरक्षर आदमी की बात नहीं है, यह संत की बातें है। बहुत चिंता है, नींद नहीं आती है, करवट बदल रहे हैं, लेकिन जिस समय नींद आने लगती है, हाथ में अगर पुस्तक रहती है, तो वह पुस्तक हाथ से गिर जाती है। मतलब आपकी जो शक्ति थी, वह सिमट गई। देखने की शक्ति थी, पुस्तक देखकर पढ़ते थे, वह शक्ति भीतर चली गयी। इसलिए जितनी इन्द्रियाँ हैं, सबकी शक्ति भीतर की ओर एकत्रित होती हैं। बाहर का ज्ञान छूट जाता है, उस समय अगर कोई जगा देता है, तो बहुत दुःख होता है, उस समय तो बिल्कुल जगना नहीं था, नींद में आनंद आ रहा था। किसी से भेंट नहीं होती थी, किसी से बातचीत भी नहीं होती थी; लेकिन फिर भी आराम मालूम पड़ता था, सुख मालूम पड़ता था और जगा देने से दुःख हो जाता है। जैसे हम भीतर की ओर जाते हैं, वैसे हम सुख की ओर जाते हैं। तो हम भीतर की ओर कहाँ तक जाएँ? संत दादू दयालजी ने कहा-
सून्नी सून्न शून्य के पारा, अगुण सगुण नहिं दोई।
‘सून्नी सून्न शून्य के पारा’ तीन शून्य के पार जाओ। वह तीन शून्य, किसके पार जाएगा। वह तीन शून्य-अंधकार का शून्य, प्रकाश का शून्य, तीसरा शब्द का शून्य। इन तीनों शून्यों को पार कीजिए, तब वह परम प्रभु परमात्मा की प्राप्ति होगी, अन्यथा नहीं। उससे जो सुख मिलेगा, वह शाश्वत सुख मिलेगा, कभी अलग होनेवाली नहीं है। इसलिए संतमत में ईश्वर की भक्ति बतलायी है, ईश्वर की भक्ति करो। इसके लिए घर-वार, परिवार, रोजगार छोड़ने की जरूरत नहीं है। अपने घर-परिवार, रोजगार में रहकर जैसे हमलोग सब काम करते हैं, वैसे हम भगवद्भजन भी करें।
जब भगवान बुद्ध को तत्त्व (बुद्धत्व) लाभ हो गया, तब वह गये अपने घर पर भिक्षाटन करने के लिए। जैसे दरवाजे पर जाते हैं, टेर लगाते हैं-‘भिक्षाम् देहि।’ दो बार कहा, तीन बार कहा, तो उनके पिता शुद्धोधन ने आवाज सुनी। मालूम पड़ता है कि यह जानी-पहचानी आवाज है। वह अपने हवेली से बाहर निकलते हैं और देखते हैं तो पुत्र है। उसने कहा-‘अरे! भीख माँगने के लिए किसने सिखलाया! क्षत्रिय भीख नहीं माँगते। तुम क्यों भीख माँगने के लिए आए हो, किस मुँह से यहाँ आए हो। महापापी हो, तुम क्षत्रिय नहीं हो। ये तो भिक्षु होकर भीख माँगने क लिए आया है। इनकी पत्नी जो थी यशोधरा, उसके कानों तक आवाज पहुँची। ये तो मेरे पति की आवाज है। वह निकल आई हवेली से बाहर और देखकर अवाक् हो गयी। राज-वेश में देखी थी और उसे भिक्षु वेश में देख रही है। आदर के साथ ले जाती है भीतर। भीतर में बैठाती है और पूछती है-आपने जो घर-वार, परिवार, राजपाट, धन-दौलत-सबका परित्याग किया। क्या यहाँ घर पर रहकर भगवद्प्राप्ति नहीं होती है! आपने हमलोगों को छोड़ दिया। उन्होंने कहा कि देखो, घर में रहकर तो लोग पढ़ते हैं; लेकिन जो फर्स्ट डिविजन से पास करना चाहते हैं, वह एकान्त स्थान खोजता है। उसी तरह से मेरी तीव्र इच्छा थी, मुझे जल्दी भगवद्प्राप्ति हो, इसीलिए शान्त एकान्त स्थान की खोज में चला गया। शांत-एकांत पाकर, पवित्र होकर घर में किया जा सकता है और बाहर में भी किया जा सकता है।
बाहर भीतर एको जानो यह गुरु ज्ञान बताई ।
जन नानक आपा चीने, मिटै न भ्रम की काई ।।
जो बाहर में है, वही भीतर में भी; जो भीतर में है, वही बाहर में है। लेकिन प्रभु की प्राप्ति जब कभी-भी होगी, तो भीतर ही होगी। जिनको प्राप्ति हुई है, भीतर ही हुई है। जब भीतर प्राप्ति हो जाएगी, तब बाहर भी हो जाएगी। जबतक भीतर में प्राप्ति नहीं हुई है, तबतक बाहर में प्राप्ति नहीं होगी। इसलिए संतों ने कहा-घर-वार, परिवार, रोजगार छोड़ने की जरूरत नहीं है। घर-वार, परिवार, रोजगार में रहिए और भजन भी कीजिए। जैसे भगवान श्रीकृष्ण ने कहा था-‘तस्मात् सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।’ युद्ध भी करो और मेरा स्मरण भी करो। उसके सामने युद्ध का मैदान था, इसलिए युद्ध करने के लिए कहा। हमलोगों के सामने कर्म है। काम भी करो और भगवान का नाम भी लें। इतना कहकर में अपने प्रवचन में विराम देता हूँ।
(स्थान-महर्षि मेँहीँ आश्रम कुप्पाघाट, भागलपुर; दिनांक-18-6-2006 ई0 साप्ताहिक सत्संग के सुअवसर पर हुआ था।)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
आपलोग यत्र-तत्र से आकर सत्संग में एकत्रित हो जाते हैं। बहुत अच्छी बात है। सत्संग में लाभ ही होता है, हानि नहीं होती है। सत्संग के वचनों को हमलोग नियम से श्रवण करें। इसको हृदय में धारण करें। आचरण में उतारें, तो कल्याण ही कल्याण है। संतवाणी का पाठ होता है-
बातें हैं अनमोल, मोल नहिं एक-एक की ।
अरे हाँ रे मेँहीँ, कहुँ जो चाहूँ कहन,
सन्त पद सिर निज टेकी ।।
सभी संतों ने एक ईश्वर बतलाया है। मनुष्य-शरीर दुर्लभ है, सुन्दर है; लेकिन क्षणभंगुर भी है। कबीर साहब ने कहा है-
कबीर वासा बुलबुला, अस मानस की जास ।
देखत देखी जायगा, ज्यों काया परगास ।।
परगास की काया बहुत चमकीली होती है। उसी तरह मनुष्य-शरीर देखने में सुंदर है, लेकिन क्षणभंगुर है। जब वर्षा होती है, तो गड्ढे में पानी जमा हो जाता है। फिर ऊपर से बूँदें जब गिरती है, तो बुलबुला हो जाता है। उस बुलबुले पर जब सूर्य की किरण पड़ती है, वह भी चमकीला लगता है। लेकिन उस बुलबुले की उम्र कबतक, जबतक उसमें हवा है। बुलबुले से हवा निकल जाएगी, वह समाप्त हो जाएगा। मनुष्य-शरीर भी बुलबुला के समान है। देखने में सुन्दर है, देव दुर्लभ है; लेकिन जबतक इसमें हवा है, तभी तक इसका जीवन है। इससे हवा निकल जाएगी, जीवन का अंत हो जाएगा। गुरु महाराज की वाणी में है-
छन-छन पल-पल समय सिरावै,
नर तन दुर्लभ फिर नहीं पावै।
जैसे-जैसे पल बीतता है, वैसे-वैसे हमलोग का जीवन धन समाप्त होता जाता है। इस शरीर का कोई भरोसा नहीं है, कब छूटेगा; लेकिन दुर्लभ है, फिर मिलने को नहीं। गुरु नानकदेवजी महाराज ने कहा-
नहिं ऐसो जनम बारम्बार ।
का जानी कछु पुन्य प्रगट्यो, तेरो मानुषा अवतार ।।
घटत छिन छिन बढ़त पल पल, जात न लागत बार ।
वृक्ष ते फल टूटि पड़िहै, बहुरि न लागत डार ।।
बैर वाले सँभाल तन को, विषम ऐड़ी धार ।
बेड़ा बाँधो सुरत की, चढ़ि उतर भौजल पार ।।
काम क्रोध हंकार तृष्णा, तजहु सकल बिकार ।
दास नानक मान लीजै, नाम को आधार ।।
कहते हैं-‘घटत छिन छिन बढ़त पल पल, जात न लागत बार’। जैसे कोई जन्म लिया। मान लिया उसका जीवन एक सौ वर्षों का है। लेकिन जिस दिन जन्म लिया, उस दिन एक दिन हुआ तो एक सौ वर्षों में एक दिन घट गया। बढ़ते-बढ़ते जब पाँच वर्ष का होशियार हो गया, तो अभिभावक समझते हैं, हमारा बच्चा पाँच वर्ष का हो गया; लेकिन जो सौ वर्षों का जीवन लेकर आया था, उसमें पाँच वर्ष घट गया। यही है-‘घटत छिन छिन बढ़त पल पल’ं। अब वह बीस वर्ष का, जवान हो गया, तो आयु घट गई बीस वर्ष। अस्सी वर्ष और बचा। इस तरह घटता और बढ़ता है। घटने-बढ़ने में समय बीत जाता है। गुरु नानकदेवजी कहते हैं, जैसे वृक्ष से जो फल गिर गया, वह फिर डाल में जाकर नहीं लगता। उसी तरह हम जो साँस लेते हैं, जो साँस निकल गई, सो निकल गई, वह लौटकर आनेवाली नहीं है। साँस पर ही जीव अवलंबित है। 21600 (इक्कीस हजार छः सौ) साँस स्वस्थ शरीर से प्रतिदिन निकलती है और अस्वस्थ होने पर 22000 से 25000 तक। पूरा होगा जाकर सौ वर्ष तक, लेकिन इधर घट जाएगा। अगर कोई भजन-ध्यान करता है, ध्यान करते-करते उसका प्राण-स्पंदन रुद्ध हो जाता है। जितनी देर रुद्ध होता है, उतनी साँसें बच गयीं, इससे आयु बढ़ जाती है। जो जीवन का क्षण निकल गया, वह फिर मिलने को नहीं। हमलोग नदी स्नान करने के लिए जाते हैं, जिस जल में हम डुबकी लगाते हैं, एक डुबकी से दूसरी डुबकी नहीं लगा सकते उसमें; क्योंकि वह पानी बहकर आगे निकल जाता है। उसी तरह हमलोगों का जीवन बहता ही रहता है। एक संत हुए धरनीदासजी, उन्होंने कहा है-
जीवन थोर बचा भवभोर,
कहा धन जोरि करोर बढ़ाये ।।
जीव दया करू साधु की संगति,
पैहों अभय पद दास कहाये ।।
जा सन कर्म छिपावत हौ सो
तो देखत है घट में घट छाये ।।
वेग भजो ‘धरनी’ सरनी ना
तो आवत काल कमान चढ़ाये ।।
जीवन की क्षणभंगुरता है। भगवद्भजन करना सार्थकता है। जागतिक धन जितना भी हम संग्रह कर लें, वह साथ जानेवाला नहीं है। ‘दृढ़ भजन धन खास हो, भवत्रस क्या करे।’ लेकिन भजनरूपी धन जितना जमा कर सकें, यही हमारे साथ जाएगा, अन्यथा और कुछ साथ नहीं जाएगा। यह सूत्रवत् बना हुआ है। ‘जीवन थोर बचा भवभोर, कहा धन जोरि करोर बढ़ाये’ लेकिन हमलोग जागतिक रुपयों के संचय करने में ही अपने जीवन के क्षण को व्यतीत कर देते हैं। हम नित्य दिन देख रहे हैं लोग आए, गए, कुछ साथ में नहीं लेकर गए। समझाने के लिए हम भी दूसरे को समझा देते हैं कि साथ में कुछ जानेवाला नहीं है; लेकिन फिर भी वही काम करते हैं, जो साथ में जानेवाला नहीं है, उसी का संग्रह करते हैं। जो भजन-ध्यान संग्रह साथ जानेवाला है, वह नहीं कर पाते हैं।
हम कुछ कर्म करते हैं। फल के लिए कर्म करते हैं। कुछ ऐसे भी कर्म करते हैं, जो कोई जानने नहीं पावे। धरनीदासजी कहते हैं- सबसे छिपा सकते हो, लेकिन प्रभु हमारे घट में ही बैठा हुआ है, उससे तुम कहाँ छिपाओगे। जब तुम यहाँ से जाओगे, दरबार में उपस्थित होओगे, तब जितने कर्म किये थे, तुम्हारे सब कर्मों की हाजिरी होगी। लोगों की मान्यता है, पौराणिक कथा है। धर्मराज के दरबार में एक चित्रगुप्त रहते थे। जो अच्छे कर्म करते हैं, वे लिखकर रखते हैं। चित्रगुप्त जाति के कायस्थ थे। दुनिया में सब जानते हैं कि कायस्थ मुंशी होते हैं; लेकिन परमात्मा के दरबार में भी कायस्थ ही मुंशी होते हैं। जबसे सृष्टि हुई है धर्मराज हैं, तबसे जबतक सृष्टि रहेगी तबतक। इसका अर्थ क्या है। कायस्थ का अर्थ होता है, जो काया में स्थित है। उसका नाम चित्रगुप्त है। जो कुछ भी हम कर्म करते हैं, वह फिल्म की तरह चित्र बन जाता है भीतर में, उसको कोई देखता नहीं। उसी दिन जानेंगे, जब दरबार में जाएँगे तब। इसलिए उसका नाम चित्रगुप्त है और काया में स्थित है। संत लोग कहते हैं, उससे तुम छिपा नहीं सकते हो, इसलिए ऐसे कर्म नहीं करो, जो तुम छिपाना चाहते हो। सत्कर्म करो, सत्संग करो, भजन करो। अपने जीवन को बर्बाद नहीं करो। एक भक्तिन हुई सहजोबाई, उन्होंने कहा-
पानी का सा बुलबुला, यह तन ऐसा होय ।
पीव मिलन को ठानिये, रहिये ना पड़ि सोय ।।
रहिये ना पड़ि सोय, बहुरि नहिं मनुखा देही ।
आपुन ही कूँ खोज, मिलै जब राम सनेही ।।
हरि कूँ भूले जो फिरै, सहजो जीवन छार ।
सुखिया जब ही होयगो, सुमिरेगो करतार ।।
यह पानी के बुलबुले के समान हमारा शरीर है। ‘पानी का सा बुलबुला, यह तन ऐसा होय ।’ किस समय, कहाँ पर, किस तरह शरीर छूट जाएगा, किसी को पता नहीं है। लेकिन जहाँ पर छूटेगा, किस तरह छूटेगा, वह निश्चित किया है। गुरु महाराज कहा करते थे-
यमराज के दरवाजे पर एक वृक्ष था, उसपर एक कबूतरी रहती थी बहुत दिनों से। समय पर वृक्ष से नीचे उतर जाती थी, दाना चुग लेती थी, फिर अपने घोंसले में चली जाती थी। बहुत दिनों तक यह चलता ही रहा। एक दिन वह कबूतरी उसी तरह वृक्ष से नीचे उतरकर दाना चुग रही थी। यमराज निकले बाहर, नजर पड़ी उस कबूतरी पर। कबूतरी को कुछ देर तक देखते रहे। कबूतरी की भी नजर यमराज पर पड़ी। यमराज चले गये; लेकिन कबूतरी डर के मारे थरथर काँपने लगी। यमराज की दृष्टि जिसपर जाए, उसकी क्या हालत होती है। ऊपर से चले जा रहे थे गरुड़जी। गरुड़जी की नजर पड़ी उस कबूतरी पर, जो डर के मारे काँप रही थी। गरुड़जी उतर गये और बोले-क्यों काँप रही हो, क्या बात है, क्या तकलीफ है? कबूतरी ने कहा-वर्षों से इस वृक्ष पर हूँ। दाना चुगती हूँ नीचे उतरकर, फिर अपने घोंसले में चली जाती हूँ। कभी यमराज मुझे नजर उठाकर देखा नहीं; लेकिन आज यमराज हमको बहुत देर तक देखता रहा। ना मालूम, हमारे भाग्य में क्या लिखा है। यमराज की नजर पड़ जाय, तो उसकी जीवन का क्या भरोसा! गरुड़जी ने कहा-तुम डरती क्यों हो। तुम मेरी पीठ पर बैठ जाओ। तुमको में ऐसी जगह रख आऊँगा, जहाँ पर यमराज का लकड़नाना भी नहीं पहुँचेगा। बैठ गई कबूतरी उसकी पीठ पर। हजार योजन दूर गरुड़जी चलते गये और एक पहाड़ की गुफा में उस कबूतरी को रख दिया और बाहर से पत्थर के द्वारा दरवाजा बंद कर दिया, ताकि कोई जानवर जाकर उसका वध नहीं करे। वह उड़ते हुए पहुँच गये यमराज के पास। गरुड़जी यमराज से भेंट करते हैं और पूछते हैं कि आज आपने कबूतरी को बहुत देर तक देखा है। यमराज ने कहा-हाँ, देखा तो है। गुरुड़जी ने कहा-आपके देखने का कारण! मेरे देखने का कारण है कि आज ही कबूतरी की मृत्यु होनेवाली है, यहाँ से एक हजार योजन दूरी पर एक पहाड़ की गुफा में; लेकिन यह छोटी-सी चिड़िया यहाँ पर है, हजार योजन यह कैसे जाएगी-यही सोचकर मैं देख रहा था खड़ा होकर। गरुड़जी ने कहा-मैंने तो वहाँ पहुँचा दिया। वहाँ पर वह जीवित होगी कि मर गई होगी? यमराज बोला-उसकी तो मौत हो गई होगी। गरुड़जी जाते हैं। दरवाजा बंद था, फाटक खोलकर भीतर जाते हैं, तो देखते हैं कि एक केकड़ा ने गला दाब दिया, वह मर गया है।
किसी को पता नहीं, हमारी मृत्यु कब होगी और किस तरह होगी। इसलिए सहजोबाई कहती है-‘पानी का सा बुलबुला, यह तन ऐसा होय’। इसलिए करो क्या? ‘पीव मिलन को ठानिये’। परमात्मा का यत्न जानकर भजन करो। ‘रहिये ना पड़ि सोय’ आलस में पड़े नहीं रहिए। संत चरणदासजी महाराज कहते हैं-
दिन को हरि सुमिरन करो, रैनि जागि कर ध्यान ।
भूख राखि भोजन करो, तजि सोवन को बान ।।
फिर इन्होने कहा-
चारि पहर नहिं जगि सकै, आधि रात सूँ जाग ।
ध्यान करो जप हीं करो, भजन करन कूँ लाग ।।
जो नहिं सरधा दोपहर, पिछले पहरे चेत ।
उठ बैठो रटना रटो, प्रभु सूँ लावहु हेत ।।
फिर कहते हैं-
जागै ना पिछले पहर, करै न गुरु मत जाप ।
मुँह फारे सोवत रहै, ताकूँ लागै पाप ।।
वह समझते हैं कि दिनभर चार पहर तो काम करते लोग रहते हैं, तो रात भर जग करके कैसे ध्यान करेंगे। इसलिए कहते हैं ‘आधि रात सूँ जाग।’ फिर मन में होता है कि एक पहर तो खाने-पीने में ही चला जाता है, दूसरे पहर में सोयेंगे, तो पिछले पहर में जगेंगे, अच्छा तो आराम कर ले। फिर कहते हैं-‘ध्यान करो जप हीं करो, भजन करन कूँ लाग।’ लेकिन ‘जो नहिं सरधा दोपहर, पिछले पहरे चेत।’ आधी रात से नहीं जग सकते हो, तो रात के पिछले पहर में जग जाओ, भगवान का नाम लो। अगर चौथे पहर में नहीं जगते हो-‘जागै ना पिछले पहर, करै न गुरु मत जाप’, तो परिणाम क्या होगा? ‘मुँह फारे सोवत रहै, ताकूँ लागै पाप।’ जो सोया हुआ रहता है, उसको पाप लगता है। श्रीमद्भागवत बतलाता है-भगवान श्रीकृष्ण ब्राह्ममुहूर्त में उठकर ध्यान करते थे। पिछले पहर का नाम है ब्रह्ममुहूर्त। ब्रह्ममुहूर्त का समय है।
पीव मिलन को ठानिये, रहिये ना पड़ि सोय ।।
रहिये ना पड़ि सोय, बहुरि नहिं मनुखा देही ।
आपुन ही कूँ खोज, मिलै जब राम सनेही ।।
फिर यह मनुष्य की देह मिलनेवाला नहीं है। जिस तरह का कर्म करोगे, उसी तरह की देह मिलेगी। कर्मानुसार देह मिलेगी। अगर भजन करोगे, ध्यान करोगे, तो भजन करनेयोग्य शरीर मिलेगा और भजन करनेयोग्य शरीर मनुष्य-शरीर से बढ़कर कोई दूसरा शरीर नहीं है। अगर भजन करते रहोगे तो फिर मनुष्य का शरीर मिल जाएगा। अगर वही जागतिक प्रवंचना है, तो उसी तरह का शरीर मिलेगा। ‘आपुन ही कूँ खोज, मिलै जब राम सनेही’ अपने शरीर में जो राम है, परम प्रभु परमात्मा है, उससे मिलना चाहते हो, तो ‘आपुन ही कूँ खोज’ पहले तुम अपनी खोज कर लो। अपनी पहचान अगर हो जाएगी, तो परमात्मा की भी पहचान हो जाएगी। जबतक अपनी पहचान नहीं, तबतक प्रभु की पहचान नहीं होगी। इसलिए-
इबादत है किसी नाशाद को फिर शाद कर देना ।
इबादत है किसी बरबाद को आबाद कर देना ।।
यही सीखा है हमने मुर्शद के कदम छू कर ।
चाहते हो खुदा से मिलना तो पता खुद का लगा लेना ।।
अगर खुद से मिलना है तो खुद का पता लगा। परमात्मा से मिलना है, तो आत्मा का पता लगाओ। आत्मा का पता मिल जाएगा, तो परमात्मा का भी पता मिल जाएगा। आत्मा की पहचान हो जाएगी तो परमात्मा की भी पहचान हो जाएगी। आत्मा की पहचान हो, परमात्मा की पहचान नहीं हो, ऐसी बात नहीं है। जिस क्षण आत्मा की पहचान होगी, उस क्षण परमात्मा की भी पहचान हो जाएगी। इसलिए कहते हैं-‘आपुन ही कूँ खोज, मिलै जब राम सनेही।’
हम-हम तो कहते हैं; लेकिन हम हैं कौन? ‘आमी आमी करी बुझिते ना पारी।’ हम अपने को पहचानते हैं, अपनी पत्नी को पहचानते हैं, पुत्र को पहचानते हैं, पुत्री को पहचानते हैं, समाज को, कुटुम्ब को, परिवार को-सबको पहचानते हैं। लेकिन हम स्वयं कौन हैं, इसको नहीं पहचानते। संत कहते हैं-पहले अपनी पहचान करो, तब परमात्मा की। तुम कोई शरीर नहीं हो, तुम्हारा शरीर है। तुम शरीर में रहते हो। तुम शरीर में शरीरी हो; क्षेत्र नहीं, क्षेत्रज्ञ हो। अपनी पहचान करो। जिस दिन अपनी पहचान हो जाएगी, उसी दिन, उसी क्षण परमात्मा की पहचान हो जाएगी। इसलिए संत कहते हैं-‘आमी आमी करी’ कहते हैं, हम हैं-हम हैं; लेकिन हम हैं कौन, इसकी पहचान करो।
आमी आमी करी बुझिते ना पारी।
के आमी आमाते आछे की रतन।
कोन शक्ति बले बेड़ाय चले बोले।
कारे आभावे होय देह अचेतन।
देहे माँझे आछे प्राणेरि संचार।
ताहा तेहि बले आमी बा आमार।
प्राण गेलेन चले होवे शवाकार।
केवाकार कोथाय रवे धन जन।।
अपनी पहचान करो यही सहजोबाई कहती है-‘आपुन ही कूँ खोज, मिलै जब राम सनेही।’ अपनी खोज करो, तब परमात्मा मिलेंगे ‘हरि कूँ भूले जो फिरै, सहजो जीवन छार।’ जो हरि को छोड़कर माया के पीछे भूले रहते हैं, अटके रहते हैं, उसका जीवन छार (राख) है, किसी काम का नहीं। इसलिए मनुष्य में रहते हुए भगवद्भजन करो। भगवद् की प्राप्ति करके कल्याणमय होवो। जो अपना कल्याण कर सकेंगे, वही दूसरे का कल्याण कर सकेंगे। जो अपना कल्याण नहीं बना सकते, वह दूसरे का कल्याण नहीं कर सकते। जो स्वयं विद्वान् नहीं है, वह दूसरे को विद्वान क्या बनाएँगे! इसलिए भजन करो, सत्संग करो, सदाचारमय जीवन जियो। झूठ, चोरी, नशा, हिंसा, व्यभिचार-इन पंच पापों को जो करता है, उससे भजन नहीं बनेगा। झूठ सब पापों की जड़ है। गुरु महाराज कहते थे-झूठ एक ऐसा झोला है, कितना भी पाप कर लो, सब उसमे अँट जाएगा। कोई भी पाप कर लो, कह दो-मैंने नहीं किया, उसी झोला में घुस जाएगा। इसलिए झूठ छोड़ो और सत्संग का-सत् का संग करो। अगर सत् का संग नहीं करो, तो सत्संग क्या चीज! पाँच पाप में कोई भी पाप करता है, उससे भजन नहीं बनेगा। ये झूठ, चोरी, नशा, हिंसा, व्यभिचार-पंच पापों से बचो। एक ईश्वर पर विश्वास करो, प्रभु की प्राप्ति अपने अंदर होगी, इसका दृढ़ निश्चय रखो। सत्संग करो, ध्यान करो, गुरुसेवा करो और अपने जीवन-यापन के लिए, परिवार के भरण-पोषण के लिए कुछ-न-कुछ पवित्र कमाई अवश्य किया करो। स्वावलंबी जीवन बिताओ। जो बन सके, दूसरे का उपकार करो, कल्याण होगा। आज रविवार है, गुरु-कीर्तन कहिए, फिर आरती। (स्थान-महर्षि मेँहीँ आश्रम कुप्पाघाट, भागलपुर; दिनांक-25-6-2006 ई0, साप्ताहिक सत्संग के सुअवसर पर हुआ था।)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
अभी आपलोगों ने ‘रामचरितमानस में बत्तीस प्रकार के सुख हैं’ के संबंध में सुना। वास्तविक बात तो यह है कि कोई किसी को सुख देता है और न दुःख। अपने ही किये कर्मों के फल सभी भोगते हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम जगज्जननी जानकी के साथ जब वन गये थे, तो उस वन में पत्ते की शय्या पर रात में श्रीसीताजी और भगवान श्रीराम-दोनों सोये हुए थे। थोड़ी दूर पर लक्ष्मणजी बैठकर पहरा दे रहे थे। गुहनिषाद लक्ष्मणजी के पास बैठ गया। भगवान श्रीराम और भगवती श्रीसीताजी को पत्ते की शय्या पर सोये देखकर निषाद के मन में बड़ा विषाद हुआ। उसने कहा-कैकई ने अच्छा नहीं किया। राजराजेश्वर, राजरानी अट्टालिकाएँ में सोनेवाले, ये लोग राजसुख को अनुभव करनेवाले, सुकोमल शय्या पर सोनेवाले कैकई के कारण ही पत्ते की शय्या पर सो रहे हैं। लक्ष्मणजी ने उत्तर दिया-
काहू न कोउ सुख दुख कर दाता।
निजकृत कर्म भोग सुनु भ्राता ।।
हे भाई! सभी अपने किये कर्मों का फल भोगते हैं। कैकई को तुम दोष क्यों लगा रहे हो। भगवान बुद्ध ने कहा-‘हमारी वर्तमान हालत हमारे विचारों का फल है। उसकी बुनियाद हमारे विचारों पर ही है। वह हमारे विचारों से बनी हुई है। मनुष्य अगर बुरी कल्पना से बोलता या कोई काम करता है, तो दुःख उसके पीछे-पीछे वैसे ही चलता है, जैसे बैलगाड़ी खींचनेवाले बैल के पीछे-पीछे चक्का। पुनः भगवान बुद्ध ने कहा-‘हमारी वर्तमान हालत हमारे विचारों का फल है। इसकी बुनियाद हमारे विचारों पर ही है। वह हमारे विचारों से बनी हुई है। मनुष्य अगर अच्छी कल्पना से बोलता या कोई काम करता है, तो सुख उसके पीछे-पीछे वैसे ही चलता है, जैसे साथ चलनेवाली शरीर की छाया, उसे कभी साथ नहीं छोड़ता। इसलिए बुरे कर्म को करना ही नहीं चाहिए, अच्छा-ही-अच्छा करना चाहिए। क्योंकि सब कोई अच्छा ही चाहते हैं। सब कोई सुख ही चाहते हैं। जो सुख चाहते हैं और दूसरे को दुःख देते हैं, तो सुख कहाँ से मिलेगा!
रोपे पेड़ बबूल का, आम कहाँ से होय ।
आम का पेड़ बोयेंगे, तो आम खायेंगे; अगर बबूल का पेड़ बोयेंगे तो काँटा चुभेगा। अपने कर्म फल को स्वयं भोगना पड़ता है। भगवान महावीर ने कहा-‘जियो और जीने दो।’ सभी संतों एवं भगवन्तों ने एक स्वर से यही कहा-संसार में तुम रहोगे, तो संसार के उद्यमों को अवश्य किया करो और वह उद्यम पवित्र हो। सब दिन संसार में रहना नहीं है, एक-न-एक दिन संसार से जाना है, इसलिए भगवद्भजन भी करो। इससे तुम्हारा इहलोक और परलोक दोनों बनेगा। अगर ऐसा नहीं करते हो, दूसरे उपाय से सुख चाहते हो, तो वह सुख मिलने को नहीं है। दिन में तुम रात चाहोगे और रात में दिन चाहोगे, तो यह नहीं हो सकता। कभी आपलोगों ने पाठ में सुना ही है, कहते-कहते यहाँ तक कह दिया-
अंधकार बरु रविहि नसावै ।
राम विमुख ना जीव सुख पावे।।
सूर्य का उदय होता है, तो अंधकार का विनाश होता है और रात की स्थिति नहीं रहती है। लेकिन गोस्वामीजी कहते हैं-थोड़ी देर के लिए मान लिया जाए, माननेयोग्य बात तो नहीं है, लेकिन अगर थोड़ी देर के लिए मान लिया जाए। कोई कहे- अंधकार ने सूर्य को ढँक दिया। सूर्य की स्थिति नहीं है। अंधकार ने सूर्य को नाश कर दिया। यह नहीं माननेवाली बात थोड़ी देर के लिए मान ही ली जाए; लेकिन बिना ईश्वर की भक्ति किये किसी ने सुख पाया है, यह मानने योग्य बात नहीं है।
एक बार का प्रसंग है-अंधकार गया भगवान के पास और कहा कि भगवन् मैं अपनी कुछ व्यथा सुनाने के लिए आया हूँ। भगवान ने कहा-निःसंकोच वत् कहो, क्या कहते हो। उन्होंने कहा-सूर्य हमारा जानीदुश्मन बना हुआ है। मुझे कहीं चैन से रहने नहीं देता है। भारत में कोने-कोने में छिपकर मैंने देख लिया, जहाँ मैं जाता हूँ, पीछे-पीछे चला जाता है। मैं विदेश चला जाता हूँ। अमेरिका गया, तो देखता हूँ कि थोड़ी देर के बाद वहाँ भी चला जाता है। वहाँ से भागकर भारत आता हूँ, जहाँ कहीं भी जाता हूँ, वहाँ चला जाता है। इतना सताता है मुझे। आप जरा समझा दीजिएगा। भगवान ने सूर्य को बुलाया और कहा-सूर्यदेव महाराज! अंधकार से दुश्मनी क्यों ठान लिये हैं। जहाँ वह जाता है, उसके पीछे-पीछे पहुँच जाते हो। ऐसा क्यों करते हैं? उसने आपका क्या बिगाड़ा है? सूर्य ने कहा कि भगवन्! हम तो आज ही सुन रहे हैं कि अंधकार भी कुछ होता है। मेरी तो कभी अंधकार से भेंट हुई ही नहीं है, मैं सताऊँगा कैसे? अगर आपको मेरी बात पर विश्वास नहीं है, तो अंधकार को बुला दीजिए, मैं हाथ जोड़कर क्षमा माँग लूँगा। आजतक अंधकार सामने आया नहीं है, न वह कभी सामने आएगा! उसी तरह से आप सुख चाहते हैं, तो भगवद् भजन करें। सदाचार का पालन करें, जीवन-यापन के लिए कुछ-न-कुछ पवित्र कमाई अवश्य करें। आज रविवार है, गुरु कीर्तन होगा, फिर आरती होगी। (स्थान-महर्षि मेँहीँ आश्रम कुप्पाघाट, भागलपुर; दिनांक-18-12-2006 ई0, साप्ताहिक सत्संग के सुअवसर पर हुआ था।)
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समवेत समादरणीय सज्जनवृन्द, आदरणीया माताओ तथा भक्तिमती बहनो!
आपलोगों ने रामचरितमानस का पाठ सुना है। यह बड़ा विलक्षण ग्रंथ है। भगवान राम की महिमा गायी गयी है। रामायण एक ही प्रकार के नहीं है। गोस्वामीजी ने लिखा है-‘रामायण सत कोटि अपारा।’ सौ करोड़ प्रकार के रामायण हैं। सौ करोड़ कहने पर भी गोस्वामीजी को संतुष्टि नहीं हुई, तो कह दिया- अपारा। क्योंकि राम-परमात्मा जो स्वरूपतः अपार हैं, उनकी महिमा भी तो अपार ही होगी। तो कोई भी उसका गुणगान करके कैसे पार हो सकता है। आजकल वसंत ऋतु है। वसंत ऋतु में पेड़-पौधे सब हरे-भरे हो जाते हैं, फूलने-फलने लगते हैं। लेकिन उसके पहले वृक्षों के पत्ते झड़ जाते हैं और नये-नये पत्ते निकलते हैं। पर जिस वृक्ष में पत्ते नहीं निकलते, इसमें वसंत ऋतु का क्या दोष! स्वाति नक्षत्र में वर्षा हो, अगर पपीहा के मुँह में पानी नहीं पड़े, तो इसमें वर्षा का क्या दोष! सूर्य का प्रकाश चारो ओर फैल रहा है और सूर्य को उल्लू नहीं देख पाता हो, तो इसमें सूर्य का क्या दोष! संत-सद्गुरु का संसर्ग कर, उनके साथ में रह सत्संग कर अगर अपने आचरण को नहीं सुधार सके, तो इसमें संत सद्गुरु और सत्संग का क्या दोष! राम-राम सब कोई कहते हैं, बहुत लोग कहते हैं; लेकिन राम कौन?
एक राम दशरथ घर डोलै ।
एक राम सब घट-घट बोलै ।।
एक राम का सकल पसारा ।
एक राम है सबसे न्यारा ।।
भारत में रहकर भी वैदिक धर्म में पड़कर भी, जब राम को हम नहीं जान पाए, तो सूक्ष्म सगुण साकार का क्या दोष! दशरथ के राम को बहुत लोग जानते हैं। राम के स्थूल स्वरूप, साकार स्वरूप को हम जानते हैं, लेकिन इसका सूक्ष्म सगुण साकार रूप को हम जानते हैं, इसका मतलब यह नहीं कि निराकार ही नहीं है। सगुण रूप को हम जानते हैं, तो उसको भी जानना चाहिए। हम जो रामस्वरूप राम-राम कहते हैं। गत कल आश्रम में रामचरितमानस का पाठ हुआ था, जिसमें वर्णन आया था कि भगवान श्रीराम, सीता, लक्ष्मण के साथ जंगल चले गये, तो राजा दशरथ राम के वियोग से व्याकुल हो गये और पुत्र-वियोग सहन नहीं कर सके। तब-
राम राम कही राम कहि, राम राम कहि राम ।
सहि न सकहिं पुत्र-विरह, राउ गयेउ सुरधाम ।।
छः बार उन्होंने राम का नाम लिया और स्वर्ग सिधार गये। कम क्यों नहीं लिया या बेशी क्यों नहीं लिया! हमलोगों के शरीर में छः चक्र हैं-मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, हृदय, कंठ और आज्ञा। छहों स्थानों से इन्होंने राम का नाम लिया यानी मूलाधार से भी, स्वाधिष्ठान से भी, मणिपूरक से भी, हृदय से भी, कंठ से भी और आज्ञाचक्र में जाकर शरीर छोड़ दिया।
बन्दउँ रामनाम रघुवर को।
हेतु कृषाणु भानु हिमकर को ।।
विधि हरिहरमय वेद प्राण सो।
अगुण अनुपम गुण निधान सो ।।
‘बन्दउँ रामनाम रघुवर को’ रघुवर के नाम की वंदना करता हूँ। वह क्या है? भानु, कृषाणु और हिमकर का कारण है और विधिहरिहर मय है। वेद का वह प्राण है। वह अगुण है, उपमा-रहित है और गुण निधान भी है। ‘रामनाम रघुवर के’ किस नाम का वर्णन करते हैं, किस नाम की वंदना गोस्वामी जी करते हैं। जो रामनाम भानु, कृषाणु और हिमकर का कारण है। कृषाणु, भानु और हिमकर कैसे लिखते हैं-
क् ऋकार + ष् आकार +ण् उकार = कृषाणु
भ् आकार + न् उकार = भानु
ह इकार + म + क + र = हिमकर
गोस्वामीजी कहते हैं-अगर हम ‘कृषाणु’ से ‘र’ निकाल लेते हैं, तो किषाणु हो जाता है। कृषाणु का अर्थ होता है अग्नि और ‘र’ निकाल लिया, तो हो गया किषाणु, उसका अर्थ अग्नि नहीं होगा। भानु से आकार निकाल लेते हैं हम, तो हो जाएगा भनु। भानु का अर्थ होता है सूर्य और भनु का अर्थ सूर्य नहीं होगा। हिमकर में से ‘म’ निकाल लेते हैं, तो हिकर हो जाता है। हिमकर का अर्थ होता है-चन्द्र और हिकर का अर्थ चन्द्र नहीं होगा।
कृषाणु से ‘र’ लिया गया, भानु से आकार लिया गया और हिमकर से ‘म’ लिया गया, तो राम हो गया। यह राम जो है, तीनों का कारण है। राम नहीं, तो इन तीनों का अस्तित्व नहीं है। वह राम ‘विधि हरिहरमय है। विधि = ब्रह्मा, प्रवर्तक। हरि = विष्णु, पालक। हर = शिव, संहारक। रजोगुण ब्रह्मा, सतोगुण विष्णु और तमोगुण शिव।
रज सत् तम मय है, वेद का प्राण। वेद की जितनी विद्याएँ हैं, उन विद्याओं के पूर्व ॐ का उच्चारण होता है। वह ॐ (अ+उ+म्) रज, सत्, तम मय है। उससे त्रयगुण की उत्पत्ति हुई है। वास्तव में वह है अगुण। अगर लोग उसको सगुण ही मान लें तो गोस्वामीजी उसका निराकरण करते हैं कि अगुण। वह निर्गुण सगुण-राम के लिए नहीं कह रहे हैं। अनुपम उपमा-रहित है और गुणनिधान है। गुण का खजाना है। उसी से त्रयगुण की उत्पत्ति हुई है। कहा जा सकता है, जो निर्गुण है, वह त्रयगुण कैसे हो सकता है। आकाश स्थिर है, लेकिन उससे जिस वायु की उत्पत्ति हुई है, वह चलनात्मक है। उसी तरह निर्गुण से सगुण, निर्गुण से त्रयगुण हुआ है। गोस्वामी तुलसीदासजी विविध प्रकार के रामनाम की चर्चा करते हैं।
गिरा अरथ जल बीचि सम, कहियत भिन्न न भिन्न ।
बंदउँ सीता राम पद, जिन्हहिं परम प्रिय खिन्न ।।
गिरा = वाणी और उसका अर्थ। वाणी और उसके अर्थ में कोई अंतर नहीं है। जल और लहर में कोई अंतर नहीं है, तत्त्वरूप में दोनों एक ही हैं। नाम भिन्न-भिन्न है। उसी तरह से सीता और राम अलग- अलग कहते हैं, पर दोनों एक ही हैं। गिरा Ðीलिंग है और अर्थ पुल्लिंग है। सीता Ðीलिंग शब्द है और राम पुल्लिंग शब्द है। आगे जल और बीचि; जल पुल्लिंग है और बीचि Ðीलिंग है। सीताराम कहिए या रामसीता कहिए-एक ही है। वही तुलसीदासजी कहते हैं-‘बंदउँ सीता राम पद, जिन्हहिं परम प्रिय खिन्न’, ऐसे सीता-राम की लोग वंदना करते हैं, जिनको निर्बल परम प्रिय है। रामचरितमानस हमलोग पढ़ते हैं, समझते हैं, समझाते हैं; लेकिन गोस्वामीजी कहते हैं-
सुनिय गुनिय समझिए समझाइए दशा हृदय नहिं आवै।
यदि प्रवचन के अनुकूल आचरण नहीं लाते हैं, तो वह प्रवचन नहीं, प्रवंचना है।
बात बनाइ जग ठगा, मन प्रबोधा नाहिं ।
कह कबीर मन के किया, गया चौरासी माहिं ।।
ऐसे मनवाले चौरासी में जाने से बच नहीं सकते। आज रविवार है गुरुकीर्तन कहिए, फिर आरती।
(स्थान-महर्षि मेँहीँ आश्रम कुप्पाघाट, भागलपुर; दिनांक-30-12-2006 ई0, साप्ताहिक सत्संग के सुअवसर पर हुआ था।)
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वेद संसार का प्राचीनतम धर्मग्रंथ है। श्रुति का उद्घोष-‘अनन्त वै वेदाः’ अर्थात् वेद-ज्ञान अनंत हैं। संसार के समस्त ज्ञानों का सार इसमें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से समाहित है। इसलिए महर्षि मनु ने कहा-‘वदोऽखिलो धर्ममूलम्’ संपूर्ण धर्मों का मूल वेद है।
आज जिसे हम हिन्दू धर्म कहते हैं, वह वस्तुतः वैदिक धर्म ही है। इसे सनातन धर्म या आर्य धर्म भी कहा जाता है। वेद को अनादि अनन्त, अनाशी और अपौरुषेय माना जाता है। इसलिए वैदिक धर्म को नित्य या सनातन धर्म कहते हैं। आर्य का अर्थ है-विद्वान्, बुद्धिमान, सभ्य और सदाचारी। इन्हीं विशेषताओं के कारण वैदिक जन आर्य कहे गये और वैदिक धर्म आर्य धर्म।
वैदिक धर्म एक जीवन्त, प्रगतिशील और उदार धर्म है। स्वस्थ और परिपक्व वृक्ष ही स्वस्थ और परिपक्व फल उत्पन्न करता है। वैदिक धर्म की परिपक्वता और परिपूर्णता विलक्षण है। यही कारण है कि अन्य धर्मों में कुछ गिने-चुने महापुरुष देखे जाते हैं। परम वैदिक धर्म में यदि महापुरुषों की गणना की जाए, तो एक महाग्रंथ का निर्माण हो जाएगा। प्राचीन आत्मवेत्ता ऋषि-मुनियों से लेकर अर्वाचीन संत-महात्माओं और विद्वानों के विचारों से वैदिक साहित्य समृद्ध होता रहा है। वैज्ञानिकों ने अनेक अनुसंधानों के आधारभूत सूत्र वैदिक वाघ्मय से प्राप्त किये हैं। अंतश्चेतना के द्वारा परम सत्य की उपलब्धि, पर सत्य का साक्षात्कार ही वैदिक धर्म का सत्त्व है। अनेक साहित्यकारों ने इस सत्य को प्रमाणित करने का प्रयास किया है कि इस्लाम धर्म के प्रवर्तक हजरत मुहम्मद साहब और ईसाई धर्म के प्रवर्तक ईसा मसीह ने सत्य की खोज में भारतीय उपमहाद्वीप की यात्र की थी और वैदिक धर्म की विशेषताओं को जानकर उन्हें ग्रहण किया था।
वैदिक धर्म की बहुत बड़ी विशेषता है, इसकी सहिष्णुता और उदारता। इसने कभी अपने को कूपमंडूक नहीं बनाया, बल्कि जहाँ से भी अच्छी चीजें मिलीं, इसने आगे बढ़कर अपनाया। विश्व के समस्त धर्मों के असली निचोड़ इसमें देखे जाते हैं। इसकी उदारता ऐसी है कि आस्तिक से लेकर नास्तिक तक, एकेश्वरवादी से लेकर बहुदेव उपासी तक, सभी वैदिक धर्म के महासमुद्र में समाये हुए हैं। अधिकांश धर्म एक व्यक्ति या एक धर्मग्रंथ पर आधारित है, जिसके इर्द-गिर्द वह घूमता है। प्रवर्तक से ही धर्म के सिद्धांत गढ़े जाते हैं या धर्मग्रंथ के शब्द ही अंतिम आदेश माने जाते हैं। पर वैदिक धर्म के धार्मिक- आध्यात्मिक सिद्धांतों में दर्शन की प्रमुखता है, किसी एक प्रवर्तक या पैगम्बर की नहीं। अन्य धर्म अपने अंदर किसी तरह के अनुसंधान या उसके अंगों-उपांगों की समीक्षा की स्वीकृति नहीं देता, नई बातों को स्वीकार नहीं करता। प्रचलित मान्यताओं से इतर कुछ भी सोचना या करना वहाँ के धर्म का खंडन या विरोध माना जाता है। जबकि वैदिक धर्म इस मामले में कभी संकीर्ण नहीं रहा।
वैदिक धर्म का मूल सिद्धांत है-आत्मज्ञान अर्थात् स्व या आत्मा का अनुसंधान। अन्य कर्मकांड, रीति-रिवाज आदि तो धर्म के गौण अंग हैं। हाइड्रोजन और ऑक्सीजन का सही अनुपात में मिलाने से जल बनता है, यह जितना सत्य है, उतना ही सत्य यह वैदिक सिद्धांत है कि अंतस्साधना के द्वारा जड़ और चेतन को पृथक् कर लेने पर चेतन-आत्मा की पहचान होती है तथा सर्वाधार परमात्मा की पहचान होती है।
हमारे संतों ने कहा है कि यह मान लेने की बात नहीं है, इसे करके देखो और पाओ। जब मूल सिद्धांत को भूलकर सम्प्रदायवाद और कर्मकांड को ही सर्वस्व समझने लगते हैं, तब धर्म की विशेषताएँ नष्ट हो जाती हैं और उसमें कट्टरता-संकीर्णता आने लगती हैं। छुआछूत और ऊँच-नीच का भेद कभी वैदिक धर्म का अंग नहीं माना जा सकता। वैदिक धर्म के आदर्श प्रतीक के रूप में अवतरित भगवान श्रीराम ने जंगल में एक भीलनी का आतिथ्य ग्रहण किया था। भगवान श्रीकृष्ण ने राजा युधिष्ठिर द्वारा आयोजित राजसूय यज्ञ में श्वपच भक्त को आमंत्रित करने का विशेष निर्देश दिया था। ये प्रसंग इस बात की पुष्टि करते हैं कि इन कुरीतियों को कुछ लोगों ने तुच्छ स्वार्थवश प्रश्रय दिया है। वैदिक धर्म अपने विस्तार के लिए धार्मिक आक्रमण और धर्मान्तरण करना नहीं सिखलाता है। यह ‘जियो और जीने दो’ के सिद्धांत पर विश्वास करता है। यह ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ को मानते हुए सबको प्यार और आदर देना सिखलाता है।
शोधों की अनन्त प्रक्रिया से गुजरते रहने के कारण वैदिक धर्म में पुरानी मान्यताओं के साथ-साथ नवीन बातों का समावेश होता रहा, परिष्करण होता रहा। सत्य ज्ञान को इसके आविष्कारक ऋषियों ने अलग-अलग समय में अपने-अपने ढंग से समाज के सामने रखा। इसकी मूल बातें-आत्मा की अमरता, पुनर्जन्म में आस्था और आत्मज्ञान से पूर्ण कल्याण-जैसी आधारभूत बातें यथावत् रहीं।
धर्म प्रदर्शन, प्रतिपादन, खंडन या बुद्धि-विलास की वस्तु नहीं है। मानव-जीवन के भौतिक और आध्या- त्मिक सफलता के लिए धर्म का प्रतिपादन किया जाता है। इन अर्थों में वैदिक धर्म एक संपूर्ण, प्रगतिशील, उदारवादी और वैज्ञानिक धर्म है। मानव जीवन की पूर्ण सफलता के समस्त रहस्यों का उद्घाटन वैदिक धर्म में उपलब्ध है। आवश्यकता है सच्चे मुमुक्षु की, जो इस सत्य को खोजकर अपने जीवन को उज्ज्वल और स्वर्णिम बना सके। सभी परस्पर प्रेम से रहे।
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत् ।।
(शान्ति-संदेश, दिसम्बर 2006)
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जैसे जल-कण का समूह समुद्र होता है, वैसे ही जन समूह का समष्टि रूप राष्ट्र होता है। जिस प्रकार समुद्र से समस्त-सलिल कण निकल जाने पर सागर का अस्तित्व नहीं रह जाता; उसी प्रकार यदि राष्ट्र के सभी व्यक्ति यत्र-तत्र छिन्न-भिन्न होकर बिखर जायें, तो उस राष्ट्र का नामोनिशान मिट जायेगा। इसलिए राष्ट्र के प्रत्येक नागरिक का पुनीत कर्त्तव्य है कि सभी मेल से रहें। एकता में बल होता है, जिससे राष्ट्र की समृद्धि होती है। एकता से बलवत्ता और अनेकता से दुर्बलता आती है। एकता से स्वतंत्रता और अनेकता से परतंत्रता आती है। कहने की आवश्यकता नहीं, सबके अक्ष के समक्ष प्रत्यक्ष है कि जबतक अपने देश में एकता रही, तबतक स्वतंत्रता बनी रही और जब देश छोटे-छोटे राज्यों में बँट गया, तो बलहीन होने के कारण विदेशियों के द्वारा हमारी स्वतंत्रता छिन गई और हम परतंत्र हो गए। पश्चात् पुनः जब हम सब मिलकर एक हो गए, तो स्वतंत्रता की साँस लेने लगे। हमारी यह स्वतंत्रता अक्षुण्ण बनी रहे, इसके लिए एकता अनिवार्य है। एकता के लिए पारस्परिक सत्य व्यवहार अनिवार्य है। बिना सत्य-व्यवहार के एकता टिक नहीं सकती। अतएव सत्याचरण आवश्यक है।
देश-हित में अपना हित निहित है, ऐसी भावना होनी चाहिए। देश की सुरक्षा अपनी सुरक्षा है। देश-हित को दृष्टिगत करते हुए हमारा कर्म होना चाहिए। हम भूलकर भी ऐसा कार्य नहीं करें, जिससे देश का अहित हो! जिस जननी के गर्भ से हम जन्म लेते हैं, वह हमारी माता कहलाती है। उसी प्रकार जिस राष्ट्र की धरित्री पर हम जन्म-धारण करते हैं, वह हमारी मातृ तुल्य होती है, बल्कि कुछ अंशों में उससे भी विशेष कहा जा सकता है।
‘जननि जन्म भूमिश्च, स्वर्गादपि गरीयसी।’
जन्मदातृ मातृ की गोद में अज्ञानावस्था में रहकर हम मात्र कुछ महीने मल-मूत्र विसर्जन करते हैं; किन्तु पृथ्वी माता की गोद में हम ज्ञानावस्था में रहकर जीवन पर्यन्त मल-मूत्र त्याग करते हैं। जन्मदात्तृ माता की गोद में हम शैशवावस्था में रहकर स्वल्पकाल ही उनका दुग्ध पान कर किलकारियाँ भरते हैं; किन्तु धरती माता की गोद में हम जीवनपर्यन्त खाते-पीते और आनन्द-चैन की वंशी बजाते हैं। इसकी सर्वतोमुखी उन्नति के लिए हमें तन, मन तथा धन समर्पण-हेतु सतत प्रस्तुत रहना चाहिए। इतना ही नहीं, देश-रक्षार्थ यदि अपने को बलिवेदी पर चढ़ाना पड़े, तो उससे भी मुख नहीं मोड़ना चाहिए।
जात-पाँत, ऊँच-नीच, छुआ-छूत एवं पंथाई भावों के भूत को दूरीभूत कर एक जुट होकर हम रहें। सत्य, प्रिय, मृदु एवं मितभाषी बनें। परोपकार की भावना रखें। परमुखापेक्षी न हों। स्वावलम्बी जीवन जियें यानी श्रम-सीकर की सच्ची कमाई कर अपना जीवन-यापन करें। पवित्रेपार्जन से प्राप्त वस्तुओं में सन्तुष्ट रहें। काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, चिढ़, द्वेश, ईर्ष्या आदि तामस विकारों से बचते हुए दया, क्षमा, नम्रता, शील, संतोष प्रभृति सात्त्विक गुणों को धारण करना हितकर है।
जीवन में आस्तिकता का होना अत्यावश्यक है; क्योंकि आस्तिकता के साथ सदाचारिता का अन्योन्याश्रित संबंध होता है। जैसे श्फ़श् (क्यू) के साथ श्न्श् (यू) का। जैसे-ंश्फ़श् से श्न्श् को कोई भिन्न नहीं कर सकता, उसी प्रकार आध्यात्मिकता से सदाचारिता को कोई पृथक् नहीं कर सकता। यानी अध्यात्म के साथ सदाचार अनिवार्य रूप से रहता है। जिस समाज में सदाचार पालित लोग रहेंगे, वहाँ से अत्याचार, अनाचार, दुराचार, व्यभिचार, बलात्कार, लूट-पाट, मार-काट प्रभृति दुष्कर्म उसी प्रकार दूर हो जायेंगे; जैसे सूर्योदय होने पर अन्धकार, क्योंकि समाज के सज्जन ही राजनीति में जाते हैं। पवित्र सामाजिक नीति के कारण राजनीति पवित्र हो जायेगी। इस प्रकार देश में शान्ति विराजेगी।
(शान्ति-सन्देश, दिसम्बर, 2007 ई0)
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